Friday, October 21, 2016

मूर्ति तैयार करने में कोई हाथ नहीं बंटाना चाहता है लोग तो बस मूर्ति स्थापित होने के बाद माला और प्रसाद चढ़ाने के लिए कतार लगा लेते हैं।

भारत में खबरों की इतनी विविधता व परस्पर विरोधी घटनाएं देखने को मिलती है कि दुनिया में शायद ही कहीं और देखने को मिलती हो। यह रविवार बहुत अनोखा था। जहां एक ओर अखबारों के पहले पन्ने पर रियो ओलंपिक में रजत व कांस्य पदक हासिल करने वाली साक्षी मलिक व पीवी सिंधु की खबरें छपी थी तो वहीं पटियाला की उभरती खिलाड़ी पूजा कुमारी द्वारा गरीबी के कारण आत्महत्या करने और अपने खून से प्रधानमंत्री को पत्र लिखने की खबर भी चैनलों की सुर्खियों में थी। जिसमें उसने अपने मां-बाप की मदद की गुहार लगाई थी।
एक और खबर मिड डे अखबार के मुखपृष्ठ पर थी कि किस तरह राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान सैकड़ों करोड़ की कीमत से बनाया गया जवाहर लाल नेहरु इन्डोर स्टेडियम बिना कोई और आयोजन किए ही बरबाद हो रहा है। वहां छत उखड़ रही है। देखा तो विश्व स्तर के इस स्टेडियम का फर्श खुदा हुआ था व एक दिन नहीं बल्कि कुछ घंटों के आयोजन के लिए करोड़ों रुपए की लागत से खरीदे गए गुब्बारे को कौन कुतर गया इसकी किसी को कोई खबर ही नहीं थी। इसी से जुड़ी अहम खबर यह थी कि इन खिलाड़ियों के जीतने के बाद उन पर पैसे और नौकरियों की बरसात होने लगी है। खासतौर से पीवी सिंधु को अपना बताने के लिए कुछ समय पहले अलग हुए दो राज्यों आंध्रप्रदेश व तेलंगाना में तो मानो होड़ लग गई है।
तेलंगाना सरकार ने सिंधु को पांच करोड़ रुपए नकद, और 1000 वर्ग गज का प्लाट देने का ऐलान किया क्योंकि वे हैदराबाद में रहती है तो आंध्रप्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ने उन्हें तीन करोड़ रुपए की राशि देने की घोषणा की। सिंधु दुनिया की नंबर वन खिलाड़ी कैरोलिन मारिन से 90 मिनट के मैच में हारी थी व उन्हें रजत पदक हासिल हुआ था। उनके कोच पुलेला गोपीचंद को भी तेलंगाना सरकार ने एक करोड़ रुपए का इनाम देने की घोषणा की है। क्योंकि उनकी अकादमी में ही सिंधू ने बैडमिंटन खेलने का प्रशिक्षण लिया था। ध्यान रहे कि सानिया मिर्जा संयोग से हैदराबाद से ही है।
इसके अलावा सिंधु को दिल्ली सरकार ने दो करोड़ रुपए, भारत पेट्रोलियम कारपोरेशन ने 75 लाख रुपए, बैडमिंटन एसोसिएशन आफ इंडिया, हरियाणा, मध्यप्रदेश सरकार व खेल मंत्रालय प्रत्येक ने 50-50 लाख रुपए, भारतीय ओलंपिक संघ ने 30 लाख रुपए, आल इंडिया फुटबाल फैडरेशन ने पांच लाख रुपए व सलमान खान ने एक लाख एक रुपए देने का ऐलान किया है। इस तरह से सिंधु को 13.11 करोड़ रुपए नकद मिले हैं। इसके अतिरिक्त पूर्व आंध्र क्रिकेट केप्टन वी चामुंडेश्वरनाथ ने उन्हें बीएमडब्लयू कार व आंध्र सरकार ने 1000 गज का प्लाट व क्लास वन सरकारी नौकरी देने का ऐलान किया है।
कुश्ती में कांस्य जीतने वाली साक्षी मलिक को कुल 4.66 करोड़ रुपए नकद मिलेंगे। रोहतक की रहने वाली इस युवा खिलाड़ी को हरियाणा सरकार ने 2.5 करोड़ देने का ऐलान किया है। दिल्ली सरकार उन्हें 1 करोड़ रू देगी। वहीं रेल मंत्रालय 60 लाख रुपए, खेल मंत्रालय 30 लाख रुपए, भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन 20 लाख रुपए, अखिल भारतीय कुश्ती संघ 5 लाख रुपए व सलमान एक लाख एक रुपए देंगे।
साक्षी पहली भारतीय महिला हैं जिसने यह गौरव हासिल किया। हालांकि क्रिकेट की तुलना में अन्य खेलों में परचम लहराने वाले खिलाड़ियों को कुछ नहीं मिलता है। क्रिकेट के आगे अन्य सभी खेल मानों अंग्रेजों के सामने काले साबित हो जाते हैं। सानिया मिर्जा सरीखे चंद अपवादों को छोड़ दे तो कौन सी कंपनी इन खिलाड़ियों के जरिए अपने उत्पादों का विज्ञापन करवाना चाहती है। राज्यसभा में भेजना हो या भारत रत्न देना हो हमें हर जगह क्रिकेट ही नजर आता है। इसिलए दूसरे खिलाड़ियों की जितनी ज्यादा मदद हो सके उतना ही अच्छा है क्योंकि बाद में सब गुमनामी में खो जाते हैं।
दूसरी खबर पूजा कुमारी की थी जो कि एक उभरती हुई खिलाड़ी थी जो पटियाला के खेल स्कूल में फीस न भर पाने के कारण वापस घर भेज दी गई। उसने अपनी इस गरीबी से आहत होकर आत्महत्या कर ली व अपने खून से प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अपने मां-बाप की मदद करने को कहा। पूजा अकेली नहीं है। आज भी अखबारों में मजदूरी करते या चाय बेचते हुए दो वक्त की रोटी जुटाने का संघर्ष करते कभी जाने माने खिलाड़ी रहे लोगों की दुर्दशा की खबरें छपती रहती हैं।
भारत के खाते में ओलंपिक पदकों की संख्या इसलिए कम रहती है, क्योंकि यहां पर पदक जीतने के बाद तो दूसरे राज्यों की सरकारें भी तिजोरी खोल देती हैं। लेकिन इसके लिए कड़ी मेहनत कर रहे एथलीट अपने सरकारों से भी रुपए मिलने की आस लगाते-लगाते कंगाल हो जाते हैं। पीवी सिंधु और साक्षी मलिक के पदक जीतते ही केंद्र सरकार, हरियाणा सरकार, तेलंगाना सरकार सहित निजी संस्थाओं ने धन वर्षा करनी शुरु कर दी है। दिल्ली की राज्य सरकार डीटीसी में कार्यरत साक्षी के पिता तक को प्रमोशन दे रही है, लेकिन इसी राज्य में कई ऐसे एथलीट है जो राज्य सरकार से पदक की तैयारी के लिए मिलने वाली मदद के लिए तरस रहे हैं।
समय आ गया है कि पदकों पर खुश होने की जगह पदकों की तैयारियां करानी चाहिए। देश में खेल राज्यों का विषय है, लेकिन तैयारियां पर पूरा खर्च केंद्र सरकार करती है। जब एथलीट पदक जीतते हैं तो राज्य सरकारें उन्हें हरियाणा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश और तेलंगाना का बताकर कुछ करोड़ देती है और अपना पूरा प्रचार करती है। यही कारण है कि हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा की सरकार के दौरान ऐसे एथलीटों को भी प्रदेश का बताया गया जो वहां पैदा भी नहीं हुए थे और न ही खेले थे।
इस बार राज्यों की सरकारों को यह सोचना चाहिए कि उनके प्रदेश के एथलीट खेलों में अच्छा प्रदर्शन क्यों नहीं कर पा रहे हैं? भारत में उगते सूरज को सलाम करते हैं। सिंधु ने 2013 में विश्व चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीता था। उस समय अगर इतनी मदद की जाती तो आज वह स्वर्ण जरुर जीतती। वह तो केंद्र सरकार के अंतर्गत आने वाले भारतीय खेल प्राधिकरण और गोपीचंद अकादमी का भला हो, जिन्होंने उसकी मदद की।
मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि जहां पदक जीतने वाले खिलाड़ियों को यही देश सब कुछ देने के लिए तैयार हो जाता है वहीं उन्हें पदक हासिल करने में मदद देने की कोशिश क्यों नहीं की जाती है। न जाने कितने प्रतिभावान खिलाड़ी अच्छे प्रशिक्षण, कोच, यहां तक कि पौष्टिक भोजन तक के अभाव का शिकार होकर अपनी प्रतिभा विकसित करने से वंचित रह जाते हैं। जब तक किसी को पदक हासिल न हो जाए हम उन्हें कुछ मानते ही नहीं।
जब मैं 12 वीं कक्षा में पढ़ रहा था तो मैंने अपने घर के पास मंदिर बनवाया था। हम लोग मूर्तियां खरीदने के लिए उस इलाके में गए जहां मूर्तिकार उन्हें तराशता था। मैंने देखा कि एक मूर्तिकार हुनमानजी की छाती पर बैठकर उन पर छेनी चलाता हुआ मूर्ति गढ़ रहा था। वह मूर्ति को फाइनल टच दे रहा था। मैंने उससे पूछा कि क्या हुनमानजी की मूर्ति पर पैर रख कर बैठने से तुम्हें पाप नहीं लगेगा तो वह हंसते हुए कहने लगा कि यह मूर्ति कहां यह तो अभी पत्थर ही है। भगवान तो तब बनेंगे जब इसमें प्राण प्रतिष्ठा हो जाएगी।
वह घटना मैं आज तक नहीं भूला। मुझे लगता है कि जब तक कोई खिलाड़ी पदक नहीं जीत पाता है, ओलंपिक या दूसरे प्रतिष्ठित खेलों के लिए उसका चयन नहीं होता है वह मानो पत्थर की शिला ही रहता है। पदक उसकी प्राण प्रतिष्ठा करते है। फिर सब उस की पूजा करने लग जाते हैं। मूर्ति तैयार करने में कोई हाथ नहीं बंटाना चाहता है लोग तो बस मूर्ति स्थापित होने के बाद माला और प्रसाद चढ़ाने के लिए कतार लगा लेते हैं।
भजन लाल ने इस सत्य को बहुत पहले ही पहचान लिया था। शुरु में वे दूसरे दलों के उम्मीदवारों को भी चुनाव में पैसे से मदद करते थे ताकि विधायकों की कमी पड़ने पर उन्हें अपने साथ लाया जा सकेगा। बाद में उन्होंने यह काम करना बंद कर दिया। एक बार मैंने उनसे इसकी वजह पूछी तो वे मुस्करा कर कहने लगे कि पहले मैं किसान वाला काम करता था। खेत जोतता था, बीज बोता था, सिंचाई करता, फिर फसल काटता। यह बहुत जोखिम व कष्ट वाला काम था। मैं अब एफसीआई हो गया हूं। सीधे मंडी जाकर अनाज के बोरे खरीद लेता हूं। इतना सिरदर्द कौन पाले।

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