कभी खुद हमें
अपना मूल्यांकन भी कर लेना चाहिए। ऐसा करना इसलिए भी काम का साबित हो सकता है
क्योंकि समाज का नियम है मुंह पर प्रशंसा और पीठ फेरते ही आलोचना। हमें यदि यह पता
नहीं है कि हम कितने पानी में हैं तो मान कर चलिए पानी सिर के ऊपर से कब निकल
जाएगा यह भी पता नहीं चल पाएगा। बाकी लोग चाहकर भी किसी की गलती या कमजोरी इसलिए
नहीं बताते कि बेवजह कोई बुरा नहीं बनना चाहता। लोगों को करने दीजिए आपकी
अच्छाइयों का गुणगान आप तो अपनी गलतियों को तलाशने के काम में लगे रहिए। इस सुधार
से ही तो आप में अच्छाई का प्रतिशत भी बढ़ेगा।
एक कार्यक्रम में
वक्ता के रूप में शामिल होने पर मुझे अपनी कमजोरी का अहसास भी हो गया। जिस विषय पर
बोलना था उसके नोट्स भी थे। लेकिन जब पहले वक्ता के रूप में नाम पुकारा जा रहा था
तो बस उसी वक्त पता चला कि विषय संबंधी नोट्स वाले कागज की जगह दूसरा कागज था जेब
में। जो बोला, जैसा बोला उसमें विषय आधारित तो था पर वैसा
नहीं जैसे नोट्स तैयार किए थे। वक्ता के भाषण पश्चात तालियां बजना, कार्यक्रम समाप्ति पश्चात कुछ लोगों द्वारा भाषण की सराहना करना यह तो रिवाज
है ही। अच्छे वक्ता न भी साबित हो तो लोगों की बॉडी लैंग्वेज से अंदाज लग जाता है
कि आप की बात का कितना प्रभाव पड़ा है।
इस प्रसंग से फिर
यह साबित हुआ कि अवसर अपनी सुविधा से मिलते नहीं और पहले वक्ता के रूप में नाम
पुकारे या दूसरे क्रम पर अपनी बात कहने का तो आपको वक्त मिलता ही है। यह पहला क्रम
जीवन के किसी भी क्षेत्र में हो सकता है। अवसर के साथ वक्त भी मिल जाता है लेकिन
हममें से कई लोग उस मौके को झपट नहीं पाते फिर अफसोस करने के अलावा भी क्या बचता
है। सामने से बेकाबू हुआ ट्रक तेज गति से आ रहा हो और आप देखकर भी न हटे तो ट्रक
का तो कुछ बिगड़ना नहीं है। सीमा पर दुश्मन सामने हो और आप निशाना लगाने में चूक
जाएं तो मान लेना चाहिए अवसर को दुश्मन सैनिकों ने झपट लिया।
कभी जब हम किसी
टॉस्क में फैल हो जाएं तो खुद हमें अपना भी मूल्यांकन कर ही लेना चाहिए कि आखिर
हमसे चूक कहां हुई। एक सेकंड के सौवें हिस्से के फर्क से गोल्डमेडल से वंचित रहने
वाला खिलाडी अौर उसका कोच अगले गेम्स में भागीदारी से पहले अपनी उस चूक का हर एंगल
से मंथन करता है। तभी वह अन्य गेम्स में अपना ही पिछला रिकार्ड तोड़कर गोल्ड का
हकदार बन पाता है।
स्कूल और जिंदगी
की पाठशाला में हम बचपन से अब तक पढ़ते-सीखते-समझते ही तो रहते हैं। फर्क है भी तो
जरा सा, स्कूल के वक्त हम पहले सबक याद करते थे। जितना जैसा याद कर
पाते, उस आधार पर परीक्षा देते थे, परिणाम भी वैसा ही मिलता
था। जिंदगी की इस पाठशाला में हम परीक्षा हर मोड़ पर देते हैं और सबक में मिलता
है।
छात्र जीवन में
परीक्षा के एक दिन पहले ही सारी तैयारी रात मेंं ही कर लेते थे। पैन, कंपास, रोलनंबर आदि रख लेते थे। स्कूल के लिए निकलने
से पहले भी चैक कर लेते थे। परीक्षा हाल में भी समय से पांच मिनट पहले पहुंच जाते
और तीन घंटे की अवधि में दिमाग पर जोर डालकर हर प्रश्न का जवाब खोज ही लेते थे।
जिंदगी की पाठशाला में भी हमें हर मोड़ पर अवसर मिलते हैं। वक्त भी मिलता है और
घर-समाज के लोग अपेक्षा भी करते हैं कि हम अपना श्रेष्ठतम प्रदर्शन कर के दिखाएं।
एक ही नाम, एक ही समय, एक ही राशि में जन्मे कई
लोगों में से कुछ ही मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा होते हैं। बचे बाकी में से
कुछ कदम-कदम पर मुश्किलों का सामना करते, हर ठोकर से सीख लेकर
मंजिल तक पहुंच जाते हैं। लेकिन कुछ भाग्य और परिस्थिति को दोष देते हुए अंत तक
रेंगते ही रहते हैं। तेज बारिश में छाता हमें भीगने से बचा सकता है किंन्तु छाते
को खोलने का काम भी तो हमें ही करना होगा ना। बारिश और तेज आंधी में कई बार छाता
उलटने और हाथ से छूटने को हो जाता है। हम तत्काल हवा के विपरीत दिशा में घूम कर
छाते और सिर को सुरक्षित रखने का प्रयास करते हैं।
जीवन में संघर्ष
करने वालों को पहले असफलता का ही सामना करना पड़ता है। लेकिन वे हताश नहीं होते।
उन्हीं असफलताओं में छुपे सफलता दिलाने वाले सूत्रों को भी ढूंढ लेते हैं। अच्छा
तो यही है कि हताश होकर बैठने की अपेक्षा हम खुद का मूल्यांकन करें कि क्या कारण
रहे असफलता के। जब निष्पक्ष रूप से अपना मूल्यांकन करेंगे तो हमें हमारी कमजोरी
कोयले के ढेर में पड़े कांच के टुकड़े सी चमकती नजर आ जाएगी। असफलताओं का हल भी है
यह समझ आ जाएं तो घर-बाहर हमारी कद्र हीरे की माफिक होने लगेगी।
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