बदलना चाहती है। वह बदलाव की आकांक्षा लेकर नवीन निर्माण चाहती है।। यहाँ बदलाव का अर्थ है - नए रूप में परंपरा को रखना, उसे मनुष्य विरोधी होने से बदलकर मनुष्य के लिए सार्थक और सकारात्मक बनाना। लेखिका का मानना है कि समय के साथ परंपराओं में बदलाव आना आवश्यक ही नहीं, वरन् महत्त्वपूर्ण भी है। समय वही नहीं रहता, जो प्राचीन या मध्ययुग में था। समय वह भी नहीं रहेगा, जिसे हम आधुनिक समाज कहते हैं। परंपरा की नियमावली अगर परिवर्तित नहीं होगी, तो रूढ़ हो जाएगी। जैसे - पानी अगर बहता नहीं है तो सड़ने लगता है। रूढ़ियाँ मनुष्य जीवन के लिए कभी भी सकारात्मक और भविष्योन्मुखी नहीं होती।
स्त्री विमर्श:पुरुषवादी मानसिकता को उजागर करती आत्मकथा/स्वीटी यादव
(मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा के संदर्भ में)
‘कस्तूरी कुण्डल बसै’ और ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ के माध्यम से मैत्रेयी पुष्पा हमारे सामने पुरुषवादी मानसिकता को उजागर करती हैं। एक स्त्री को मात्र शरीर मानकर यह समाज उसके साथ तरह-तरह के अमानवीय व्यवहार करता है। उसे देवी तो माना जाता है, लेकिन क्या उसका सम्मान भी किया जाता है ? ”वह तो पैर की जूती है। क्या वह मानव औरत नहीं ? शरीर के अलावा उसकी और कोई पूँजी नहीं ? वह पुरुष के भोग की वस्तु है, इसके अलावा कुछ भी नहीं।“1
यह सच है कि पुरुष को उसकी सम्पूर्णता में देखा जाता है और स्त्री को हिस्सों में बाँटकर। पत्नी, रखैल और वेश्या के अलावा स्त्री के अन्य किसी संबंध को तो यह समाज मानता ही नहीं। जब औरत को संरक्षण देकर सामाजिक स्वीकृति दी जाती है, तो वह ‘पत्नी’ कहलाती है। पुरुष जब उसे संरक्षण तो देता है, लेकिन अपना नाम नहीं, तब वही औरत ‘रखैल’ बना दी जाती है। रात के अंधेरे में अपनी हवस पूरी करने वाला पुरुष किसी अन्य रूप में परिवर्तित नहीं होता, वह ‘पुरुष’ ही कहलाता है। जबकि स्त्री, पुरुष द्वारा अपनी सुविधानुसार कई नामों और रूपों में परिवर्तित कर दी जाती हैं। ‘वेश्या’ तो समाज के लिए खुला मैदान है। कोई भी उस ‘वेश्या’ कही जाने वाली औरत के शरीर को रौंद सकता है। यहाँ न संरक्षण है, न सामाजिक स्वीकृति। वाह रे समाज! जो औरत, पुरुष के शरीर को मन मानकर भी प्रतिदिन सहती है, उसे कुलटा बना दिया जाता है। झूठी मान-मर्यादा का लबादा ओढ़कर यह पुरुष ही उस औरत से संभोग के लिए अंधेरा कमरा तलाश करता है, जहाँ उसे कोई देख न सके।
”इस समाज में स्त्री की न अपनी कोई जाति है, न नाम और न अपनी इच्छा। हर जाति या नस्ल ने एक-दूसरे की स्त्रियों को लूटा, छीना या अपनाया है। वह आजन्म किसी की बेटी, किसी की पत्नी और किसी की माँ के रूप में ही जानी जाती है। उसी से उसका पद और प्रतिष्ठा बनते हैं, यहाँ तक कि पर्दे के नाम पर उसका चेहरा भी उससे छीन लिया गया है। वह सिर्फ एक बेनाम, बेचेहरा और बेपहचान औरत है।“2 स्त्री की स्थिति पर विचार करते हुए रघुवीर सहाय की यह कविता याद आती है-
”पढ़िए गीता
बनिए सीता
फिर इन सबमें लगा पलीता
निज घर-बार बसाइए
होंए कटीली
लकड़ी सीली
आँखें गीली
घर की सबसे बड़ी पतीली
भर-भर भात पकाइए।“3
स्त्री की अपनी दुनिया कहाँ ? अबला, असहाय कही जाने वाली औरत को पुरुष के बिना अधूरी करार दिया जाता है। उस पर भी वर्जिनिटी, कौमार्य की तरह-तरह की शर्तें! ”पुरुष के मुकाबले कोमल तन लेकर जन्म लेने वाली स्त्री को कमजोर मन की स्वामिनी भी क्यों मान लिया जाता है ? जबकि उसके शरीर को कोई भी अतिरिक्त सहूलियत नहीं मिलती। कठोर दैहिक श्रम से गुजरती हुई यह गर्भ और प्रसव जैसे कठिन कार्यों को पार जाती है। अपने खून को दूध में परिवर्तित करने की नैसर्गिक प्रवृत्ति द्वारा मनुष्य के बच्चों को पालने और विकसित करने का शौर्य दिखाती है।“4 फिर भी उसे न्याय नहीं मिल पाता। तर्क दिया जाता है कि स्त्री के पास विचार नहीं होते। इस ओर शायद ही ध्यान दिया जाता है कि जितने अनुभव एक स्त्री के पास होेते हैं, उतने अन्य के पास नहीं। अनुभवों से ही तो विचारों का जन्म होता है। बात जब बदनामी की आती है, तो उसे स्त्री के सिर मढ़ दिया जाता है। अनारा गुप्ता या फिर मेरठ की प्रियंका जैसी लड़कियाँ यदि शारीरिक धंधों में लिप्त पायी जाती हैं, तो उनके मुख पर कालिख पोत दी जाती है। सवाल यह उठता है कि क्या उसमें पुरुष शामिल नहीं थे ? बिना पुरुष संसर्ग के ये दृश्य कैसे बन सकते हैं ?
पुरुष चाहता है कि स्त्री एक पालतू पशु की भाँति हो, जिसे अपनी इच्छानुसार दौड़ाया जा सके। वह जन्म से मृत्यु तक अपनी इच्छा से नहीं, दूसरे की इच्छा से जीती है चाहे पिता हों या पति। पति को परमेश्वर मानने के सिवाए अन्य कोई विकल्प उसके सामने खड़ा ही नहीं किया जाता। पुरुष उसी स्त्री को संस्कारी मानता है, जो खामोशी से हर बात सुने, सेवा करे, घर की सारी जिम्मेदारियों को भली-भाँति निभाए। कुल मिलाकर खामोश कठपुतली। ”केवल प्रजनन की प्राकृतिक क्रिया, केवल मासिक धर्म का सदमा, केवल पुरुष के लिए जागना-रोना ही उसका धर्म है, इसीलिए आवेग-संवेगरहित स्त्री श्रेष्ठ मानी जाती है।“4 यह है लोकतंत्र, जहाँ स्त्री को नागरिक का दर्जा देकर वोट देने का तो अधिकार है, लेकिन मनुष्य के रूप में जीने का नहीं। सेवा, श्रम और सेक्स को स्त्री-जीवन का आधार -स्तंभ बना दिया जाता है।
पति की मृत्यु के बाद कस्तूरी को उसके ममिया ससुर ‘विधवा कर्तव्य’ किताब लाकर देते हैं। विधवाओं का तो इतिहास ही यही रहा है कि पति की याद में अपने शरीर को तिल-तिलकर जला दें। यदि ऐसी-वैसी कोई इच्छा आए तो कुआँ में डूबकर मर जाएं। पति यदि विधुर होता है, तो उससे नहीं कहा जाता है कि वह ‘विधुर-कर्तव्य’ किताब पढ़े और न ही ऐसी कोई किताब बनायी गयी है। वह पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरी स्त्री का भोग कर सकता हैं। वहीं स्त्री को सती बनने की प्रेरणा दी जाती है। वह तो राँड है, विधवा है, बस। तभी तो कस्तूरी को बार-बार उसके विधवापन का अहसास दिलाकर उसे सोचने को मजबूर किया जाता है। वह किसी पुत्र की माँ नहीं है, इसलिए निपूती कही जाती है। अपने दम पर वह पढ़ती-लिखती तो है लेकिन यह समाज उसे सत्यानाशिनी मानता है। ”पुरुषों जैसे काम करने से पुरुष जैसी नहीं मान ली जाती स्त्री।“5
अकेली औरत को तो तमाम मनचले पकड़ते हैं, कुछ ऐसा ही महिला मंगल में काम करने वाली नर्मदा के साथ होता है। कस्तूरी को भी पुरुष प्रधान समाज के बीहड़ रास्तों से गुजरना पड़ता है, जहाँ उसके शरीर को देखा जाता है। कस्तूरी बचने की कोशिश करती है, लेकिन इस बचाव में पुरुषवादी सोच उस पर हावी होने की कोशिश करने लगती है। क्या कस्तूरी इसी पुरुष प्रधान समाज से बचने के लिए खादी के कपड़े पहनती है, कोई साज-शृंगार नहीं, सूनी-बिना काजल की आँखें, फटे हाथ-पाँव, खुश्क होता चेहरा, किसी चिकनाई का इस्तेमाल नहीं। यह विधवा का कर्तव्य है या फिर समाज की निर्ममता ? जिसके कारण एक स्त्री स्वयं को कठोर बनाने को मजबूर होती है। उसके जीवन को जिंदगी नहीं, अभिशाप मानने को विवश किया जाता है, तभी तो कस्तूरी कहती है - ”विधवा जीवन में जीवन जैसा कुछ नहीं होता। उजड़े ठूँठ पेड़ों के झुंड को कोई बाग मानेगा ?“6
समाज मानता है कि गृहस्थी संभालने के अतिरिक्त औरत का अन्य कोई धर्म नहीं। तभी तो तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा कस्तूरी जैसी तमाम स्त्रियों की सर्विस खत्म कर दी जाती है, ”औरतों का दफ्तरों में, रूरल डेवलपमेंट डिपार्टमेंट में क्या काम ? चलो मास्टरनी, नर्स, मिडवाइफ या जनानी-डॉक्टर हो जाओ। नहीं तो घर में रहो। घरेलू काम कौन करेगा ?“7 विकास के कार्यों को यदि स्त्री संभाले, तो उनके पद को ही समाप्त कर दिया जाता है। यह है पुरुषवादी मानसिकता, जो स्त्री को समाज में सक्रिय हिस्सेदारी निभाने ही नहीं देना चाहता। जिन्दगी भर जिस महिलामंगल के विकास के लिए कस्तूरी पूरी जी-जान से जुटी रही, उसे चुटकीभर में समाप्त कर दिया जाता है। देश की आजादीे क्या केवल मर्दों की आजादी का पैगाम लेकर आयी थी, क्योंकि स्त्रियाँ तो अब भी गुलामी की जंजीर में जकड़ी हैं। औरत की न जमीन होती है, न जल, न हवा, न इज्जत, न आबरू। मर्द जब चाहें अपनी इच्छा से बख्श दें या उतार लें।
यह है पुरुष प्रधान समाज, जहाँ स्त्रियाँ गायों की तरह लाठियों से हाँक दी जाती हैं और खूटों से बाँध दी जाती हैं। पति के लिए 14 वर्ष वनवास में बिताने वाली सीता को भी अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा। घर में बैठे ‘पति’ नामक पुरुष से लेकर शासन सत्ता संभाल रहे ‘नेता’ नामक पुरुषों द्वारा स्त्री की अग्निपरीक्षाएं आज भी जारी हैं। औरत जानती है कि जीना है तो लड़ना होगा। दुख इस बात का है कि यह लड़ना भी मर्द ही तय करेगा कि कैसे और किस दिशा में उन्हें लड़ना है ? यदि अपनी इच्छा से वे लड़ती भी हैं, तो शिकंजों में कस दी जाती हैं।
मैत्रेयी भी पुरुषों की तीव्र और घिनौनी नजरों से कहाँ बच पायी ? सड़क पर चलने वाले ड्राइवर से लेकर इंटर कॉलेज के प्रिंसिपल तक के लिए वह सिर्फ देह है। ए.डी. ओ., बी.डी.ओ., दफ्तर के क्लर्क तक उस पर हाथ आजमाने की कोशिश करते हैं। स्कूल जाती बच्ची मैत्रेयी अपने ही सहपाठियों द्वारा डरा दी जाती है। कभी उस पर छीना-झपटी की जाती है, तो कभी उसे चमारिन कहकर उसका मखौल उड़ाया जाता है। स्त्री जन्म लेते ही औरत हो जाती है। बस का ड्राइवर उसे ‘साली’ कहकर उसके साथ अश्लील हरकतें करता है। डी. बी. इंटर कॉलेज के पिं्रसिपल साहब महज 14-15 वर्ष की लड़की के साथ संभोग का सुख प्राप्त करना चाहते हैं। प्रिंसिपल से मैत्रेयी किसी तरह छुटकारा पाकर बच निकलती है। ”कामान्ध आदमी जब अपने मकसद में मात खाता है, तो वह स्त्री के लिए सबसे ज्यादा खूँखार हो जाता है।“8 दोष मैत्रेयी के सिर मढ़ दिया जाता है। जो पिं्रसिपल स्वयं ही चरित्रहीन है, वह मैत्रेयी पर कॉलेज के लड़कों के साथ ऐय्याशी करने का आरोप लगाकर उसे चरित्रहीन करार देता है। गोश्त मंडी का कासिम कसाई तक उस पर हाथ आजमाने की जुर्रत करता है। अलीगढ़ में जिस घर में उसकी पढ़ाई का प्रबंध किया जाता है, उस घर में आने वाला श्रीप्रकाश मैत्रेयी के साथ एक रात गुजारना चाहता है। यह है पुरुष सत्ता, जहाँ प्रत्येक मर्द, औरत के साथ सोना चाहता है, फिर चाहे वह बच्ची हो या युवती।
मैत्रेयी के साथ पढ़ने वाली बी. ए. की छात्रा निशि खरे आत्महत्या करने को विवश हो जाती है। वह अपनी उम्र से कहीं बड़े एक विधुर व्यक्ति के साथ विवाह नहीं करना चाहती थी। वह पढ़-लिखकर आत्मनिर्भर बनना चाहती थी और अपने मन के लड़के से शादी करना चाहती थी, परंतु पिता को यह मंजूर नहीं। घुट-घुटकर जीने के बजाए वह अपने जीवन को ही मौत के घाट उतार देती है। यहाँ भी दोष स्त्री पर ही आता है और निशि खरे नाम की लड़की बदचलन करार दी जाती है।
कैसा समाज है यह जहाँ अपनी ही पत्नी को दूसरे मर्दों के हवाले सौंप दिया जाता है। शरीर के इस धंधे के माध्यम से वे नौकरी पाते हैं, क्लीनर या कंडक्टर बनते हैं, बदले में -”पाँव पीटती औरत के पाँव खटिया के पायों से बाँध दिए थे। हाथों को डोरी से कस दिया। उसका आदमी ही उसके मुँह में कपड़ा ठूँसे बैठा था और मालिक लोग बारी-बारी...।“9 औरतें चीख-चीखकर अपनी जान भी देती हैं, लेकिन समाज परवाह नहीं करता। शगुन को उसका ही पति वेश्या बनने को मजबूर करता है। ऐसी ही कई निशि और कई शगुन आज भी पुरुषसत्ता की जंजीरों में कैद होकर जीने को विवश हैं। अपने अधिकारों के लिए लड़ती स्त्री यदि मर भी जाए, तब भी समाज के लिए यह मामूली चीज है। देश की रक्षा के लिए लड़ने वाले सिपाही को तो ‘शहीद’ कहा जाता है, लेकिन अपने ही शरीर की रक्षा के लिए लड़ने वाली स्त्री की शहादत को संदेहों के घेरे में कस दिया जाता है।
”स्त्री को लेकर कहीं नैतिकता जवाब तलब करती है, तो कहीं शुचिता इल्जाम देती है, पवित्रता के क्षरण का अभियोग सिर चढ़कर बोलता है। विवाह-वर्चस्व कदम-कदम पर हावी है। घरेलू हिंसा अपनी हकदारी जमाती हुई सामाजिक सम्मान के साथ मिलीभगत की तरह जुड़ी है।“10 यह सच है कि स्त्री समाज की रचनाकार है। जिन्हें 9 माह गर्भ में रखकर, वह इस दुनिया में लाती है, उंगली पकड़कर चलना सिखाती है, वही उसकी जिन्दगी का हिसाब-किताब माँगने लगते हैं। उसके चाल-चलन पर सवाल खड़ा करने लगते हैं। स्त्री प्रेम है, शक्ति है, साथ ही संयम और विश्वास भी है। ये सारी उपमाएं पुरुष के लिए स्त्री के उत्सर्ग को दिखलाती हैं। जब स्त्री खुद से प्रेम करने लगती है, तो वह गलत ठहरायी जाती है। जिस स्त्री के जन्म से ही घरों में उदासी का आलम छाने लगता हो, समाज में उसकी स्थिति की कल्पना सहज ही की जा सकती है। अगर ध्यान से देखा जाए, तो जन्म लेने वाले बच्चा और बच्ची में क्या अंतर होता है ? वे एक जैसा हँसते हैं और रोते हैं। फिर इतना भेद क्यों ? कस्तूरी और मैत्रेयी के जन्म को भी यह पुरुष समाज भार ही मानता है।
माना जाता है कि औरत अपवित्र और अशुद्ध है। आपने नहीं सुना होगा, कि किसी मंदिर की मुख्य पुजारिन, धर्मपीठ की शंकराचार्य कोई स्त्री है। कोई भी धर्म स्त्री को मुख्य भूमिका नहीं देता - चाहे वह मुस्लिम धर्म हो या ईसाई। पोप, काजी, मुल्ला की भूमिका किसी स्त्री को नहीं सौंपी जाती। समाज के लिए स्त्री का अस्तित्व केवल पुरुष की सेवा-सुविधा तक सीमित माना जाता है। इसके अतिरिक्त उन्हें ‘योनि रूप’ में माना जाता है, जहाँ उन्हें वंशवेल को समृद्ध करने का काम सौंपा जाता है। मैत्रेयी भी ‘मिसेज शर्मा‘ बना दी जाती है। अपनी ही बेटी के ब्याह के कार्ड में उसे पहचान दी जाती है - ‘श्रीमती आर. सी. शर्मा’, ‘मैत्रेयी’ सिरे से गायब। समाज के अनुसार मर्यादा, कुलशीलता निभाना ही स्त्रीधर्म है। बात जहाँ निर्णायक भूमिकाओं की आती है, वहाँ स्त्री गायब! स्त्री को पुरुषों का सम्मान करने की हिदायत तो दी जाती है, लेकिन बात जब अपने सम्मान की आती है, तब ‘रामश्री’ की तरह उसके चाल-चलन को ही अवैध ठहरा दिया जाता है।
समाज के अनुसार स्त्री को न तो उसकी आर्थिक-आत्मनिर्भरता सुखी कर सकती है और न ही उसकी चेतना सम्पन्नता। केवल पारिवारिक दायित्व और पारंपरिक कर्मकांड ही उसे सुखी बना सकते हैं। ‘मोहिता’ (मैत्रेयी की बेटी) करवाचौथ का व्रत न रखने के कारण पति और परिवार की नजर में गुनहगार हो जाती है। सुजाता (मैत्रेयी की तीसरी बेटी) द्वारा एस. सी. कास्ट के लड़के से ब्याह करने के कारण उसका माखौल उड़ाया जाता है -
”इनसे पैदा बच्चे अपना सरनेम क्या लिखेंगे ?
इनके मजे हैं, आरक्षण लेकर पढेंगे, नौकरी पाएँगे“11
समाज के लिए सुजाता की इच्छा या फिर डॉ. नवल (सुजाता के पति) की प्रतिभा का कोई महत्त्व नहीं। यहाँ सवाल है एक स्त्री की अपनी इच्छा से चुने हुए वर के साथ ब्याहने का और वह भी नीच कही जाने वाली अस्पृश्य जाति के लड़के के साथ अपने जीवन को संजोने का। पंरपरा यही रही है कि ब्याह के मामले में लड़की की न तो राय ली जाती है और न ही उसकी इच्छा का मान किया जाता है।
मैत्रेयी की ‘फैसला’ कहानी काफी हद तक व्यवस्था की सच्चाई को समाज के सामने उजागर करती है। ग्रामपंचायतों में औरत को नहीं, ‘श्रीमती’ को खड़ा किया जाता है। चुनी भी वे ही जाती हैं और ग्रामपंचायत संबंधी मामलों पर निर्णय देने का अधिकार भी उन्हीं (श्रीमती) को होता है। ‘श्रीमती’ प्रधान अर्थात् फलां-फलां ‘श्रीमान’ के यत्न से बनी ‘प्रधान’। अतः उसकी इच्छा उसके घूँघट के भीतर। शरीर उसका, मन श्रीमान् का।‘संवेदना’ और ‘प्यार’ - स्त्री को दी जाने वाली सुन्दर और मनोहर भावनाएँ हैं। इन भावनाओं के व्यावहारिक प्रयोग के लिए स्त्री को समय और समाज को बदलना होगा। परिवर्तन की दिशा ही उसके ‘स्वत्व’ का वरण करेगी। उसे समझना होगा कि उसकी चुनौती उसे तलवार की धार पर चलने का हुक्म भी सुना सकती है। इसके लिए उसे तैयार रहना होगा। आखिर, तभी तो बदलते मायनों में स्त्री की तस्वीर भी बदलेगी, उसकी रंगत भी और उसकी संगत भी।
No comments:
Post a Comment