( 8 अगस्त को झाड़खंड में 5 महिलाओं को डायन बताकर गाँव वालों ने लाठी डंडे से पीट कर उनकी हत्या कर दी ! इनकी उम्र 30 से 50 के बीच थी ! ऐसी घटनायें स्त्री के खिलाफ हिंसा के जघन्यतम अपराधों में से एक है , जिसमें भीड़ ही आरोप तय करती है , सजा सुनाती है और सजा को अमल में लाती है. ये घटनायें कुछ अंतरालों पर बार -बार दुहराई जाती हैं. 2002 में घटी ऐसी ही घटना के बाद साहित्यकार , विचारक और सामाजिक -सांस्कृतिक मोर्चों पर सक्रिय व्यक्तित्व सुधा अरोड़ा ने यह लेख लिखा था . स्त्रीकाल के पाठकों के लिए पुनर्प्रस्तुति .)
सुधा अरोड़ा
हम बचपन से ऐसी स्त्रियों के बारे में सुनते आये है
जो एक दिन पागल हो जाती हैं
एक भरी-पूरी गृहस्थी और फैले हुए सामान के बीच
एक स्त्री पागल हो जाती है
कहा जाता है , इस औरत पर देवी आ विराजती है
वह एक दिन बेकाबू हो जाती है
वह बाल खोलकर ऊंची आवाज़ में आंय-बांय बकती है
एक स्त्री का स्वर अचानक अपरिचित हो जाता है
उसके गले से निकलते हैं दूसरों के विचार, गैरों की बददुआएं
किसी दूर के आदमी की धमकियां, सर्वनाश की भविष्यवाणियां
एक जवान स्त्री की बड़बड़ाहट में
उसका ऐसा अकेलापन छिपा होता है
जिसकी तुलना केवल पुराने खंडहरों से की जा सकती है
एक पागल कही जानी वाली स्त्री को
सबसे ज़्यादा याद आता है अपना बचपन और वह हंसने लगती है
एक हंसती हुई स्त्री का झोंटा पकड़कर खींचा जाता है
एक रोती स्त्री के गालों पर तड़ातड़ तमाचे जड़े जाते हैं
एक बदहवास औरत के बदन पर
धूप, अगरबत्ती, नीबू, मंत्र और अंगारों को रख दिया जाता है
बेचैन स्त्री की देह ऐंठती है
कांपते कांपते वह बेदम हुई जाती है
अंत में निढाल होकर
वह हमारी दुनिया में वापस लौट आती है
एक बेदम हो चुकी स्त्री से कहा जाता है
अच्छा हुआ तुम लौट आईं किसी के चंगुल से
तब कोई नहीं देख रहा होता
कि एक लौटा हुआ चेहरा
भय और अपराध के अंधेरे में पत्थर हो चुका है .....
- विजयकुमार
भारत के गांवों कस्बों में आज भी किसी भी औरत को चुड़ैल या डायन घोषित कर प्रताड़ना का सिलसिला जारी है। उसके साथ मनमाना सुलूक किया जाता है। इसमें कई बार गांव की दूसरी औरतें भी शामिल हो जाती हैं। ऐसी औरतें, जिन्हें उस औरत से कोई ज़ाती नाराजगी या पुराना बैर हो। कुछ औरतें तमाशा या हिंसा देखने के लिहाज से जमा हो जाती हैं। फिल्मों में जैसी हिंसा, तोड़ फोड़, मारपीट दिखाई देती है, रोजमर्रा की वास्तविकता में उसे सामने घटते हुए देखना भी एक विचित्र उन्माद को पोसता है ।
29 मार्च, 2002 देवली के पास मानपुरा गांव , टोंग जिला , राजस्थान , दिन के सवा बारह बजे , अचानक गांव के बारह तेरह लोगों की एक टोली , जिसमें महिलाएं भी शामिल थीं , लोहे की छड़ें और कुल्हाड़ी लेकर एक घर में घुस आई और वहां रहने वाली मीणा जाति की कमला देवी को चुड़ैल और डाकिन कहते हुए उस पर टूट पड़ी । रामसिंह ने लोहे की छड़ से उसके सिर पर तीन वार किए । उसकी खूब पिटाई की गई, उसके गुप्तांग पर मिर्च छिड़क दी गई और उसे डेढ़ घंटे तक गांव के एक दूसरे घर की ओर नग्न अवस्था में घसीटते हुए ले जाया गया ।
डाकिन उर्फ डायन को मारने पीटने के इस ’ पुण्यकार्य ‘ में कई लोग शामिल हो गए । उसे मारते हुए लोग चिल्ला रहे थे , ’ तूने परेशान कर रखा है । हम तुझे जान से खत्म कर देंगे । बोल , तू बच्चों को खाना छोड़ेगी या नहीं ? अपने जादू से बाज आएगी या नहीं ? ’
पिटपिट कर बदहाल हुई औरत के पास कहने को क्या हो सकता है ? गांव के ही एक अन्य मीणा के घर में उसे बंद रखा गया , यह कहते हुए कि उस घर की एक लड़की मीरा पर भी चुड़ैल आ बिराजी है और यह कमला का ही जादू है ,वही इसे भगा सकती है ।शाम के समय अधमरी अवस्था में उसे वापस उसके घर लाकर डाल दिया गया , इस धमकी के साथ कि खबरदार! परिवार में से किसी ने भी अगर पुलिस में रिपोर्ट करने की कोशिश की तो पूरे परिवार को खत्म कर देंगे । जयपुर से कविता श्रीवास्तव ने दो दिन बाद ही इस घटना की सूचना दी थी । बीसेक दिन बाद जब उससे बात हुई तो उसने बताया - याद है , कमला के बारे में बताया था मैने । अभी वह नहा धोकर सोयी है। लगता है जैसे महीनों से नहीं सोयी ।
इस तरह की खबरें सुनकर यह सवाल हमें परेशान करता है कि क्या पूरे गांव के लोगों का ज़मीर मर गया है कि वे एक बेकसूर औरत को भीड़ द्वारा पिटते हुए देखते रहते हैं और कोई आवाज़ नहीं उठाता ? अकेले राजस्थान में पिछले दो सालों में पांच महिलाओं को डाकिन बताकर उन्हें तरह तरह से प्रताडि़त किया गया है ।
गांव की कुछ बुजुर्ग औरतें या पुरुष जो इसके खिलाफ बोलना चाहते भी हैं , लोगों की वहशी भीड़ और जुनून के डर से किनारे खड़े हो जाते हैं । कई बार एक औरत सामूहिक रूप से मार खाते खाते इस कदर बदहवास हो जाती है कि वह हार कर चीखने लगती है -’’ हां , हां , मैं डायन हूं , मैं तुम सब का नाश कर दूंगी ।‘‘
इस तरह की घटनाओं में कई बार ’ डायन ‘ औरत को मार मार कर उसकी हत्या भी कर दी गयी है , पर हर बार हत्यारे छूट जाते हैं क्योंकि हत्यारा कोई एक नहीं , पूरा समूह होता है और गांव की व्यवस्था उसे सहमति देती है ।
महाराष्ट्र की एक आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता सखुबाई इसके पीछे के कारणों की जांच में कुछ तथ्यों को सामने रखती है । मुंबई्र की एक सामाजिक संस्था ’ स्पैरो ‘ ने सखुबाई से एक मौखिक इतिहास कार्यशाला के दौरान लिए एक साक्षात्कार में इन तथ्यों का खुलासा किया । सखुबाई गावित डहाणु तालुका के मेगपाड़ा बांदघर गांव की एक आदिवासी महिला है। पिछले दस वर्षों से वह ‘‘काश्तकारी संघटना’’ के साथ काम कर रही हैं। यह संघटना छोटे किसानों और भूमिहीन मजदूरों के हित के लिए कार्य करती है। सखुबाई हमेशा औरतों के हक में आवाज़ उठाती है । ऐसे मर्द जो रात को नशे में धुत होकर अपनी औरत को मारते पीटते हैं , जो एक बीवी के होते हुए दूसरी औरत को घर ले आते हैं और पहली बीवी से उसकी सेवा टहल करने को कहते हैं , सखुबाई ऐसे पुरुषों के खिलाफ औरतों को एक जुट करती है ।
मुझे भी किसी दिन मौका मिलते ही ये लोग ’ चेटकीण ‘ (चुड़ैल) बता देंगे । मुझे दबाने के लिए दूसरों को भी भड़काएंगे ! ‘ सखुबाई कहती है ,’ ऐसी औरतें जो मजबूत हैं , जो अपने हक के लिए लड़ती हैं , उन्हें ’चेटकीण ‘ बुलाने का मौका ढूंढते हैं ये लोग! ‘ सामाजिक कार्यकर्ताओं को ’ डायन ’ कहलाए जाने का अनुभव है । सखुबाई की सहयोगी शिराज बाई ने बाल विवाह के खिलाफ आवाज़ उठाई थी तो गांव के कुछ लोगों ने कह दिया , ’ शिराजबाई भूताली आहे ! ‘ कुछ ने कहा , ’ हमारी औरतों को शिराज बाई उल्टी पट्टी पढाती है , हम उसको तो कुछ नहीं बोल सकते पर अपनी औरतों की पिटाई कर उनका दिमाग ठिकाने पर ला सकते हैं । ‘
औरत को डायन ठहराने के पीछे के कारणों की खोज करें तो कुछ रोंगटे खड़े कर देने वाले तथ्य हाथ लगते हैं । महाराष्ट्र के कैनाड गांव में एक जमीदार ने एक ऐसी औरत को डायन कहकर प्रचारित कर दिया जिसके आदमी की उन्हीं दिनों मौत हुई थी और उसे उसकी जमीन उसकी विधवा के नाम करनी थी । जमीदार ने कहा कि यह डायन अपने पति को खा गई , इसे गांव से बेदखल करो । ऐसी विधवा औरतें, जिनके बच्चे छोटे छोटे हैं , जिन्हें जमीन अपने नाम करवानी है , उन्हें उनकी ही जमीन से बेदखल करने के लिए उनके बारे में अफवाह फैला दी जाती है कि वे जादू टोना करती हैं । उनके ही पति की मौत की घटना को उन्हें डायन ठहराने के साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल किया जाता है । संयोग से अगर उस दौरान गांव के किसी भी बच्चे की किसी भी हारी बीमारी से मौत हो जाए तो उसकी जिम्मेदारी सीधे उस औरत पर डाल दी जाती है, जिसे डायन घोषित कर कुछ लोगों का स्वार्थ सधता है और गांव के अधिकांश लोग झट इस तरह की घटना को डायन के कारण आई आपदा मानकर अपनी तार्किक बुद्धि को ताक पर रख उस औरत की जान के पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं ।
मानपुरा गांव में कमला देवी के साथ हुई इस घटना की जब छानबीन की गई और कुछ महिला कार्यकर्ताओं ने , जिसमें जयपुर की कार्यकर्ता कविता श्रीवास्तव भी शामिल थीं , इस मामले में हस्तक्षेप किया तो पता चला कि यह भी ’ बाड़े (जमीन) का मामला ‘ था। गांव की किसी भी औरत को उसकी जमीन से बेदखल करने के लिए सबसे आसान तरीका उस जमीन पर कब्जा पाने वाले लोगों को यही लगता है कि कांटे को किसी न किसी बहाने से जड़ से ही उखाड़ डालो। कोर्ट कचहरी और मुकदमे के चक्कर में बरसों निकल जाते हैं और हासिल कुछ नहीं होता , वकीलों को घूस देनी पड़ती है फिर भी जमीन हाथ में आने की गारंटी नहीं होती । इसलिए सुनियोजित साजिश को अंधविश्वास का जामा पहना कर गांव वालों को अपने पक्ष में कर लेना उनके लिए आसान सिद्ध होता है क्योंकि गांव के लोगों में इस अंधविश्वास की जड़ें गहरे तक धंसी हुई है और अंधविश्वास को कोई पुलिस या व्यवस्था बदल नहीं सकती ।
सुप्रसिद्ध बांग्ला कथाकार महाश्वेता देवी की एक चर्चित कहानी है ’बांयेन ‘ , जिसमें गांव में प्रचलित इस अंधविश्वास के दो प्रकार हैं - एक डायन होती है और एक बांयेन । बांयेन को मारा नहीं जाता क्योंकि बांयेन के मरने से गांव के बच्चे जि़ंदा नहीं बचते, ऐसी मान्यता है । अगर किसी को डायन धर ले तो उसे जला कर मार देते हैं, पर बांयेन के धरने पर उसे जि़ंदा रखना पड़ता है । एक गांव की सीमा के बाहर एक औरत पगलाई सी घूमती है । अपने ‘बांयेन‘ करार दिए जाने की स्थिति से पूरी तरह जागरूक वह खुद ही चलते चलते लोगों के रास्ते से परे हट जाती है । बांयेन जब कहीं जाती है तो टिन बजाकर लोगों को सचेत करती जाती है। बांयेन को जाते देखकर बच्चे बूढ़े सभी रास्ता छोड़कर हट जाते हैं। बांयेन की नज़र पड़ जाए तो खड़ा पेड़ मिनटों में सूख जाता है। गांवों में आज भी इस तरह के अंधविश्वास बखूबी पल रहे हैं ।
यह तो हुई गांव की बात । अब शहरी जीवन पर आयें । क्या आपने कभी किसी मानसिक अस्पताल की औरतों से बात की हैं ? वे औरतें जो वहां बतौर मरीज अपनी जि़ंदगी बिता रही हैं , उनमें से कई आपको ऐसी मिलेंगी जिन्हें बड़े सुनियोजित तरीके से पागल बना दिया जाता है ।
हिन्दी फिल्म जगत के एक बड़े अभिनेता की पत्नी एक महिला संगठन में सहायता के लिए आया करती थीं । उनके बारे में सुन रखा था कि वह एक बिगड़ा हुआ केस हैं और मानसिक रूप से पूरी तरह विक्षिप्त हैं पर जब उनसे कई बैठकों में लंबी बातचीत की गई तो वह बहुत धीरे धीरे अपनी चुप्पी से बाहर आईं और यह बता पाने के लायक हुई कि कैसे उन्हें धीरे धीरे विक्षिप्तता की कगार पर पहुंचाया गया । अक्सर सत्ता और शक्ति सम्पन्न ऐसे संभ्रांत पुरुष जिनके विवाहेतर संबंध होते हैं , अपने अनैतिक संबंधों को जायज ठहराने के लिए और अपनी ब्याहता पत्नी से छुटकारा पाने के लिए उसपर मानसिक रूप से अस्वस्थ होने का आरोप लगा देते हैं । यह आरोप एकाएक नहीं आता । आमतौर पर पुरुष अपने विवाहेतर संबंधों में अपनी पत्नी की दखलंदाजी नहीं चाहता । सबसे अहम बात यह कि वह ऐसे संबंध रखने को न सिर्फ अनैतिक नहीं मानता बल्कि इसे अपना अधिकार समझता है । उसकी यह समझ पुरुषवर्चस्व वादी समाज की ही देन है । साम दाम दंड भेद - हर तरीके से वह पहले प्यार से , फिर डरा धमकाकर लगातार इसी कोशिश में रहता है कि पत्नी अपने ’ पत्नी ‘ होने के ओहदे को अपनी पूंजी समझते हुए उस ओहदे पर प्रसन्नता से आसीन रहे और पति के संबंधों को लेकर चेहरे पर शिकन न लाए । अगर पत्नी अपने ओहदे भर से संतुष्ट नहीं रहती और बारबार पत्नी होने का हक जताती है तो पति उसे उसकी सही ’ जगह ‘ दिखा देता है । लगातार तनाव में रहते हुए उसके व्यवहार में जो हताशा , अस्थिरता और निराशा आ जाती है , उसका सहारा लेकर पति उसे मानसिक रूप से असंतुलित घोषित कर देता है और अपने दूसरे संबंध के लिए अपने मित्रों और परिचितों से सहानुभूति और सामाजिक स्वीकृति चाहता है । मध्यवर्गीय महिलाओं से लेकर ऊंची सोसायटी की महिलाओं तक को अक्सर मानसिक चिकित्सक के क्लिनिक से होते हुए मानसिक अस्पतालों की दहलीज़ पर देखा गया है ।
अगली बार आपका सामना किसी मध्यवर्ग या संभ्रांत परिवार की ऐसी शादीशुदा महिला से हो जो मानसिक रूप से विक्षिप्त घोषित कर दी गयी है तो उसे एक सामान्य पागलपन का केस समझकर खारिज न कर दें , यह निश्चित मानिए कि वह अपने भीतर एक सुनियोजित साजिश का इतिहास संजोए है ।
सुधा अरोड़ा
हम बचपन से ऐसी स्त्रियों के बारे में सुनते आये है
जो एक दिन पागल हो जाती हैं
एक भरी-पूरी गृहस्थी और फैले हुए सामान के बीच
एक स्त्री पागल हो जाती है
कहा जाता है , इस औरत पर देवी आ विराजती है
वह एक दिन बेकाबू हो जाती है
वह बाल खोलकर ऊंची आवाज़ में आंय-बांय बकती है
एक स्त्री का स्वर अचानक अपरिचित हो जाता है
उसके गले से निकलते हैं दूसरों के विचार, गैरों की बददुआएं
किसी दूर के आदमी की धमकियां, सर्वनाश की भविष्यवाणियां
एक जवान स्त्री की बड़बड़ाहट में
उसका ऐसा अकेलापन छिपा होता है
जिसकी तुलना केवल पुराने खंडहरों से की जा सकती है
एक पागल कही जानी वाली स्त्री को
सबसे ज़्यादा याद आता है अपना बचपन और वह हंसने लगती है
एक हंसती हुई स्त्री का झोंटा पकड़कर खींचा जाता है
एक रोती स्त्री के गालों पर तड़ातड़ तमाचे जड़े जाते हैं
एक बदहवास औरत के बदन पर
धूप, अगरबत्ती, नीबू, मंत्र और अंगारों को रख दिया जाता है
बेचैन स्त्री की देह ऐंठती है
कांपते कांपते वह बेदम हुई जाती है
अंत में निढाल होकर
वह हमारी दुनिया में वापस लौट आती है
एक बेदम हो चुकी स्त्री से कहा जाता है
अच्छा हुआ तुम लौट आईं किसी के चंगुल से
तब कोई नहीं देख रहा होता
कि एक लौटा हुआ चेहरा
भय और अपराध के अंधेरे में पत्थर हो चुका है .....
- विजयकुमार
भारत के गांवों कस्बों में आज भी किसी भी औरत को चुड़ैल या डायन घोषित कर प्रताड़ना का सिलसिला जारी है। उसके साथ मनमाना सुलूक किया जाता है। इसमें कई बार गांव की दूसरी औरतें भी शामिल हो जाती हैं। ऐसी औरतें, जिन्हें उस औरत से कोई ज़ाती नाराजगी या पुराना बैर हो। कुछ औरतें तमाशा या हिंसा देखने के लिहाज से जमा हो जाती हैं। फिल्मों में जैसी हिंसा, तोड़ फोड़, मारपीट दिखाई देती है, रोजमर्रा की वास्तविकता में उसे सामने घटते हुए देखना भी एक विचित्र उन्माद को पोसता है ।
29 मार्च, 2002 देवली के पास मानपुरा गांव , टोंग जिला , राजस्थान , दिन के सवा बारह बजे , अचानक गांव के बारह तेरह लोगों की एक टोली , जिसमें महिलाएं भी शामिल थीं , लोहे की छड़ें और कुल्हाड़ी लेकर एक घर में घुस आई और वहां रहने वाली मीणा जाति की कमला देवी को चुड़ैल और डाकिन कहते हुए उस पर टूट पड़ी । रामसिंह ने लोहे की छड़ से उसके सिर पर तीन वार किए । उसकी खूब पिटाई की गई, उसके गुप्तांग पर मिर्च छिड़क दी गई और उसे डेढ़ घंटे तक गांव के एक दूसरे घर की ओर नग्न अवस्था में घसीटते हुए ले जाया गया ।
डाकिन उर्फ डायन को मारने पीटने के इस ’ पुण्यकार्य ‘ में कई लोग शामिल हो गए । उसे मारते हुए लोग चिल्ला रहे थे , ’ तूने परेशान कर रखा है । हम तुझे जान से खत्म कर देंगे । बोल , तू बच्चों को खाना छोड़ेगी या नहीं ? अपने जादू से बाज आएगी या नहीं ? ’
पिटपिट कर बदहाल हुई औरत के पास कहने को क्या हो सकता है ? गांव के ही एक अन्य मीणा के घर में उसे बंद रखा गया , यह कहते हुए कि उस घर की एक लड़की मीरा पर भी चुड़ैल आ बिराजी है और यह कमला का ही जादू है ,वही इसे भगा सकती है ।शाम के समय अधमरी अवस्था में उसे वापस उसके घर लाकर डाल दिया गया , इस धमकी के साथ कि खबरदार! परिवार में से किसी ने भी अगर पुलिस में रिपोर्ट करने की कोशिश की तो पूरे परिवार को खत्म कर देंगे । जयपुर से कविता श्रीवास्तव ने दो दिन बाद ही इस घटना की सूचना दी थी । बीसेक दिन बाद जब उससे बात हुई तो उसने बताया - याद है , कमला के बारे में बताया था मैने । अभी वह नहा धोकर सोयी है। लगता है जैसे महीनों से नहीं सोयी ।
इस तरह की खबरें सुनकर यह सवाल हमें परेशान करता है कि क्या पूरे गांव के लोगों का ज़मीर मर गया है कि वे एक बेकसूर औरत को भीड़ द्वारा पिटते हुए देखते रहते हैं और कोई आवाज़ नहीं उठाता ? अकेले राजस्थान में पिछले दो सालों में पांच महिलाओं को डाकिन बताकर उन्हें तरह तरह से प्रताडि़त किया गया है ।
गांव की कुछ बुजुर्ग औरतें या पुरुष जो इसके खिलाफ बोलना चाहते भी हैं , लोगों की वहशी भीड़ और जुनून के डर से किनारे खड़े हो जाते हैं । कई बार एक औरत सामूहिक रूप से मार खाते खाते इस कदर बदहवास हो जाती है कि वह हार कर चीखने लगती है -’’ हां , हां , मैं डायन हूं , मैं तुम सब का नाश कर दूंगी ।‘‘
इस तरह की घटनाओं में कई बार ’ डायन ‘ औरत को मार मार कर उसकी हत्या भी कर दी गयी है , पर हर बार हत्यारे छूट जाते हैं क्योंकि हत्यारा कोई एक नहीं , पूरा समूह होता है और गांव की व्यवस्था उसे सहमति देती है ।
महाराष्ट्र की एक आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता सखुबाई इसके पीछे के कारणों की जांच में कुछ तथ्यों को सामने रखती है । मुंबई्र की एक सामाजिक संस्था ’ स्पैरो ‘ ने सखुबाई से एक मौखिक इतिहास कार्यशाला के दौरान लिए एक साक्षात्कार में इन तथ्यों का खुलासा किया । सखुबाई गावित डहाणु तालुका के मेगपाड़ा बांदघर गांव की एक आदिवासी महिला है। पिछले दस वर्षों से वह ‘‘काश्तकारी संघटना’’ के साथ काम कर रही हैं। यह संघटना छोटे किसानों और भूमिहीन मजदूरों के हित के लिए कार्य करती है। सखुबाई हमेशा औरतों के हक में आवाज़ उठाती है । ऐसे मर्द जो रात को नशे में धुत होकर अपनी औरत को मारते पीटते हैं , जो एक बीवी के होते हुए दूसरी औरत को घर ले आते हैं और पहली बीवी से उसकी सेवा टहल करने को कहते हैं , सखुबाई ऐसे पुरुषों के खिलाफ औरतों को एक जुट करती है ।
मुझे भी किसी दिन मौका मिलते ही ये लोग ’ चेटकीण ‘ (चुड़ैल) बता देंगे । मुझे दबाने के लिए दूसरों को भी भड़काएंगे ! ‘ सखुबाई कहती है ,’ ऐसी औरतें जो मजबूत हैं , जो अपने हक के लिए लड़ती हैं , उन्हें ’चेटकीण ‘ बुलाने का मौका ढूंढते हैं ये लोग! ‘ सामाजिक कार्यकर्ताओं को ’ डायन ’ कहलाए जाने का अनुभव है । सखुबाई की सहयोगी शिराज बाई ने बाल विवाह के खिलाफ आवाज़ उठाई थी तो गांव के कुछ लोगों ने कह दिया , ’ शिराजबाई भूताली आहे ! ‘ कुछ ने कहा , ’ हमारी औरतों को शिराज बाई उल्टी पट्टी पढाती है , हम उसको तो कुछ नहीं बोल सकते पर अपनी औरतों की पिटाई कर उनका दिमाग ठिकाने पर ला सकते हैं । ‘
औरत को डायन ठहराने के पीछे के कारणों की खोज करें तो कुछ रोंगटे खड़े कर देने वाले तथ्य हाथ लगते हैं । महाराष्ट्र के कैनाड गांव में एक जमीदार ने एक ऐसी औरत को डायन कहकर प्रचारित कर दिया जिसके आदमी की उन्हीं दिनों मौत हुई थी और उसे उसकी जमीन उसकी विधवा के नाम करनी थी । जमीदार ने कहा कि यह डायन अपने पति को खा गई , इसे गांव से बेदखल करो । ऐसी विधवा औरतें, जिनके बच्चे छोटे छोटे हैं , जिन्हें जमीन अपने नाम करवानी है , उन्हें उनकी ही जमीन से बेदखल करने के लिए उनके बारे में अफवाह फैला दी जाती है कि वे जादू टोना करती हैं । उनके ही पति की मौत की घटना को उन्हें डायन ठहराने के साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल किया जाता है । संयोग से अगर उस दौरान गांव के किसी भी बच्चे की किसी भी हारी बीमारी से मौत हो जाए तो उसकी जिम्मेदारी सीधे उस औरत पर डाल दी जाती है, जिसे डायन घोषित कर कुछ लोगों का स्वार्थ सधता है और गांव के अधिकांश लोग झट इस तरह की घटना को डायन के कारण आई आपदा मानकर अपनी तार्किक बुद्धि को ताक पर रख उस औरत की जान के पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं ।
मानपुरा गांव में कमला देवी के साथ हुई इस घटना की जब छानबीन की गई और कुछ महिला कार्यकर्ताओं ने , जिसमें जयपुर की कार्यकर्ता कविता श्रीवास्तव भी शामिल थीं , इस मामले में हस्तक्षेप किया तो पता चला कि यह भी ’ बाड़े (जमीन) का मामला ‘ था। गांव की किसी भी औरत को उसकी जमीन से बेदखल करने के लिए सबसे आसान तरीका उस जमीन पर कब्जा पाने वाले लोगों को यही लगता है कि कांटे को किसी न किसी बहाने से जड़ से ही उखाड़ डालो। कोर्ट कचहरी और मुकदमे के चक्कर में बरसों निकल जाते हैं और हासिल कुछ नहीं होता , वकीलों को घूस देनी पड़ती है फिर भी जमीन हाथ में आने की गारंटी नहीं होती । इसलिए सुनियोजित साजिश को अंधविश्वास का जामा पहना कर गांव वालों को अपने पक्ष में कर लेना उनके लिए आसान सिद्ध होता है क्योंकि गांव के लोगों में इस अंधविश्वास की जड़ें गहरे तक धंसी हुई है और अंधविश्वास को कोई पुलिस या व्यवस्था बदल नहीं सकती ।
सुप्रसिद्ध बांग्ला कथाकार महाश्वेता देवी की एक चर्चित कहानी है ’बांयेन ‘ , जिसमें गांव में प्रचलित इस अंधविश्वास के दो प्रकार हैं - एक डायन होती है और एक बांयेन । बांयेन को मारा नहीं जाता क्योंकि बांयेन के मरने से गांव के बच्चे जि़ंदा नहीं बचते, ऐसी मान्यता है । अगर किसी को डायन धर ले तो उसे जला कर मार देते हैं, पर बांयेन के धरने पर उसे जि़ंदा रखना पड़ता है । एक गांव की सीमा के बाहर एक औरत पगलाई सी घूमती है । अपने ‘बांयेन‘ करार दिए जाने की स्थिति से पूरी तरह जागरूक वह खुद ही चलते चलते लोगों के रास्ते से परे हट जाती है । बांयेन जब कहीं जाती है तो टिन बजाकर लोगों को सचेत करती जाती है। बांयेन को जाते देखकर बच्चे बूढ़े सभी रास्ता छोड़कर हट जाते हैं। बांयेन की नज़र पड़ जाए तो खड़ा पेड़ मिनटों में सूख जाता है। गांवों में आज भी इस तरह के अंधविश्वास बखूबी पल रहे हैं ।
यूरोप में विच हंटिंग |
हिन्दी फिल्म जगत के एक बड़े अभिनेता की पत्नी एक महिला संगठन में सहायता के लिए आया करती थीं । उनके बारे में सुन रखा था कि वह एक बिगड़ा हुआ केस हैं और मानसिक रूप से पूरी तरह विक्षिप्त हैं पर जब उनसे कई बैठकों में लंबी बातचीत की गई तो वह बहुत धीरे धीरे अपनी चुप्पी से बाहर आईं और यह बता पाने के लायक हुई कि कैसे उन्हें धीरे धीरे विक्षिप्तता की कगार पर पहुंचाया गया । अक्सर सत्ता और शक्ति सम्पन्न ऐसे संभ्रांत पुरुष जिनके विवाहेतर संबंध होते हैं , अपने अनैतिक संबंधों को जायज ठहराने के लिए और अपनी ब्याहता पत्नी से छुटकारा पाने के लिए उसपर मानसिक रूप से अस्वस्थ होने का आरोप लगा देते हैं । यह आरोप एकाएक नहीं आता । आमतौर पर पुरुष अपने विवाहेतर संबंधों में अपनी पत्नी की दखलंदाजी नहीं चाहता । सबसे अहम बात यह कि वह ऐसे संबंध रखने को न सिर्फ अनैतिक नहीं मानता बल्कि इसे अपना अधिकार समझता है । उसकी यह समझ पुरुषवर्चस्व वादी समाज की ही देन है । साम दाम दंड भेद - हर तरीके से वह पहले प्यार से , फिर डरा धमकाकर लगातार इसी कोशिश में रहता है कि पत्नी अपने ’ पत्नी ‘ होने के ओहदे को अपनी पूंजी समझते हुए उस ओहदे पर प्रसन्नता से आसीन रहे और पति के संबंधों को लेकर चेहरे पर शिकन न लाए । अगर पत्नी अपने ओहदे भर से संतुष्ट नहीं रहती और बारबार पत्नी होने का हक जताती है तो पति उसे उसकी सही ’ जगह ‘ दिखा देता है । लगातार तनाव में रहते हुए उसके व्यवहार में जो हताशा , अस्थिरता और निराशा आ जाती है , उसका सहारा लेकर पति उसे मानसिक रूप से असंतुलित घोषित कर देता है और अपने दूसरे संबंध के लिए अपने मित्रों और परिचितों से सहानुभूति और सामाजिक स्वीकृति चाहता है । मध्यवर्गीय महिलाओं से लेकर ऊंची सोसायटी की महिलाओं तक को अक्सर मानसिक चिकित्सक के क्लिनिक से होते हुए मानसिक अस्पतालों की दहलीज़ पर देखा गया है ।
अगली बार आपका सामना किसी मध्यवर्ग या संभ्रांत परिवार की ऐसी शादीशुदा महिला से हो जो मानसिक रूप से विक्षिप्त घोषित कर दी गयी है तो उसे एक सामान्य पागलपन का केस समझकर खारिज न कर दें , यह निश्चित मानिए कि वह अपने भीतर एक सुनियोजित साजिश का इतिहास संजोए है ।
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