Friday, October 21, 2016

समाज शब्‍द का प्रयोग मानव समूह के लिए किया जाता है ।

व्‍यावहारिक रुप से समाज शब्‍द का प्रयोग मानव समूह के लिए किया जाता है । किन्‍तु वास्‍तविक रुप से समाज मानव समूह के अन्‍तर्गत व्यक्तियों के सम्‍बंधों की व्यवस्‍था का नाम है । समाज स्‍वयं एक संघ है संगठन है, औपचारिक सम्‍बंधों का योग है ।
समाज के प्रमुख स्‍तम्‍भ स्त्री और पुरुष हैं । स्त्री और पुरुष का प्रथम सम्‍बंध पति और पत्‍नी का है, इनके आपसी संसर्ग से सन्‍तानोत्‍प‍त्ति होती है और परिवार बनता है । परिवार में सदस्‍यों की वृद्धि होती जाती है और आपसी सम्‍बंधों का एक लम्‍बा सिलसिला जारी होता है । मानव बुद्धिजीवी है इसलिए इसे सामाजिक प्राणी कहा गया है । मानवेतर प्राइज़ में इन सम्‍बंधों के मर्यादा के निर्वाह की वैसी बुद्धि नहीं है जैसी मानव में होती है । परिवार सामाजिक जीवन की सबसे छोटी और महत्‍वपूर्ण इकाई है ।
प्राचीन ऐतिहासिक अध्‍ययन से यह ज्ञात होता है कि प्रारंभिक युग का जीवन संयुक्‍त पारिवारिक प्रणाली पर आधारित था । गॉंव या शहर में कई पैतृक कुटुम्‍ब बसे रहते थे और उन पैतृक कुटुम्‍बों के स्‍वामी ही गॉंव के बड़े एवं मुखिया होते थे । कुटुम्‍ब का संगठन अनुशासन एवं मर्यादायुक्‍त होता था । परिवार का मुखिया उसका वयोवृद्ध व्‍यक्ति हुआ करता था । वही धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक मामलों में परिवार का नेतृत्‍व करता था । मध्‍य काल तक लगभग परिवार की यही व्‍यवस्‍था चलती रही । किन्‍तु योरोपीय सभ्‍यता ने जब हमारी संस्‍कृति पर प्रभाव डाला तो संयुक्‍त परिवार प्रणाली में बिखराव आने लगा । जहॉं परिवार में कई कई पीढि़यों तक संयुक्‍त रहने का एक नियम सा बन गया था, वहॉं पाश्‍चात्‍य सभ्‍यता के प्रभाव से परिवार पति-पत्‍नी तथा अविवाहित बच्‍चों तक ही सीमित रह गया । वर्तमान युग आते-आते संयुक्‍त परिवारों की संख्‍या कम होती गई तथा अब यह प्रणाली समाप्‍त प्राय ही दृष्टिगत होती है । इस विघटन का मुख्‍य कारण व्‍यक्तिवादी विचारधारा का बाहुल्‍य है । आज का पारिवारिक जीवन भौतिक जीवन की सुख-समृद्धि जुटाने तक ही सीमित रह गया है । जिन आघ्‍यात्मिक मूल्‍यों पर यह व्‍यवस्‍था आधारित थी उन मूल्‍यों को हम भूलते जा रहे हैं ।
आदिकाल से ही हमारा समाज पितृ-प्रधान रहा है । यही कारण है कि पैतृक सम्‍पत्ति के संरक्षण, वंश विस्‍तार तथा पिता के मरणोपरान्‍त उसे ऋण से उऋण होने हेतु पुत्र का होना आवश्‍यक समझा जाने लगा तथा सन्‍तान का होना भी अत्‍यावश्‍यक समझा जाने लगा । यह सामाजिक व्‍यवस्‍था एवं मनोवृत्ति आज भी भारतीय जनमानस में विद्यमान है । हॉं वर्तमान में यह अवश्‍य हुआ है कि बढ़ती हुई जनसंख्‍या के नियंत्रण हेतु सरकारी कानूनों एवं प्रोजेक्ट के परिणास्‍वरुप नियोजित परिवार की धारणा बनी है, किन्‍तु पुत्रहीन होना आज भी किसी को पसंद नहीं है ।
भारतीय संस्‍कृति में नारी का परम्‍परागत आदर्श है “यत्र नार्यस्‍तु पूज्‍यन्‍ते रमन्‍ते तत्र देवता”। भारतीय संस्‍कृति इसके जननी, भगिनी, पत्‍नी तथा पुत्री के पवित्र रुपों को अंगीकार करती है । जिसमें ममता, करुणा, क्षमा, दया, कुलमर्यादा का आचरण तथा परिवार एवं स्‍वजनों के निमित्‍त बलिदान की भावना हो, वह भारतीय नारी का आदर्श रुप है । नारी का मातृरुप महत्‍वपूर्ण आदर्श है- जननी जन्‍मभूमिश्‍च स्‍वर्गादपि गरियसी । किन्‍तु भारतीय संस्‍कृति की विचारधारा में नारी पतिव्रत-धर्म मातृ रुप से भी अधिक महत्‍वपूर्ण माना गया है । प्रकृ‍ति ने नर और नारी में भिन्‍नता प्रदान की है और यही कारण है कि उनके कर्म भी अलग-अलग हैं । किन्‍तु ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । मनुष्‍य कठोर परिश्रम करके जीवन-संग्राम में प्रकृति पर यथाशक्ति अधिकारी करके एक शासन चाहता है, जो उसके जीवन का परम लक्ष्‍य है और कठोर परिश्रम के पश्‍चात् विश्राम की आवश्‍यकता होती है तो शीतल विश्राम है स्‍नेह, सेवा और करुणा की मूर्ति रुपी नारी । नारी के अनेक रुपों में पर का पत्‍नी रुप से अति निकट का सम्‍बन्‍ध है । नर-नारी सम्‍बन्‍धों का सुन्‍दर रुप दाम्‍पत्‍य जीवन है । क्‍योंकि पति-पत्‍नी एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने पर ही प्रजा का सृजन कर सकते हैं और परिवार को सुचारु रुप से चला सकते हैं । आधुनिक युग में भी शिक्षित, जागरुक, चरित्रवान आदर्श सुपत्‍नी ही आदर्श भारतीय नारी है ।
ऊपर यह स्‍पष्‍ट किया गया है कि स्‍त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं किन्‍तु आज भी हमारा समाज पितृ-प्रधान ही है । देश के विभिन्‍न समुदायों तथा वर्गों में स्‍त्री की सामाजिक स्थिति पुरुष की अपेक्षा निम्‍न मानी जाती है । यहॉं अभी भी ऐसे रीति-रिवाज, अंधविश्‍वास और धर्म विधियॉं या कर्म-काण्‍ड हैं जो स्‍त्री को नीचा दिखाते हैं और पुरुष को स्‍त्री से उच्‍च व बहुत अधिक वांछित साबित करते हैं – जैसे पिता के मरणोपरान्‍त अंतिम धार्मिक कृत्‍य बेटा ही करेगा और बेटे के ही करने से पिता स्‍वर्ग का भागी होगा । हमारे समाज ऐसे रीति-रिवाज तथा प्रवृत्तियॉं प्रचलित हैं, जिसके कारण आज भी स्त्रियों को वह स्‍थान प्राप्‍त नहीं है जो वास्‍तव में होना चाहिए । जैसे- दहेज-प्रथा या लड़की का पराया धन समझना और शादी के बाद माता-पिता का कोई हक न समझना तथा शादी-शुदा स्‍त्री को जब तक पुत्र न पैदा हो तब तक उसे परिवार में महत्‍वपूर्ण स्‍थान न देना आदि । इन्‍हीं सामाजिक प्रवृत्तियों और दहेज जैसे रिवाजों के परिणामस्‍वरुप बेटियॉं चेतन व अचेतन रुप में एक बोझ सी मानी जाती हैं, जबकि बेटे एक पूंजी के समान समझे जाते हैं । यद्यपि आजादी के बाद हुए आर्थिक सामाजिक परिवर्तनों तथा अर्न्‍राष्‍ट्रीय महिला वर्ष के अन्‍तर्गत महिलाओं की ‍िस्‍थति को सुधारने के लिए बनी योजनाओं के माध्‍यम से महिलाओं की सामाजिक स्थिति में काफी परिवर्तन आया है ।
यद्यपि वर्तमान में पाश्‍चात्‍य सभ्‍यता के प्रभाव, परिवार नियोजन की धारणा तथा व्‍यक्तिवादी सोच के कारण नारी स्‍वभाव में कुछ विकृति आई है । पूर्वकाल में जहॉं नारियॉं अपने दूध से दूसरों के बच्‍चों का पालन-पोषण करना अपना कर्तव्‍य समझती थीं वहॉं कभी यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि ममता, करुणा, स्‍नेह और दया की देवी कही जाने वाली नारी अपने ही बच्‍चे को अपना दूध नहीं पिलाएगी । किन्‍तु वर्तमान में यह स्‍पष्‍ट रुप से दृष्टिगत हो रहा है । स्त्रियों द्वारा बच्‍चों को अपना दूध न पिलाना एक समस्‍या बन गयी है और इसी प्रकार यह कहना कि नारी सर्पिणी बन जायेगी अपने ही बच्‍चे की हत्‍यारिन होगी असंभव था, किन्‍तु आज बढ़ती हुई भ्रूण हत्‍या इसका प्रत्‍यक्ष प्रमाण है । यद्यपि इसके लिए पुरुष व चिकित्‍सक भी कम जिम्‍मेदार नहीं है । भारत सरकार ने कानून बनाकर भ्रूण-हत्‍या को कानूनी अपराध करार दिया है ।
व्‍यक्तिवादी सोच एवं फिल्‍म संसार ने तो वर्तमान में सामाजिक मूल्‍यों को ताक पर रख दिया है । स्‍मरणीय है कि कुछ वर्ष पूर्व किसी फिल्‍म निर्माता पर मुकद्मा चलाया गया । किन्‍तु आज फिल्‍मों में ही नहीं बल्कि चौराहों पर लगे पोस्‍टर में भारतीय नारियों को अर्द्धनग्‍न ही नहीं बल्कि अति नग्न तस्‍वीरें देखी जा सकती है । यदि समाज के इस परिवर्तन पर ध्‍यान न दिया गया इसे नियंत्रित करने का प्रयास न किया गया तो भविष्‍य में भारतीय नारी का आदर्श क्‍या होगा, कहना कठिन है ।
दाम्‍पत्य जीवन का फल संतान उत्‍पत्ति है । पहले भी लिखा जा चुका है कि नियोजित परिवार की धारणा के बावजूद भी कोई व्यक्ति पुत्रहीन होना पसंद नहीं करता । आज के बच्‍चे ही कल के स्त्री और पुरुष है । बाल्‍यावस्‍था में जो संस्‍कार बनते हैं वही बड़े होने पर प्रकट होते हैं । मॉं की गोद को बच्‍चे की पहली पाठशाला कहा गया है । प्राचीन ऐतिहासिक अध्‍ययनों से पता चलता है कि मॉं अपने बच्‍चे को लोरियों और कहानियों के माध्‍यम से वीर गाथायें और सत्पुरुषों की कहानियां सुनाती थी, जिससे उनके अन्‍दर वीरता एवं सच्‍चाई के भाव पैदा होते थे और बड़े होकर वीर और सच्‍चे बालक के रुप में धरा को सुशोभित करते थे । कक्षा-3 की पुस्‍तक में सच्‍चा बालक नामक शीर्षक में यह पढ़ा था कि हजरत अब्‍दुल कादिर जीलानी रहमतुल्‍लाह अलैहे को उनकी मॉं ने सच्‍चाई का पाठ पढ़ाया था और यात्रा पर जाते समय यह समझाया था कि बेटा कभी झूठ मत बोलना । मॉं की इस नसीहत का बच्‍चे अब्‍दुल कादिर पर इतना गहरा असर था कि रास्‍ते में डाकुओं द्वारा काफिले का सारा माल लूटे जाने के पश्‍चात् जब उनसे उनके माल के बारे में पूछा गया तो उन्‍होंने सदरी में मॉं द्वारा छिपाकर रखी गई चालीस अशर्फियों को निकाल कर दिखा दिया, जबकि डाकू उन अशर्फियों को ढूंढने में असमर्थ थे । यह देखकर डाकुओं के सरदार ने आश्‍चर्य से पूछा ऐ लड़के । तुमने अपने छिपे हुए माल का पता हमें क्‍यों बता दिया, जबकि तुमको यह पता है कि हम डाकू हैं । बच्‍चे ने जवाब दिया कि चलते समय मेरी मॉं ने मुझसे कहा था, बेटा कभी झूठ मत बोलना तो मैं झूठ कैसे बोल सकता हूँ बच्चे की इस सच्चाई का डाकुओं पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होने काफिले का लूटा हुआ सारा माल वापस कर दिया तथा हमेशा के लिए डकैती का परित्याग कर दिया

भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन के सम्यक संचालन के लिए मनोवैज्ञानिक आधार पर चार सूत्रीय व्यवस्था की योजना की थी । जिसके अनुसार मानव को 100 वर्ष का मानकर चार स्वाभाविक अवस्थाओं में विभक्त किया गया था, जिसके प्रथम 25 वर्ष (ब्रह्मचर्य आश्रम) विद्या अध्ययन हेतु रखा गया था । बालक परिवार की पाठशाला छोड़ कर गुरु की पाठशाला में प्रवेश करता था । गुरु गाँव अथवा शहर के वातावरण से पृथक जगंल के शुद्ध प्राकृतिक वातावरण में छात्र को विद्या अध्ययन कराते थे और अध्ययनोपरांत छात्र चरित्रवान, सुशील, सहनशील, धैर्यवान एवं आज्ञापालक बनकर अपने घर वापस लौटते थे यधपि शिक्षा का यह रूप बहुत सीमित था । समाज का हर व्यक्ति शिक्षा नहीं ग्रहण कर सकता था आगे चलकर यह व्यवस्था समाप्त हो गयी और वर्तमान में समाज के हर व्यक्ति को समान रूप से शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार प्राप्त है। 

वर्तमान में परिवार के बाद दूसरी महत्वपूर्ण संस्था विद्यालय है । अधिकांश देशों में प्राथमिक स्तर तक नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की गयी है । चूँकि शिक्षा देश के विकास की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है । इसलिए इसे उच्‍च प्राथमिकता दी गयी है । चूंकि शिक्षा देश के विकास की प्रक्रिया का एक अभिन्‍न अंग है । इसलिए इसे उच्‍च प्राथमिकता दी गयी है । विद्यालय बालक को देश-विदेश के इतिहास, भाषा, विज्ञान, गणित, कला तथा भूगोल की जानकारी प्रदान करते है । कालेज, विश्‍वविद्यालय और अन्‍य संस्‍थान व्‍यक्ति को किन्‍हीं खास विषयों का विशिष्‍ट ज्ञान प्रदान करते हैं । वे व्‍यक्ति को इस योग्‍य बनाते है कि वे अपनी जीविका उपार्जित कर सकें और समाज का एक उपयोगी अंग बन सके । वर्तमान में शिक्षा संस्‍थाओं की बहुतायत है और इस संस्‍था में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र, छात्राओं की भीड़ है । बालक, बालिकाएं समान रुप से तकनीकी एवं गैर-तकनीकी हर क्षेत्र में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं । किन्‍तु आज की सह-शिक्षा ने पाश्‍चात्‍य देशों की तरह हमारे देश में निरंकुश समाज को जन्‍म दिया है । जिसके परिणामस्‍वरुप युवक और युवतियों के आचार-विचार में काफी परिवर्तन आया है । आचरणहीनता, अशिष्‍टता तथा मर्यादा का निर्वाह न करना आम बात बन गयी है । शिक्षा संस्‍थाओं और शिक्षकों की बहुतायत होने के बावजूद भी समाज नैतिक पतन की और जा रहा है । इसके पीछे जो कारण प्रतीत होता है वह यह है कि शिक्षा का उद्देश्‍य लिखने-पढ़ने के योग्‍य बन जाना और शिक्षा के माध्‍यम से जीविकोपार्जन का साधन प्राप्त कर लेना है । हमारी आज की शिक्षा में कहीं भी इस बात पर बल नहीं दिया गया है कि शिक्षा के माध्‍यम से चरित्र का निर्माण हो और मर्यादा का पालन किया जायेगा । आज का एक डाक्‍टर समाज का शिक्षित और संभ्रांत व्‍यक्ति है । क्‍या यह डाक्‍टर अपने भौतिक सुख के लिए अथवा भौतिक सुख को प्राइज़ करने के लिए अपनी कई पत्नियों, एक के बाद दूसरी को जहर का इंजेक्शन लगाकर मौत के घाट उतार सकता है क्‍या उच्‍च शिक्षा प्राप्त उच्‍च अधिकारी पति-पत्नियों की आपसी आचरणहीनता एक दूसरे को आत्महत्‍या के लिए मजबूर कर सकती है इस प्रकार की अनेकों खबरें समाचार पत्रों के माध्‍यम से आज के शिक्षित समाज की प्राप्त होती रहती है । जो आज के शिक्षित समाज के लिए एक अभिशाप है । 

परिवार और शिक्षण संस्‍थाओं के बाद व्‍यक्ति के लिए उसका पड़ोस और आस-पास का इलाका सबसे अधिक महत्‍व रखता है । पड़ोसी अलग-अलग जातीय समुदाय से संबंधित हो सकते है । उनके व्‍यवसाय धार्मिक विश्‍वास और रहन-सहन का ढंग भी अलग-अलग हो सकता है, किन्‍तु पड़ोसी होने के कारण कुछ सम्मिलित जिम्‍मेदारियां होती है । जैसे पड़ोस में रहने वाले सभी लोगों का कल्‍याण इस बात में है कि गली-मुहल्‍ला साफ-सुथरा रहे, सभी लोग यह चाहेगें कि पड़ोस में शान्ति पूर्ण वातावरण रहे, सभी यह चाहेगें कि उनके बच्‍चे बुरी आदतों का शिकार न बनें और पड़ोस में आमोद-प्रमोद का स्‍वस्‍थ्‍य वातावरण बना रहे । अच्‍छे पड़ोसी के लिये यह आवश्‍यक है कि वह पास-पड़ोस को साफ-सुथरा रखें, पड़ोसियों के दु:ख दर्द में शामिल हो, उनकी सुख-सुविधाओं का ध्‍यान रखें, चोरों और अजनबी लोगों पर नजर रखें, बच्‍चों को कुसंग से बचायें आदि । 

जैसे-जैसे पारिवारिक पड़ोस में वृद्धि होती जाती है समाजिक क्षेत्र का विस्‍तार होता चला जाता है । कई परिवारों से गॉंव, कस्‍बे शहर बनते हैं, तत्‍पश्‍चात् देश और सम्‍पूर्ण विश्‍व । पड़ोस से तात्‍पर्य सिर्फ घर से घर ही नहीं बल्कि गॉंव का पड़ोसी गॉंव, शहर का पड़ोसी शहर, देश का पड़ोसी देश इस प्रकार सम्‍पूर्ण विश्‍व बनता है । हमारी संस्‍कृति तो वसुधैव कुटुम्‍बकम् के भाव से परिपूर्ण है । सम्‍पूर्ण विश्‍व को एक परिवार माना गया है और सबके ही सुख और कल्‍याण की कामना की गयी है । 

सर्वे भवन्‍तु सुखिन:, सर्वे सन्‍तु निरामया: । 

सर्वे पश्‍यन्‍तु भद्राणि, मा कश्चिद् दु:ख भाग भवेत् ।।

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