Wednesday, October 26, 2016

दलित लोग अब अपने "वोट' की ताकत को समझने लगे हैं।

भारतीय राजनीति का विचार करते समय कुछ तथ्यों को स्वीकृत कर आगे बढ़ना पड़ता है। इनमें से पहला तथ्य है- भारत में लोकतंत्र है और भविष्य में भी लोकतंत्र ही रहेगा। दूसरा तथ्य यह है कि भारत में हिंदुओं की बहुसंख्या है। तीसरा तथ्य- हिंदुओं की यह बहुसंख्या प्रजातंत्र को बल देती है, क्योंकि हिन्दू मानस प्रजातंत्र के अत्यंत अनुकूल है। और चौथा तथ्य यह है कि भारत में विविधता है। अनेक प्रकार के पंथ, जातियां तथा उपासना पद्धतियां इस देश में विद्यमान हैं।
हमारे समाज की उपरोक्त वास्तविकताओं का राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ता है। चूंकि यह हिन्दूबहुल देश है, अत: किसी भी राजनीतिक दल के लिए हिन्दू मानसिकता की उपेक्षा करके राजनीति करना संभव नहीं है। अपने-अपने ढंग से प्रत्येक राजनीतिक दल हिन्दू समाज को अपने साथ रखने का प्रयास करता रहता है।
हिन्दू समाज का गठन सांप्रदायिक आधार पर नहीं हुआ है। एक अवतार (पैगम्बर या ई·श्वर का पुत्र), एक ग्रंथ और एक ही कर्मकांड- ये हिन्दुओं की मान्यता नहीं है। हिन्दू समाज अनेक ग्रंथों को माननेवाला, अनेक देवताओं को पूजनेवाला और कर्मकांड में भी विविधता वाला है। परमे·श्वर के अस्तित्व को माननेवाला और उसे न माननेवाला भी हिन्दू हो सकता है। ग्रंथ या अवतार की आड़ लेकर जिस तरह का सांप्रदायिक उन्माद मुसलमानों या ईसाइयों में भड़काया जा सकता है, उस तरह का उन्माद हिन्दुओं में निर्माण करना असंभव है।
वास्तव में हिन्दू समाज को अपनी विविधता प्यारी है। आज की परिभाषा में यदि कहें तो हिन्दू मानसिकता उसके स्वभाव के अनुसार "सेकुलर' है। वह उपासना पद्धति के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं कर सकता, यह उसका स्वभाव ही नहीं है। भारत के सभी राजनीतिक दल सर्वधर्मसमादर, सर्वधर्मसमभाव की भाषा इसलिए बोलते हैं, क्योंकि यह हिन्दू समाज के स्वभाव की विशेषता है।
भारत में प्रजातंत्र होने के कारण, प्रजातंत्र के नियमानुसार जिसका बहुमत है, वही राज्य करता है। यहां हिन्दुओं का बहुमत है, इसलिए यहां हिन्दुओं का ही राज चलता आया है। जिस प्रकार हिन्दू समाज धर्म यानी उपासना पद्धति के आधार पर एक संघ नहीं है, उसी प्रकार उसका सामाजिक संगठन भी एक नहीं है। हिन्दू समाज हजारों जातियों में बंटा हुआ है। सवर्ण और गैर सवर्ण- ये दो प्रमुख भेद तो हैं ही, साथ ही सवर्ण श्रेणीबद्ध रचना भी है। आज की राजनैतिक परिभाषा में कहना हो तो हिन्दू समाज का विभाजन अगड़ी-पिछड़ी जातियों में हुआ है। पिछड़ी जातियों में दलित, वनवासी, घुमन्तू और अन्य पिछड़े वर्गों को गिना जाता है।
हिन्दू समाज की बहुसंख्या का वास्तविक अर्थ होता है- हिन्दू समाज की पिछड़ी जातियों की बहुसंख्या। कुल जनसंख्या में 22 प्रतिशत तो दलित और वनवासियों की संख्या होती है। इसमें मंडल आयोग द्वारा निर्धारित की हुई सभी जातियों की संख्या यदि जोड़ दी जाए तो कुल पिछड़ों की जनसंख्या हो जाती है 85 प्रतिशत। लोकतंत्र के नियमानुसार बहुमत का राज होना चाहिए सो हिन्दुओं का राज है। हिन्दुओं में बहुसंख्या पिछड़े वर्गों की है, लेकिन पिछड़े वर्गों का राज नहीं है। भारतीय राजनीति की यह विडंबना है।
राजनीति की यह विसंगति दीर्घकाल तक नहीं टिक सकती। स्वतंत्रता के लगभग 55 वर्ष बाद हिन्दू समाज के पिछड़े वर्गों को अपनी राजनीतिक शक्ति का अनुभव होने लगा है। लोग अब अपने "वोट' की ताकत को समझने लगे हैं। जाति के आधार पर वोटों की शक्ति को एकजुट करना बहुत सरल है। प्रजातंत्र में वोट की शक्ति आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कार्यक्रमों के आधार पर बननी चाहिए। पर यह आसान काम नहीं है। ऐसा करने के लिए लोगों का निरंतर प्रशिक्षण होते रहना आवश्यक है। यह प्रशिक्षण मीडिया, सरकार और राजनीतिक दलों को करना चाहिए। इस क्षेत्र में हम काफी कमजोर पड़ रहे हैं। आसान रास्ता जाति का है। जाति के आधार पर वोट बैंक खड़ा करना आसान बात होती है। जाति के आधार पर ही सभी राजनीतिक दल राजनीति करते हैं। ऐसी राजनीति के कारण जातिवाद को बढ़ावा मिलता है। इसीलिए जातिवाद की भावना बहुत बढ़ गयी है। जातिवाद की राजनीति के कारण ही विभिन्न जातियों में ईष्र्या तथा विद्वेष की भावना फैल रही है। बाबासाहब डा. भीमराव अंबेडकर कहा करते थे कि जाति समाज का विभाजन करती है। समाज के विभिन्न गुटों में घृणा का भाव पैदा करती है। इसीलिए जाति राष्ट्रविघातक है।
जब राजनीति का आधार जातिवाद बनता है तब देश की राजकीय इच्छाशक्ति का भी विभाजन हो जाता है। हर एक जाति या जातियों के गुट अपने जातिगत हितों का विचार करने लगते हैं। राष्ट्रीय प्रश्नों पर प्राय: वे उदासीन होते हैं। अपने देश के अन्दर राष्ट्रीय प्रश्नों पर आम सहमति का अभाव दिखाई देता है। देश की सुरक्षा से लेकर नदी जल बंटवारे तक किसी भी प्रश्न पर राजनीतिक सहमति नहीं बनती। प्रत्येक राष्ट्रीय प्रश्न पर सभी राजनीतिक दल अपने जातीय या क्षेत्रीय हितों की ही चिंता करते हैं।
जातिवादी राजनीति का एक पहलू और भी है। सामान्यत: विजातीय राजनीतिक नेतृत्व जातियां स्वीकार नहीं करती। राजनीतिक नेतृत्व अपनी ही जाति के लोगों के हाथों में रहे, ऐसी लोगों की भावना रहती है। पर, आश्चर्य की बात यह है कि यदि कोई विदेशी व्यक्ति या दूसरे मजहब का व्यक्ति नेतृत्व करता है तो विभिन्न जातियां उसे मान्यता देती हैं। जातिवादी राजनीति का यह एक खतरनाक पहलू है।
एक तरफ पिछड़ी जातियों में उभरती राजनीतिक आकांक्षाएं हैं तो दूसरी तरफ इन आकांक्षाओं को राष्ट्रशक्ति के रूप में एकजुट करने का अभाव। आज पिछड़े वर्ग के लोगों को समता, स्वतंत्रता और बंधुभाव की अपेक्षा है। आज सामान्य व्यक्ति भी देश के निर्माण में सहभागिता चाहता है। इस प्रकार की अपेक्षा स्वाभाविक है और देश के हित में भी है, क्योंकि देश का सामान्य व्यक्ति जब स्वयं प्रेरणा से राष्ट्रनिर्माण के कार्य में स्वयं को जोड़ना चाहता है, तभी देश का सर्वांगीण विकास संभव हो पाता है।
देश के अनेक राजनीतिक नेता समाज में चल रही उथल-पुथल को समझते हैं। लेकिन अपने स्वयं के तथा दल के स्वार्थों पर आंच न आए, इस कारण वे विभिन्न जातियों को आपस में लड़ाते रहते हैं। इसी कारण राजकीय शक्ति का भी बिखराव नजर आता है। अन्य कुछ राजनीतिक नेताओं को समाज के भीतर क्या चल रहा है, इसका वास्तविक ज्ञान नहीं होता। प्राय: उच्चवर्गीय नेतृत्व समाज के पिछड़े वर्ग की आकांक्षाओं को समझने में असफल दिखाई देता है। इसलिए जिन राजनीतिक दलों में उच्चवर्गीय नेतृत्व हावी है, उनके राजनीतिक प्रभाव के धीरे-धीरे घटने की संभावना अधिक है। देश की राजनीति का यहां से आगे का रास्ता अगड़ों की राजनीति करने का नहीं बल्कि पिछड़ों की राजनीति करने का है।
भविष्य का सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि, पिछड़े वर्गों में उभरती राजनीतिक आकांक्षाओं को एक सूत्र में बांधकर उसे किस प्रकार एक विराट राजनीतिक शक्ति के रूप में खड़ा किया जाए। हमारी दृष्टि से यह कार्य हिन्दुत्व के आधार पर ही हो सकता है। डा. अम्बेडकर कहते थे कि हिन्दू समाज में सैकड़ों जातियां हैं। वे परस्पर विभक्त दिखती हैं, लेकिन वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। इनमें गहरे तक समाई हुई सांस्कृतिक एकता है। वर्तमान संदर्भ में इस एकता को पुष्ट करने की राजनीति होनी चाहिए। श्रीरामजन्मभूमि मुक्ति आंदोलन ने इस गहरी सांस्कृतिक एकता के सत्य को पुन: उजागर किया। सारा हिन्दू समाज जाति-पांति को भुलाकर इस आंदोलन के साथ जुट गया। हिन्दू एकता का एक अभूतपूर्व दर्शन हमने भी किया और पूरी दुनिया को भी कराया। आज यह आंदोलन धीमा पड़ गया है। इस आंदोलन के सामाजिक सरोकारों की ओर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए था, उतना नहीं दिया गया।
पिछड़े वर्ग के हिन्दुओं को भी यह अनुभव होना चाहिए कि सामाजिक सम्मान, सहभागिता और सामाजिक न्याय हिन्दुत्ववादियों के द्वारा ही मिलेगा। राजनीति के धरातल पर इसका अर्थ होता है कि हिन्दुत्ववादी दल की आर्थिक और सामाजिक नीतियां पिछड़े वर्ग की आकांक्षा की पूर्ति करने वाली हों। नेतृत्व में पिछड़े वर्ग के सक्षम व्यक्तियों को अवसर देना चाहिए। निर्णय प्रक्रिया में उनकी सहभागिता होनी चाहिए। दिखावे के लिए दलित मोर्चा, पिछड़ा मोर्चा बनाने से लाभ नहीं होगा। ऐसे मोर्चों में काम करने वालों का जनाधार क्या है, उनकी सामाजिक मान्यता कितनी है, इसका भी विचार करना चाहिए। दलित और पिछड़ों का वोट बटोरने वाले दलालों को आज का पिछड़ा वर्ग स्वीकार नहीं करेगा।
इसी के साथ-साथ आत्मसम्मान और आत्मगौरव की भावना किन कारणों से बढ़ती है, इसका भी अध्ययन और अभ्यास करना चाहिए। कई बार किसी व्यक्ति विशेष के कारण समाज आत्मगौरव का अनुभव करता है। जैसे, संत रैदास के कारण भारत में बसा समस्त चर्मकार समाज अपने-आप को गौरवान्वित महसूस करता है। डा. अंबेडकर के कारण देशभर का दलित समाज आत्मगौरव का अनुभव करता है। देश के प्रत्येक राज्य में पिछड़ी जातियों में जन्मे संत, महापुरुष, क्रांतिकारियों के कारण समाज स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है। ये महापुरुष समाज की अस्मिता के प्रतीक हैं। ऐसे महापुरुषों का सम्मान यानी समाज का सम्मान, इस धारणा को बल मिला है। पर, देश में हिन्दुत्व की राजनीति करने वाले और उस राजनीति को बल देने वाले, अस्मिता के इन प्रतीकों की ओर कितना ध्यान देते हैं? हिन्दू समाज में विभिन्न प्रकार के यज्ञों की भरमार है, नाम स्मरण चलता रहता है, विभिन्न यात्राएं निकाली जाती हैं, लेकिन हिन्दुत्ववादी दल, धर्मजागरण करने वाली संस्थाएं, संत रैदास, कबीर, तुकाराम, नारायण गुरु आदि का स्मरण बहुत कम करती हैं। डा. भीमराव अंबेडकर का भव्य स्मारक बनाने की कल्पना हिन्दुत्ववादी दल नहीं करते। इतिहास की नई खोज से कई तथ्य सामने आये हैं। देश में पहले क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फड़के नहीं थे, बल्कि उमाजी नाईक, सय्या भील थे। ये दोनों पिछड़ी जाति के थे। इन क्रांतिकारियों को उनका ऐतिहासिक स्थान सम्मानपूर्वक दिलाना चाहिए। पर अभी तक का अनुभव यह है कि पिछड़ी जातियों में जन्मे महापुरुषों को सामाजिक मान्यता मिलने में बहुत समय लगता है। वैसे महर्षि व्यास, महर्षि वाल्मीकि उच्चवर्ण के नहीं थे, पर दोनों महापुरुषों के कारण समाज की पिछड़ी जातियों का उत्थान नहीं हुआ। सौभाग्य से अब ऐसा नहीं है। आधुनिक काल में जन्मे डा. अंबेडकर के कारण पिछड़ी जातियों के उत्थान का एक भगीरथ प्रयास प्रारंभ हुआ है। दुनिया के इतिहास पर नजर डालें तो ध्यान में आएगा कि बीसवीं शताब्दी में विभिन्न देशों में तथाकथित दलित, शोषित, पीड़ित, वर्गों ने कई स्थानों पर राज्य-क्रांति की है। रूस और चीन इसके दो बड़े उदाहरण हैं। भारत में भी यह वर्ग हर प्रकार का परिर्वतन करने की क्षमता रखता है। 1975 में स्व. जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन में इसकी एक झलक दिखाई दी थी।
स्वयं को हिन्दुत्ववादी न कहने वाले राजनीतिक दल लोक-मानस को अच्छी तरह समझते हैं। महात्मा फुले, शाहूजी महाराज, डा. अंबेडकर का क्या महत्व है, यह वे अच्छी तरह जानते हैं। आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष, लोकमान्य तिलक आदि व्यक्ति विशेष नहीं रह गए थे बल्कि वे आजादी की आकांक्षा के प्रतीक बन गए थे। अब आजादी मिल चुकी है। अब लड़ाई सामाजिक सम्मान की है। इसके प्रतीक डा. अंबेडकर, ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज, संत रैदास, नारायण गुरु आदि अनेक महापुरुष हैं। जिन राजनीतिक दलों का नेतृत्व सवर्णों के हाथों में है, वे इन महापुरुषों को कितना जानते हैं, कितना समझते हैं, यह एक गंभीर और महत्वपूर्ण प्रश्न है।
इन प्रतीकों के साथ-साथ पिछड़े वर्गों में स्वाभिमान, आत्मनिर्भरता और पराक्रम को उभारने वाले कार्यक्रम प्रारंभ करने की आवश्यकता है। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक कार्यक्रमों का एक अभियान चलना चाहिए। स्वामी विवेकानंद इन पिछड़े वर्गों के बारे में कहा करते थे कि यह निर्मिति करने वाला वर्ग है। चर्मकार, लुहार, बढ़ई, कुम्हार, बुनकर, ये सब किसी न किसी प्रकार का निर्माण करते हैं। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि ऐसे निर्मिति करने वाले वर्गों का अपने समाज में कोई सम्मान नहीं है। बाबूगिरी करने वाले ही सम्मानित होते हैं। हिन्दुत्ववादी दल और संगठनों को क्यों नहीं लगता कि अपने इन बन्धुओं की निर्मिति भी सम्मानित हो। उनके द्वारा बनाई गई वस्तुओं का उचित दाम मिले, उनका शोषण न हो। इनके बाल-बच्चे पढ़ें-लिखें, उनके लिए विद्यालय की सुविधा हो। यह सारा कार्य प्राथमिकता के आधार पर होता है तो पिछड़ों की शक्ति एक सूत्र में गुंथ जाएगी। राष्ट्रीय पुननिर्माण का कार्य तीव्रता से आगे बढ़ेगा। इस कार्य की अनदेखी की गई तो समाज में संघर्ष बढ़ेगा, बिखराव आएगा।
पिछली शताब्दी में भारत में जितने भी दृष्टा, महापुरुषों ने जन्म लिया, उन्होंने अपनी समाज की शक्ति का साक्षात्कार करते हुए समाज के दीन दु:खी व्यक्ति पर अपना ध्यान केंद्रित किया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि शिव भाव से जीव की सेवा करनी चाहिए। अर्थात् नर में नारायण का रूप देखना चाहिए। स्वामी विवेकानंद ने इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए कहा कि दरिद्रनारायण की सेवा करनी चाहिए। उनकी सर्वांगीण उन्नति के लिए सभी प्रकार के प्रयास करने चाहिए। महात्मा गांधी ने दरिद्रनारायण की सेवा को अपने जीवन में सर्वोच्च प्राथमिकता दी। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने समाज की अन्तिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति के हित की राजनीति करने का आग्रह किया था। इनमें से किसी ने भी जातिवादी राजनीति का आग्रह नहीं किया। देश को बांटने वाली जातिवादी राजनीति एक तरफ है, और दूसरी ओर है देश को जोड़ने वाली हिन्दुत्व की विचारधारा। वर्तमान संदर्भ में हमें यह समझ लेना चाहिए कि हिन्दुत्व यानी मुस्लिम या ईसाईयत की विचारधारा का विरोध नहीं है। इसी तरह हिन्दुत्व पूजा-पाठ, तीर्थयात्रा या यज्ञ-प्रवचन भी नहीं है। हिन्दुत्व की परिभाषा और कार्यक्रम यदि केवल यहीं तक सीमित रहेंगे तो हिन्दू समाज की शक्ति का जागरण नहीं होगा। बहुसंख्यक होते हुए भी राजनीति में हिन्दू समाज का प्रभाव नहीं दिखेगा। आज का युगधर्म सामाजिक हिन्दुत्व का है, सामाजिक हिन्दुत्व के प्रकटीकरण का है। एक संघर्ष की धारा हमारे समाज के भीतर चलती दिखाई दे रही है। जो समाज में प्रस्थापित है, उनके हितों की राजनीति करें या फिर आज तक अभावग्रस्त, पिछड़े वर्गों के हितों की नीति अपनाएं। समाज के सभी सत्ता-स्थानों पर बैठा हुआ प्रस्थापित वर्ग अपने हितों की रक्षा चाहता है। पिछड़ा वर्ग उसके द्वार खटखटा रहा है। एक अपरिहार्य संघर्ष की दिशा में हम बढ़ रहे हैं। ऐसे समय में यदि बहुजन समाज का पक्ष लेकर हिन्दुत्व की विचारधारा खड़ी होती है तो देश का भविष्य उज्ज्वल बनेगा। जिन भगवान राम के कारण हिन्दुत्व की राजनीति का महाभारत इस देश के भीतर प्रारंभ हुआ था, उन प्रभु राम ने भी तो बहुजनों का ही संगठन खड़ा कर रावण को परास्त किया था। और उसी इक्ष्वाकु वंश के गौतम बुद्ध ने "बहुजनहिताय बहुजनसुखाय' का नारा बुलन्द करके एक अद्भुत क्रांति की थी। यह तो अतीत की बातें हैं। भारत के भविष्य के पथ पर कौन चलेगा, हम उसकी राह पर आंख लगाए बैठे हैं। द (लेखक मुंबई से प्रकाशित हाने वाले साप्ताहिक "विवेक' के सम्पादक हैं)

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