पंडितजन कहते हैं कि हम भगवान की प्राण प्रतिष्ठा कर रहे हैं। भगवान की प्राण प्रतिष्ठा! आश्चर्य की बात है। जो परमात्मा इस जगत के समस्त प्राणियों में प्राणों का संचार करता है हम उस परमात्मा में प्राणों की प्रतिष्ठा कर रहे हैं। कैसी मूढ़तापूर्ण बात है। मेरे देखे यदि शास्त्र गलत हाथों में पड़ जाए तो वह शस्त्र से भी ज़्यादा खतरनाक हो जाता है। यदि नर, नारायण के प्राणों की प्रतिष्ठा करने में सक्षम हो जाए तो वह नारायण से भी बड़ा हो जाएगा क्योंकि जन्म देने वाला सदा ही जातक से बड़ा होता है। इसीलिए नारायण की नर लीलाओं में नारायण को जन्म देने वाले माता-पिता के आगे स्वयं नारायण झुके हैं। ये बड़ी गहरी बात है। शास्त्रों में किसी पाषाण प्रतिमा या पार्थिव की प्राण प्रतिष्ठा करना बहुत सांकेतिक है। यहां प्राण प्रतिष्ठा से आशय केवल इतना ही है कि हमें एक ना एक दिन अपनी इस पंचमहाभूतों से बनी देह-प्रतिमा में परमात्मा; जो कि पहले से ही इसमें उपस्थित है, उसका साक्षात्कार कर उसे इस देह में प्रतिष्ठित करना है; प्रकट करना है। मूर्तियों में प्राण-प्रतिष्टा का उपक्रम करना इसी बात का स्मरण मात्र है इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। अब इस गूढ़ बात का अपने स्वार्थ के लिए अर्थ का अनर्थ कर कुछ पीठाधीश्वर कह देते हैं कि अचेतन-अयोग्य की पूजा नहीं की जानी चाहिए इसलिए हम परमात्मा की प्राण प्रतिष्ठा कर रहे हैं और जिनकी प्राण-प्रतिष्ठा नहीं की जा सकती वे पूजनीय नहीं है। कितनी निम्न स्तरीय बात है, शास्त्रों के गूढ रहस्यों को कैसा दूषित किया है। ऐसी ही बातों से सनातन धर्म की सबसे ज़्यादा होती है। मैं कोई प्राण-प्रतिष्ठा करने का विरोध नहीं कर रहा हूं किंतु प्राण-प्रतिष्ठा को इस रूप में प्रचारित करने का विरोध कर रहा हूं। ये तथाकथित जगतगुरू एक चींटी में भी प्राण का संचार नहीं कर सकते तो परमात्मा की प्राण-प्रतिष्ठा करना तो हास्यास्पद ही है। किंतु जैसा कि मैंने पूर्व में कहा प्राण-प्रतिष्ठा का कोई विरोध नहीं, विरोध इसके गलत अर्थ निकालने से है। यदि प्राण-प्रतिष्ठा का अर्थ करना ही है तो कौशल्या-दशरथ, मनु-शतरूपा, वसुदेव-देवकी, नंद-यशोदा के रूप में करें जिनकी भक्ति व प्रेम के कारण निराकार को नराकार लेना पड़ा। सच्ची प्राण-प्रतिष्ठा का यही अर्थ है। हम स्वयं को परमात्मा की भक्ति व प्रेम से इतना भरें कि एक ना एक दिन उसे इस देह रूपी प्रतिमा; जो उसने स्वयं अपने हाथों से निर्मित की है उसमें उसे प्रकट हो प्रतिष्ठित होना पड़े। जो ऐसी प्राण-प्रतिष्ठा करनें में समर्थ हो जाता है वही उदघोष करता है “अहं ब्रह्मास्मि”। इसलिए चाहें मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा करें; चाहें ना करें, किंतु अपनी देह रूपी प्रतिमा में परमात्मा को प्रतिष्ठित अवश्य करें। मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा करना तो इसी बात का संकेत मात्र है।
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