खाप पंचायतों के बीस साल पहले के 'बंद' का भय भी अब इन्हें परेशान नहीं करता। ऐसे 'बंद' के दौरान भूपति श्रमिकों का बहिष्कार करते थे। अब दलित ही बहिष्कार करने की हिम्मत दिखा रहे हैं। ऐसे में एक सभ्य कहा जाने वाला समाज आखिर इन चीजों को कब तक बर्दाश्त करता? मिर्चपुर का दलित समाज राजधानी के जंतर-मंतर पर इकट्ठा है ताकि सरकार को अपना दुख-दर्द सुना सके। इनके चौपाल में राजधानी के बुध्दिजीवियों की चहलकदमी भी देखी जा रही है। मिर्चपुर के बहाने दलित फिर अपने अधिकारों के लिए एकजुट होते दिख रहे हैं। वे इस बात को जानते हैं कि वह दिन दूर नहीं, जब गांव में उनके भगवान का मंदिर होगा, जो दबंगों के विरोध के कारण अभी बारिश के थपेडे झेलने को मजबूर हैं
दिल्ली से महज डेढ सौ किलोमीटर की दूरी पर बसा है हरियाणा का मिर्चपुर गांव। बहुसंख्यक आबादी दबंग जाति जाटों की है, करीब दौ सौ घर वाल्मिकी समाज के हैं, जो भारत के दूसरे गांवों की तरह ही गांव के बाहर बसे हैं। इस देश की सामासिक संस्कृति ने विदेशी हमलावरों को तो गले लगाया, लेकिन दलितों को अछूत ही मानता रहा। इस गांव में गरीबी अगर कहीं दिखती है, तो इन दलितों के झोपडियाें में ही। गांव की जोत बहुसंख्यक जाटों के पास है और दूसरे लोग इनकी खेतों में ही खेती-मजूरी कर जिंदगी गुजारते हैं। जाट समुदाय के बच्चे गांव के अंग्रेजीदां स्कूलों में पढते हैं, तो दलितों के बच्चे सरकारी स्कूलों में। गांव में करीब 400 सरकारी शिक्षक हैं, जिनमें 380 के करीब जाट शिक्षक ही हैं। पुलिस विभाग में भी यहां के जाट बिरादरी के लोग भरे-पडे हैं। गांव में सामाजिक विभाजन स्पष्ट रूप से दिखता हैएक तरफ जाट तो दूसरी तरफ दलित एवं पिछडी ज़ातियां। वाल्मिकी समाज के लोग बाबू जी के रहमो-करम पर गुजर-बसर करते हैं, पर गांव के आवारा कुत्ते इस सोशल इंजीनियरिंग से अनभिज्ञ किसी पर भी भौंकने का दुस्साहस करने से बाज नहीं आते। इनका अकारण भौंकना इतने बडे हादसे को जन्म देगा, इसका अंदाजा लोगों को न था।
हुआ यूं कि वाल्मिकी समाज की ओर से गुजर रहे जाट युवकों को देखकर ये भौंकने लगे। इन युवकों को असमय इन कुत्तों का भौंकना रास नहीं आया। आम दिनों की तरह ही मामला गाली-गलौज से होता हुआ मार-पीट तक जाकर रुका। कर्णपाल और वीरभान नामक दलित युवक इनके हमलों में बुरी तरह जख्मी हो गए। मामला यहीं तक होता, तो गनीमत थी। गांव में अशांति को देखते हुए पुलिस की एक टीम आ चुकी थी। लेकिन जाटों का गुस्सा इनकी मार-पिटाई के बाद भी शांत नहीं हुआ था। पुलिस की मौजूदगी में ही 400 के करीब जाट समुदाय के लोगों ने दलितों के घरों को चारों ओर से घेर लिया। दलित भी आत्मरक्षा के लिए घरों की छतों पर चले गए और हमलावर भीड पर ईंट-पत्थर बरसाने लगे। पुलिस ने, जिसमें अधिकांश गांव के जाट परिवार के लोग ही थे, दलितों को बहला-फुसलाकर पंचायत के लिए चौपाल ले आए। जाटों को मौका मिल चुका था और उन्होंने दलितों के घरों को चारों तरफ से घेरकर आग लगा दी। बच्चे एवं महिलाएं चीखने-चिल्लाने लगीं। तब चौपाल में इकट्ठे दलितों को यह समझ में आया कि उनके साथ क्या साजिश रची गई थी। जाट युवक नंग-धडंग़ उन महिलाओं के आगे नाच रहे थे, जो दलित महिलाओं एवं लडक़ियों को अपमानित करने का उनका नायाब नुस्खा था। दलितों के छोटे-छोटे बच्चे और असहाय महिलाएं जलते हुए घरों की चहारदीवारियों में कैद थीं। इन्हीं जलते घरों में एक सोलह साल की विकलांग बच्ची थी सुमन, जो बचकर निकल भागने में असमर्थ थी। जब उसके पिता ताराचंद विकलांग जलती हुई बच्ची को बचाने के लिए दौडे, तो उपद्रवी भीड में से कुछ लोगों ने उन दोनों पर पेट्रोल छिडक़ दिया। कुछ ही समय में तडपते बाप-बेटी ने लोगों के सामने दम तोड दिया। बीस से ऊपर घर धू-धू कर जल रहे थे और उन्हें बुझाने वाला कोई न था।
सत्तारूढ क़ांग्रेस पार्टी इस बात में उलझी रही कि कहीं यह मामला राजनीतिक रंग न ले ले। दलितों के हिमायती कांग्रेस महासचिव एक बार फिर लाव-लश्कर के साथ दलितों के बीच थे। कुछ दिनों पहले ही दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति बिल गेटस के साथ चार्टर्ड प्लेन से अमेठी के गांवों के दौरे पर उनका जाना सुर्खियों में रहा था। उनका मकसद जो भी रहा हो, लेकिन मिर्चपुर की यात्रा के कई दिन बाद भी दलितों में आक्रोश है और प्रशासन इस मामले को रफा-दफा करने में लगा है। खाप पंचायतों ने अपने स्वभाव के अनुकूल आस-पास के गांवों में फरमान जारी कर दिया है कि कोई भी गांव इन्हें अपने यहां शरण नहीं देगा। दरअसल इस विवाद की जड में जाएं तो वहां भी इन पंचायतों का खौफ ही नजर आता है। अस्सी के दशक में खाप पंचायत ने एक जाट परिवार का हुक्का-पानी बंद करवा दिया था। इसकी अनदेखी करते हुए दलितों ने उस परिवार के फंक्शन में जाकर बैंड बजाने की हिमाकत की थी। यह एक तरह से सशक्त जाट समाज को चुनौती थी, जिसे वह आज तक नहीं भूल सका है। इसके पहले भी दबंग जाति के लोगों ने सांसियों एवं चमारों को मार-पीट कर इस गांव से भगा दिया था। सामंती व्यवस्था के टूटने से तिलमिलाया यह वर्ग अब गांव में दलितों-पिछडों की मौजूदगी को बर्दाश्त नहीं करना चाहता। दलित अब खेतों में काम नहीं करते, साफ-सफाई नहीं करते, मैला नहीं ढोते। अब युवा दलित दकियानूसी सामंती विचारों को ठुकराकर शहरों में मजदूरी करना ज्यादा पसंद करता है। बचे लोग नरेगा के तहत गांव में रोजगार कर रहे हैं, ऐसे में बाबू जी का यह आधार तो टूटना ही था। अब वे बराबरी की मांग करने लगे हैं। गुपचुप तरीके से अपने हक की बात करते हैं। खाप पंचायतों में जहां दबंग जातियों का दबदबा है, में शामिल किए जाने की मांग करने लगे हैं। खाप पंचायतें के बीस साल पहले के 'बंद' का भय भी अब इन्हें परेशान नहीं करता। ऐसे 'बंद' के दौरान भूपति श्रमिकों का बहिष्कार करते थे। अब दलित ही बहिष्कार करने की हिम्मत दिखा रहे हैं। ऐसे में एक सभ्य कहा जाने वाला समाज आखिर इन चीजों को कब तक बर्दाश्त करता?
मिर्चपुर का दलित समाज राजधानी के जंतर-मंतर पर इकट्ठा है ताकि सरकार को अपना दुख-दर्द सुना सके। इनके चौपाल में राजधानी के बुध्दिजीवियों की चहलकदमी भी देखी जा रही है। मिर्चपुर के बहाने दलित फिर अपने अधिकारों के लिए एकजुट होते दिख रहे हैं। वे इस बात को जानते हैं कि वह दिन दूर नहीं, जब गांव में उनके भगवान का मंदिर होगा, जो दबंगों के विरोध के कारण अभी बारिश के थपेडे झेलने को मजबूर हैं। गौरतलब है कि गांव के शिव मंदिर में दलितों का प्रवेश वर्जित है। डर है कि कहीं दलित समुदाय हिंदुओं के भगवान को ठुकरा अपने भगवान न गढ लें। ऐसा ही कुछ साल पहले साउथ अफ्रीका के कांगो में हुआ। अश्वेतों को बताया गया था कि भगवान श्वेत हैं और स्वर्ग में केवल श्वेत लोग ही जा सकते हैं। अश्वेतों ने अपना अलग चर्च बनाया, जिसमें अश्वेत भगवान की पूजा होने लगी और देखते-देखते इस चर्च के अनुयायियों की संख्या डेढ क़रोड पार कर चुकी है। दलितों पर आए दिन हो रहे अत्याचारों के खबरें भी राष्ट्रीय अखबारों में जगह बनाने में सफल रही हैं। कभी अंबाला में दलित दुल्हे को घोडे से उतार अपमानित किया जाता है, तो कभी तमिलनाडु में दलितों को अपमानित करने के लिए मुंह में विष्ठा भर दिया जाता है। कहीं दलित महिलाओं को नंगा कर गांव में घुमाया जाता है, तो कहीं खेत में काम करने गई दलित महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया जाता है। ऐसी कई घटनाएं हैं, जो हमें अब चौंकाती नहीं, हमारे संवेदनाओं को नहीं झकझोरती। लेकिन एक समुदाय है जो इन खबरों पर पैनी नजर रखता है और हर ऐसी घटना के बाद जार-जार रोता है। कहीं न कहीं मानवता के प्रति उसका सदियों का भ्रम जो टुकडे-टुकडे होकर बिखरता है।
जिस देश के इतिहास पर हम फूले नहीं समाते, उसी ने इन दलितों के गले में नगाडा बांधा था, ताकि सडक़ों पर इस बात की डुगडुगी बजाते चलें कि वे अछूत हैं और हमारा भद्र समाज इनसे दूरी बना सके। अपने गौरव ग्रंथों में हम आर्य विजेताओं को आज भी सम्मान देते हैं, जिन्होंने अनार्य कहे जाने वाले दलितों, आदिवासियों को उनके जमीन से उजाडा। रक्त शुध्दता बरकरार रखने के लिए समाज में मनुवादी ढांचा खडा किया। दलित वर्ग की इस पीढी क़ो अपने समाज और संस्कृति का ज्ञान होने पर निराशा ही हाथ लगती है, वह अपने इतिहास पर बौखलाता है और गैर दलितों के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करता है। मायावती लाख कडक़डिया नोटों की माला पहने, वह उन्हें जातिगत स्वाभिमान से जोडक़र देखता है। दलितों में लोकतंत्र की बढती चेतना से राजनीतिक पार्टियां बौखला गई हैं। तभी तो कभी कलावती, कभी शशिकला, तो कभी किसी और दलित महिला के यहां भोज का आयोजन होता है, तो अगली रात पंचसितारा होटलों के स्वादिष्ट व्यंजनों का रसास्वादन करते बीतती हैं।
दलित वर्ग आक्रोशित है। राहत के नाम पर मिर्चपुर के दलितों को दो बोरी गेंहू दी गई है। पिछले दिनों खाप पंचायतें एकतरफा समझौते करते हुए दलितों के साथ भाईचारापूर्वक गांव में रहने को तैयार हुए हैं। लेकिन दलित समुदाय इस कांड के दोषियों के लिए सजा की मांग कर रहा है। दलितों ने इस कांड में जान गंवाने वाले बाप-बेटी के अंतिम संस्कार से भी इंकार कर दिया है। सरकार चुप्पी साधे है। एक जागृत समाज में ऐसी बर्बर कार्रवाई करने का हौसला लोगों को कहां से मिलता है। जातीय उन्माद की स्थिति में सरकार और तंत्र इतने पंगु, असहाय क्यों हो जाते हैं, सोचने वाली बात तो यही है।
दिल्ली से महज डेढ सौ किलोमीटर की दूरी पर बसा है हरियाणा का मिर्चपुर गांव। बहुसंख्यक आबादी दबंग जाति जाटों की है, करीब दौ सौ घर वाल्मिकी समाज के हैं, जो भारत के दूसरे गांवों की तरह ही गांव के बाहर बसे हैं। इस देश की सामासिक संस्कृति ने विदेशी हमलावरों को तो गले लगाया, लेकिन दलितों को अछूत ही मानता रहा। इस गांव में गरीबी अगर कहीं दिखती है, तो इन दलितों के झोपडियाें में ही। गांव की जोत बहुसंख्यक जाटों के पास है और दूसरे लोग इनकी खेतों में ही खेती-मजूरी कर जिंदगी गुजारते हैं। जाट समुदाय के बच्चे गांव के अंग्रेजीदां स्कूलों में पढते हैं, तो दलितों के बच्चे सरकारी स्कूलों में। गांव में करीब 400 सरकारी शिक्षक हैं, जिनमें 380 के करीब जाट शिक्षक ही हैं। पुलिस विभाग में भी यहां के जाट बिरादरी के लोग भरे-पडे हैं। गांव में सामाजिक विभाजन स्पष्ट रूप से दिखता हैएक तरफ जाट तो दूसरी तरफ दलित एवं पिछडी ज़ातियां। वाल्मिकी समाज के लोग बाबू जी के रहमो-करम पर गुजर-बसर करते हैं, पर गांव के आवारा कुत्ते इस सोशल इंजीनियरिंग से अनभिज्ञ किसी पर भी भौंकने का दुस्साहस करने से बाज नहीं आते। इनका अकारण भौंकना इतने बडे हादसे को जन्म देगा, इसका अंदाजा लोगों को न था।
हुआ यूं कि वाल्मिकी समाज की ओर से गुजर रहे जाट युवकों को देखकर ये भौंकने लगे। इन युवकों को असमय इन कुत्तों का भौंकना रास नहीं आया। आम दिनों की तरह ही मामला गाली-गलौज से होता हुआ मार-पीट तक जाकर रुका। कर्णपाल और वीरभान नामक दलित युवक इनके हमलों में बुरी तरह जख्मी हो गए। मामला यहीं तक होता, तो गनीमत थी। गांव में अशांति को देखते हुए पुलिस की एक टीम आ चुकी थी। लेकिन जाटों का गुस्सा इनकी मार-पिटाई के बाद भी शांत नहीं हुआ था। पुलिस की मौजूदगी में ही 400 के करीब जाट समुदाय के लोगों ने दलितों के घरों को चारों ओर से घेर लिया। दलित भी आत्मरक्षा के लिए घरों की छतों पर चले गए और हमलावर भीड पर ईंट-पत्थर बरसाने लगे। पुलिस ने, जिसमें अधिकांश गांव के जाट परिवार के लोग ही थे, दलितों को बहला-फुसलाकर पंचायत के लिए चौपाल ले आए। जाटों को मौका मिल चुका था और उन्होंने दलितों के घरों को चारों तरफ से घेरकर आग लगा दी। बच्चे एवं महिलाएं चीखने-चिल्लाने लगीं। तब चौपाल में इकट्ठे दलितों को यह समझ में आया कि उनके साथ क्या साजिश रची गई थी। जाट युवक नंग-धडंग़ उन महिलाओं के आगे नाच रहे थे, जो दलित महिलाओं एवं लडक़ियों को अपमानित करने का उनका नायाब नुस्खा था। दलितों के छोटे-छोटे बच्चे और असहाय महिलाएं जलते हुए घरों की चहारदीवारियों में कैद थीं। इन्हीं जलते घरों में एक सोलह साल की विकलांग बच्ची थी सुमन, जो बचकर निकल भागने में असमर्थ थी। जब उसके पिता ताराचंद विकलांग जलती हुई बच्ची को बचाने के लिए दौडे, तो उपद्रवी भीड में से कुछ लोगों ने उन दोनों पर पेट्रोल छिडक़ दिया। कुछ ही समय में तडपते बाप-बेटी ने लोगों के सामने दम तोड दिया। बीस से ऊपर घर धू-धू कर जल रहे थे और उन्हें बुझाने वाला कोई न था।
सत्तारूढ क़ांग्रेस पार्टी इस बात में उलझी रही कि कहीं यह मामला राजनीतिक रंग न ले ले। दलितों के हिमायती कांग्रेस महासचिव एक बार फिर लाव-लश्कर के साथ दलितों के बीच थे। कुछ दिनों पहले ही दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति बिल गेटस के साथ चार्टर्ड प्लेन से अमेठी के गांवों के दौरे पर उनका जाना सुर्खियों में रहा था। उनका मकसद जो भी रहा हो, लेकिन मिर्चपुर की यात्रा के कई दिन बाद भी दलितों में आक्रोश है और प्रशासन इस मामले को रफा-दफा करने में लगा है। खाप पंचायतों ने अपने स्वभाव के अनुकूल आस-पास के गांवों में फरमान जारी कर दिया है कि कोई भी गांव इन्हें अपने यहां शरण नहीं देगा। दरअसल इस विवाद की जड में जाएं तो वहां भी इन पंचायतों का खौफ ही नजर आता है। अस्सी के दशक में खाप पंचायत ने एक जाट परिवार का हुक्का-पानी बंद करवा दिया था। इसकी अनदेखी करते हुए दलितों ने उस परिवार के फंक्शन में जाकर बैंड बजाने की हिमाकत की थी। यह एक तरह से सशक्त जाट समाज को चुनौती थी, जिसे वह आज तक नहीं भूल सका है। इसके पहले भी दबंग जाति के लोगों ने सांसियों एवं चमारों को मार-पीट कर इस गांव से भगा दिया था। सामंती व्यवस्था के टूटने से तिलमिलाया यह वर्ग अब गांव में दलितों-पिछडों की मौजूदगी को बर्दाश्त नहीं करना चाहता। दलित अब खेतों में काम नहीं करते, साफ-सफाई नहीं करते, मैला नहीं ढोते। अब युवा दलित दकियानूसी सामंती विचारों को ठुकराकर शहरों में मजदूरी करना ज्यादा पसंद करता है। बचे लोग नरेगा के तहत गांव में रोजगार कर रहे हैं, ऐसे में बाबू जी का यह आधार तो टूटना ही था। अब वे बराबरी की मांग करने लगे हैं। गुपचुप तरीके से अपने हक की बात करते हैं। खाप पंचायतों में जहां दबंग जातियों का दबदबा है, में शामिल किए जाने की मांग करने लगे हैं। खाप पंचायतें के बीस साल पहले के 'बंद' का भय भी अब इन्हें परेशान नहीं करता। ऐसे 'बंद' के दौरान भूपति श्रमिकों का बहिष्कार करते थे। अब दलित ही बहिष्कार करने की हिम्मत दिखा रहे हैं। ऐसे में एक सभ्य कहा जाने वाला समाज आखिर इन चीजों को कब तक बर्दाश्त करता?
मिर्चपुर का दलित समाज राजधानी के जंतर-मंतर पर इकट्ठा है ताकि सरकार को अपना दुख-दर्द सुना सके। इनके चौपाल में राजधानी के बुध्दिजीवियों की चहलकदमी भी देखी जा रही है। मिर्चपुर के बहाने दलित फिर अपने अधिकारों के लिए एकजुट होते दिख रहे हैं। वे इस बात को जानते हैं कि वह दिन दूर नहीं, जब गांव में उनके भगवान का मंदिर होगा, जो दबंगों के विरोध के कारण अभी बारिश के थपेडे झेलने को मजबूर हैं। गौरतलब है कि गांव के शिव मंदिर में दलितों का प्रवेश वर्जित है। डर है कि कहीं दलित समुदाय हिंदुओं के भगवान को ठुकरा अपने भगवान न गढ लें। ऐसा ही कुछ साल पहले साउथ अफ्रीका के कांगो में हुआ। अश्वेतों को बताया गया था कि भगवान श्वेत हैं और स्वर्ग में केवल श्वेत लोग ही जा सकते हैं। अश्वेतों ने अपना अलग चर्च बनाया, जिसमें अश्वेत भगवान की पूजा होने लगी और देखते-देखते इस चर्च के अनुयायियों की संख्या डेढ क़रोड पार कर चुकी है। दलितों पर आए दिन हो रहे अत्याचारों के खबरें भी राष्ट्रीय अखबारों में जगह बनाने में सफल रही हैं। कभी अंबाला में दलित दुल्हे को घोडे से उतार अपमानित किया जाता है, तो कभी तमिलनाडु में दलितों को अपमानित करने के लिए मुंह में विष्ठा भर दिया जाता है। कहीं दलित महिलाओं को नंगा कर गांव में घुमाया जाता है, तो कहीं खेत में काम करने गई दलित महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया जाता है। ऐसी कई घटनाएं हैं, जो हमें अब चौंकाती नहीं, हमारे संवेदनाओं को नहीं झकझोरती। लेकिन एक समुदाय है जो इन खबरों पर पैनी नजर रखता है और हर ऐसी घटना के बाद जार-जार रोता है। कहीं न कहीं मानवता के प्रति उसका सदियों का भ्रम जो टुकडे-टुकडे होकर बिखरता है।
जिस देश के इतिहास पर हम फूले नहीं समाते, उसी ने इन दलितों के गले में नगाडा बांधा था, ताकि सडक़ों पर इस बात की डुगडुगी बजाते चलें कि वे अछूत हैं और हमारा भद्र समाज इनसे दूरी बना सके। अपने गौरव ग्रंथों में हम आर्य विजेताओं को आज भी सम्मान देते हैं, जिन्होंने अनार्य कहे जाने वाले दलितों, आदिवासियों को उनके जमीन से उजाडा। रक्त शुध्दता बरकरार रखने के लिए समाज में मनुवादी ढांचा खडा किया। दलित वर्ग की इस पीढी क़ो अपने समाज और संस्कृति का ज्ञान होने पर निराशा ही हाथ लगती है, वह अपने इतिहास पर बौखलाता है और गैर दलितों के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करता है। मायावती लाख कडक़डिया नोटों की माला पहने, वह उन्हें जातिगत स्वाभिमान से जोडक़र देखता है। दलितों में लोकतंत्र की बढती चेतना से राजनीतिक पार्टियां बौखला गई हैं। तभी तो कभी कलावती, कभी शशिकला, तो कभी किसी और दलित महिला के यहां भोज का आयोजन होता है, तो अगली रात पंचसितारा होटलों के स्वादिष्ट व्यंजनों का रसास्वादन करते बीतती हैं।
दलित वर्ग आक्रोशित है। राहत के नाम पर मिर्चपुर के दलितों को दो बोरी गेंहू दी गई है। पिछले दिनों खाप पंचायतें एकतरफा समझौते करते हुए दलितों के साथ भाईचारापूर्वक गांव में रहने को तैयार हुए हैं। लेकिन दलित समुदाय इस कांड के दोषियों के लिए सजा की मांग कर रहा है। दलितों ने इस कांड में जान गंवाने वाले बाप-बेटी के अंतिम संस्कार से भी इंकार कर दिया है। सरकार चुप्पी साधे है। एक जागृत समाज में ऐसी बर्बर कार्रवाई करने का हौसला लोगों को कहां से मिलता है। जातीय उन्माद की स्थिति में सरकार और तंत्र इतने पंगु, असहाय क्यों हो जाते हैं, सोचने वाली बात तो यही है।
No comments:
Post a Comment