Wednesday, October 12, 2016

भारत में जातिगत आरक्षण: विवाद, मुद्दे और समाधान

एक लोकतांत्रिक देश मे सत्ता प्रतिनिधित्व प्रणाली पर चलती है, जब तक सबको ना लगे कि देश की व्यवस्था में वो शामिल हैं, लोकतंत्र शासक वर्ग और शासित वर्ग मे बंट जायेगा और जल्द ही लोकतंत्र और देश का राजनीतिक-सामाजिक स्थायित्व नष्ट हो जायेगा। ये खासकर विषमता और द्वेष से ग्रस्त भारत जैसे देश के लिये खतरनाक है। देश किसी हाल मे “सबके प्रतिनिधित्व और भागीदारी” पर प्रयोग नहीं कर सकता
जाति आधारित प्रतिनिधित्व के विरोध मे इधर विवाद तेज़ी से बढे हैं या कहें कि बढ़ाये भी गये हैं। हाल में केंद्रीय मंत्री श्री नितिन गडकरी ने बयान दिया कि गरीब की जाति नहीं होती। संकेत दिया जा रहा है कि आरक्षण गरीबी के लिये कॉम्पंशेसन है जो असत्य है। ये बात इस सत्य कि “आरक्षण जाति के आधार पर बंटे समाज के सभी वर्गो को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने के लिये है” को विकृत करती है।
आरक्षण का आधार अमानवीय जातीय भेदभाव पर आधारित समाज मे पूना पैक्ट में है, जब अछूत घोषित और उत्पीड़ित जातियों को हिंदू मानने  के बदले में उन्हें आरक्षण दिया गया था। इसके बाद दो और बड़ी घटनायें हुई जिसने कमज़ोर समाज को शिक्षा और विकास के अवसरों से छल द्वारा वंचित किया जो आज आरक्षण का जायज़ आधार हैं।
पहली, आज़ादी मिलते ही देश की अधिकांश सम्पत्ति सिर्फ कुछ सवर्ण ज़मींदारो/वर्गों द्वारा हड़पने की। देश आज़ाद होने के बाद कायदे से सबको कम से कम न्यूनतम ज़मीन का अधिकार मिलना चाहिये था। पर बिना किसी राष्ट्रीय सहमति के ज़मींदारों से भरे ग्रुप ने तय कर लिया कि अंग्रेज़ों के समय जिसके पास जो ज़मीन थी वो लगभग वैसे ही रख ली जाए। ये उच्च वर्ग द्वारा एक सामूहिक बेईमानी थी कमज़ोर वर्ग के खिलाफ।
दूसरी बेइमानी, ज़मीन से वंचित वर्गों के साथ शिक्षा पॉलिसी मे हुई, देश ने सबके लिये एकसमान शिक्षा की व्यवस्था नहीं की। तो कमज़ोर वर्ग ज़मीन संपत्ति और शिक्षा से वंचित हो गये। धन(ज़मीन) सिर्फ एक वर्ग को देकर और फिर एकसमान शिक्षा के बजाय उल्टे स्कूलिंग मे प्राइवेट का प्रावधान कर और उसका संबंध धन से जोड़कर ये सुनिश्चित हुआ कि जिनके पास पैसा होगा वही बेहतर शिक्षा ले पायेंगे। ऊपर से उच्च शिक्षा, खासकर तकनीकी, मेडिकल, और प्रबंधकीय आदि को प्राइवेट स्कूलिंग से अलाइन किया जिससे गरीब तबके के लोगों ने शैक्षिक विकास द्वारा विकास के रास्ते मे भी भेदभाव सहा। जिस शिक्षा व्यवस्था को भेदभाव से लड़ने का टूल होना था वो खुद भेदभाव को मज़बूत करने और सिखाने का स्त्रोत बनी हुई है।
पहले से विभाजित देश मे “एकसमान और सर्व शिक्षा” – एकसमान नागरिक बनाने के लिये तो “एकसमान शिक्षा” जरूरी था ही, देश के भावी विकास मे सबकी भागीदारी के लिये भी ये ज़रूरी था। ये सर्वज्ञात है कि जीडीपी का हिस्सा कैपिटल और लेबर मे बंटता है, कैपिटल से वो वंचित हो गये ज़मीन हड़पने से, और लेबर शेयर में उनकी हिस्सेदारी खत्म (न्यून) हुई शिक्षा से वंचित करने से यानी आगे के भी आर्थिक शैक्षिक विकास से वंचित करने की साज़िश हुई। रही सही कसर समाज मे व्याप्त जातिगत भेदभाव ने पूर्ण किया जब अगड़े लोग पिछड़े लोगों से नफरत के चलते उनकी शिक्षा मे बाधा बन गयें। आज भी स्कूलों मे जातीय भेदभाव उसका जीवंत प्रमाण है। बद्तर ये हुआ कि देश के प्रशासनिक चयन मे ऐसी कोई व्यवस्था नहीं कि गई कि ये सुनिश्चित किया जा सके कि जातिवादी मानसिकता के लोग प्रशासन मे ना आ सकें।
ऐसी सामाजिक परिस्थिति मे “राष्ट्र की लोकतांत्रिक सफलता के लिये सबके प्रतिनिधित्व की अनिवार्यता”  और उसमे उक्त “बाधाओं” को देखते हुए “जाति आधारित न्यूनतम प्रतिनिधित्व की कानूनी व्यवस्था” ही एकमात्र उपाय था और है जो दूरदर्शी संविधान निर्माता डॉ. आम्बेडकर ने किया।
ये तथ्य छिपा नहीं है कि सत्ता में घुसे जातिवादी नेताओं और प्रशासन मे शीर्ष पदों पर बैठे जातिवादी अधिकारियों के षडयंत्र में आरक्षण प्रावधान कभी ठीक से लागू नहीं किया गया। आज भी पिछड़े वर्ग की सरकारी सेवाओं मे उपस्थिति और रिज़र्व कैटेगरी के खाली पद बताते हैं व्यवस्था किस तरह से आपराधिक हद तक भेदभावपूर्ण और संविधान विरोधी है। खासकर शिक्षा, न्यायिक, और पॉलिसी मेकिंग पदों (सेक्रेटरी) मे बहुजन अनुपस्थिति चिंताजनक रूप से कम है।
इसी तरह गरीबी को आधार बनाने का तर्क ना सिर्फ अनुचित है अपितु खतरनाक भी। ना सिर्फ गरीब के measurement की समस्या है “गरीबों के आरक्षण” के तर्क मे विरोधाभाष है। गरीबों के पढाई की समस्या दूर करना सरकार का काम है। सरकार गरीबों को शिक्षा ना देने के अपने अपराध को ऐसा कवर देकर नही ढक सकती। और फिर गरीब प्रतिनिधित्व की विविधता को कैसे पूरा करेगा, नौकरी के बाद वो गरीब कहाँ रहेगा? फिर प्रशासन पर एक ही वर्ग के कब्ज़े से होने वाले नुकसान का क्या?आरक्षण विरोधी वर्ग का मूल तर्क है कि सिर्फ इग्ज़ाम में अंक के आधार पर चुने जाए और ज़िद कि “सिर्फ इग्ज़ाम मार्क्स को योग्यता का मापदंड माना जाए” जो जायज़ नहीं है। पहली वजह, कि योग्यता संगठन की ज़रूरत से तय होती है। देश का प्रशासनिक संगठन विविधतापूर्ण और सामूहिक नेतृत्व का होना पहली आवश्यकता है इसलिये हर वर्ग का उचित प्रतिनिधित्व संगठन आधारित योग्यता है। दूसरी वजह, पद की योग्यता में समाज के प्रति, खासकर कमजोर वर्गो के प्रति सम्वेदनशील और सहानुभूतिपूर्ण होना मुख्य आवश्यकता है। जातीय नफरत वाले इस देश मे जातीय नफरत से मुक्त व्यक्ति के सेलेक्शन की पर्याप्त व्यवस्था ना होने से उचित मिक्स ही योग्यता की इस आवश्यकता के अनुरूप है। इग्ज़ाम में  मार्क्स की आवश्यकता की शर्त अलग अलग वर्गों का कम्पटीशन करके पूर्ण हो रही है। मार्क्स वैसे भी सिर्फ योग्यता नहीं अपितु पारिवारिक बैकग्राउंड, और भेदभावपूर्ण शिक्षा व्यवस्था मे शिक्षण क्वालिटी के फर्क को भी रिफ्लेक्ट करता है इसलिये मार्क्स में फर्क को योग्यता का फर्क मानना अपनी अयोग्यता दर्शाना है।
कहने कि ज़रूरत नहीं है सरकारों ने सबकी शिक्षा सबको न्याय, सामाजिक भेदभाव, नफरत और अपराधों को नियंत्रित करने की ज़िम्मेदारी से भागने के लिये आरक्षण को कवर की तरह इस्तेमाल किया। जिन्हे शिक्षा नहीं दी उन्हे आरक्षण कैसे दिया ये जबाब तो सरकार ही दे सकती है। अगर गरीब आरक्षण के लाभ से वंचित हैं तो उसके लिये सरकार ज़िम्मेदार है ना कि अन्य। सबकी शिक्षा और न्याय सरकार की ज़िम्मेदारी है उसमे उसकी चूक को वो आगे बढे  SC/ST/OBC पर नहीं थोप सकती।
सरकार और जातिवादी सवर्ण नेताओं का रोल इसमे निसंदेह संदिग्ध है। जो संविधान के व्यापक उद्देश्य, देश की व्यापक परिभाषा और राष्ट्र निर्माण के प्रोसेस को नही देख रहे हैं। वो सबकी शिक्षा सबको न्याय और जातिवाद मुक्त समाज के लिये भी नहीं काम कर रहे हैं जो कि आरक्षण को महत्वहीन करने के लिये अनिवार्य है। वो सिर्फ एक जाति को पूरा देश कब्ज़ा कराने के नीयत से चलायमान है और आरक्षण को अपनी कुटिल नीति मे बाधा के तौर पर देखते हैं। बात सीधी है कि देश की व्यवस्था मे हर वर्ग का प्रतिनिधित्व होना चाहिये, वर्ग ना हो हम अब भी तय कर सकते हैं। और यही हल है।
उक्त आधार पर अगर हमे जाति आधारित आरक्षण को खत्म करना है तो हमारे पास 2 विकल्प है
विकल्प 1: तात्कालिक उपाय
गडकरी जी के सुझाव सम्मिलित करके। हम ऐसा कर सकते हैं कि देश मे गरीबी की रेखा तय कर गणना कर सकते हैं। फिर बिना कोई 50% सीलिंग माने उतनी सीट आरक्षित करके उसे जिस जातीय अनुपात मे गरीब हैं उस अनुपात मे सीटों को बांट कर “जाति गरीबी आधारित आरक्षण” कर देते हैं जो सभी शर्तें पूरी करेगा। सरकार सबकी अनिवार्य और समान शिक्षा का प्रण ले।
विकल्प 2: दीर्घकालीन हल
  1. जाति आधारित वर्ग को खत्म करना होगा। हमे विकसित देशों की तरह देश मे एकसमान शिक्षा प्रणाली लानी होगी ताकि गरीब अमीर सबको एकसमान फ्री शिक्षा मिले।
  2. इसके अलावा जातीय भेदभाव और आपराधिक विश्वासो से सरकार के नेतृत्व में सामूहिक तौर पर लड़ना होगा। ताज्जुब है कि 70 साल मे किसी सरकार ने जातीय भेदभाव के खिलाफ एक टीवी विज्ञापन/जागरूकता अभियान तक नहीं चलाया। पुलिस सुधार/न्यायिक सुधार लाकर न्यायिक प्रणाली को मज़बूत करना होगा। GST से साबित है कि शिक्षा, पुलिस और न्याय का राज्य सूची मे होना कोई बाधा नहीं है।
  3. इसके अलावा अत्यधिक ज़मीन वालों से ज़मीने लेकर अतिशीघ्र सबको “न्यूनतम ज़मीन के अधिकार” कानून चाहिए।
आरक्षण ने देश के लोकतंत्र के स्थायित्व और समग्र विकास मे, जातीय समस्याओं, खराब शिक्षा नीति के दुष्प्रभाव को कम करने में बेहतर रोल निभाया है। कमज़ोर वर्गों में सर्वाधिक शिक्षा वंचित होने के बावजूद SC/ST/OBC/General वर्गों के मेरिट मे घटता फर्क (convergence) इस बात का प्रमाण है कि आरक्षण ने अपनी रचनात्मकता देश को प्रदान की है। हाल ही मे एक SC लड़की का आइएएस टॉपर होना, तमाम शिक्षा बोर्डों मे बहुजन छात्रो का टॉपर होना बताता है कि राष्ट्र के समग्र योग्यता निर्माण मे आरक्षण ने बड़ी प्रेरणा बनकर राष्ट्र निर्माण का रोल निभाया है। आरक्षण इस देश मे लोकतंत्र के आधार और राष्ट्रनिर्माण का सबसे बडा आधार है। “देश की लोकतांत्रिक सफलता और स्थायित्व के लिये सबके प्रतिनिधित्व की समानता” अपरिहार्य है। हम सिर्फ ये सोच सकते हैं कि कैसे इसे लागू करें। इसे व्यापक राष्ट्रीय हित में ही देखना होगा ना कि कुछेक आत्मकेंद्रित लोगों की महत्वाकांक्षा पूर्ति मे बाधा के तौर पर। देश की ज़रूरत कुछ बेहद निजी हितों के ऊपर है।

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