स्त्री-विमर्श रूढ़ हो चुकी मान्यताओं, परंपराओं के प्रति असंतोष व उससे मुक्ति का स्वर है। पितृसत्तात्मक समाज के दोहरे नैतिक मापदंडों, मूल्यों व अंतर्विरोधों को समझने व पहचाने की गहरी अंतर्दृष्टि है। विश्व चिंतन में यह एक नई बहस को जन्म देता है, पितृक प्रतिमानों व सोचने की दृष्टि पर सवालिया निशान लगाता है, आखिर क्यों स्त्रियाँ अपने मुद्दों,अवस्थाओं, समस्याओं के बारे में नहीं सोच सकती ? क्यों उनकी चेतना इतने लम्बे अरसे से अनुकूलित, अनुशासित व नियंत्रित की जाती रही है, क्यों वे साँचों में ढली निर्जीव मूर्तियाँ हैं ? क्यों उनकी अपनी कोई पहचान नहीं है ? इन सब प्रश्नों पर स्त्री ने जब बोलना व सोचना शुरू किया व पितृसत्ता के सामने सवाल खड़े किए तो यह उसे ना गवार गुज़रा। स्त्री का खुद के बारे में सोचना कभी भी पितृसत्ता को नही भाया। सीमोन द बोउआर कहती भी हैं-‘‘स्त्री, पुरुष प्रधान समाज की कृति है। वह अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए स्त्री को जन्म से ही अनेक नियमों के ढाँचे में ढालता चला गया”[1]। जहाँ उसका व्यक्तित्व दबता चला जाता है।
पुरुष समाज स्त्री के चरित्र को स्वर्गिक देवी गुणों और शक्तियों के ढाँचों से ऐसा मंडित करता है कि देवीत्व के बोझ तले उसका मनुष्यत्व कब घुट-घुट कर दम तोड़ देता है वह स्वयं भी नहीं जान पाती है। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ जैसी उक्तियाँ इसी का उदाहरण हैं। ‘महादेवी वर्मा’कहती हैं- ‘‘स्त्री न घर का अलंकार मात्र बनकर जीवित रहना चाहती है, न देवता की मूर्ति बनकर प्राण प्रतिष्ठा चाहती है। कारण वह जान गई है की एक का अर्थ अन्य की शोभा बढ़ाना है तथा उपयोग न रहने पर फेंक दिया जाता है तथा दूसरे का अभिप्राय दूर से उस पुजापे का देखते रहना है, जिसे उसे न देकर उसी के नाम पर लोग बाँट लेंगे।’’[2] इसी कारण वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष को चुनौती देकर स्वयं अपनी शक्ति का परीक्षण चाहती है। स्त्री अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व और अपनी पहचान चाहती है वह अपना पूरा जीवन (बेटी, पत्नी, माँ) अन्या होकर नहीं जीना चाहती। इसके लिए उसका सारा प्रयास पितृसत्तात्मक मानसिकता के अस्वीकार व स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में स्वीकृति का है।
परिवार स्त्री-विमर्श और उससे जुड़े प्रश्नों की मुख्य धुरी है। परिवार के इर्द-गिर्द ही स्त्री जड़ता व शोषण के बीज दिखाई देते हैं। स्त्री के जीवन में परिवार की दखलंदाजी भी सर्वाधिक होती है। परिवार आरंभ से ही बच्चों की परवरिश में लड़का व लड़की की निर्मिति करता है जिसमें लड़की का स्थान हमेशा दोयम दर्जे का होता है। परिवार एक सामाजिक इकाई है और विवाह जैसी संस्थाएं उसका आधार। इन आधार संस्थाओं के द्वारा ही स्त्री को भिन्न-भिन्न तरीके से जकड़ा गया है जिनका उद्देश्य स्त्री को पराधीन बनाए रखना है। इस पराधीनता के भाव को साहित्य में भी अभिव्यक्त किया गया। तुलसी ने लिखा है कि‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’ लेकिन पराधीनता के कारणों की तलाश किसी नहीं की तब और इसके साथ ही महिलाएं गुलाम होती गई। जिस पराधीनता की बात तुलसी करते है पश्चिम में ऐगल्स उसी पराधीनता की जड़ तक जाते है और संपति को स्त्री पराधीनता का मूलभूत कारण मानते है। ऐगल्स कहते है ‘पुरुष अपनी संपत्ति को अगली पीढ़ी तक हस्तांतरित कर सके इसके लिए जरूरी था कि महिलाओं की यौनिकता पर नियंत्रण किया जाए, जिससे वह संपत्ति का वैध वारिस पैदा कर सके’। इस प्रक्रिया में सबसे पहले उसकी यौनिकता को नियंत्रित किया, शरीर और दिमाग पर कब्जा करने के लिए आचार-संहिता बनाई गई। सारे नियम कानून उसके विरोध में बनाए ताकि वह उससे बाहर न आ सके।
स्त्री विमर्श सदियों से चले आ रहे मौन को अभिव्यक्ति देता है। तथाकथित नैतिक मूल्यों, पितृक व्यवस्थाओं को छिन्न-भिन्न करता है जो स्त्री की चेतना को अनुकूलित करते हैं। स्त्री विमर्श साहित्य में‘विमर्श’ के रूप में 60 से 70 के आसपास आता है। उससे पूर्व पश्चिम में यह नारीवादी आंदोलन के रूप में अपनी मुखर अभिव्यक्ति पा चुका था। नारीवाद’अंग्रेजी के Feminism (फैमिनिज़्म) शब्द का पयार्य है।‘फैमिनिज्म’ फ्रेंच शब्द फेमी (Femme) अर्थात् सामाजिक आंदोलन और इज्म (ism) राजनैतिक विचारधारा के मिलने से बना है। इसका प्रयोग सबसे पहले 1880 ई. में फ्रांस, 1890 में ग्रेट ब्रिटेन और 1910 में संयुक्त राज्य अमेरिका में होता है। नारीवाद की दी गई विभिन्न परिभाषा निम्न प्रकार है-
‘नारीवाद’ आंदोलन एकजुटता है जिसका उद्देश्य महिलाओं के लिए समान राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की रक्षा को परिभाषित व स्थापित करना है साथ उन्हें शिक्षा और रोजगार के अवसर मुहैया कराना है।१
‘नारीवाद’ जेन्डर के स्तर पर राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक समानता का सिद्धांत है। इसका संगठन महिलाओं के अधिकारों व उनकी इच्छाओं के क्रियाकलापों के आधार पर होता है।२
नारीवाद वर्तमान में मौजूद पुरुष या महिला या दोनों को बदलने का प्रयास भर नहीं है, यह प्रयास है उन दोनों के बीच संबंधों को बदलने का।३
नारीवाद की सर्वमान्य कोई परिभाषा देना मुश्किल काम है, यह सवाल है राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं के सोचने के तरीके और उन विचारों की अभिव्यक्ति का है।४
नारीवाद महिलाओं का राजनीतिक आंदोलन है जो पुरुषों और महिलाओं के बीच उत्पन्न अंतर्विरोधों द्वारा उत्पन्न होता है। यह उत्पीड़न के ख़िलाफ महिलाओं की प्रतिक्रिया को जानने का प्रयास है। महिलाओं से अधिक पुरुषों को शक्ति और विशेषाधिकार प्राप्त है यह विचार भी नारीवादी आंदोलन को पैदा करता है।५
नारीवादी सिद्धांत महिलाओं द्वारा अपने अधिकारों के लिए किए आंदोलनों की उपज है जिसका उद्देश्य समाज में रह रही महिलाओं के अपने निजी अनुभवों द्वारा लिंग असमानता की प्रकृति को जानना व उसके माध्यम से सेक्स और जेंडर जैसे विषयों पर सिद्धांत विकसित करना था। नारीवाद को सैद्धांतिक आधार पश्चिम में हुए महिलाओं के आंदोलनों से मिला। आधुनिक पश्चिमी नारीवादी आंदोलन के इतिहास को तीन धाराओं में समझा जा सकता है। पहली धारा 19वीं सदी से 20वीं सदी के पूर्वार्ध की है जिसकी पृष्ठभूमि में अमेरिका और ब्रिटेन थे। इन आंदोलन का मुख्य केन्द्र स्त्री थी जिसमें समान अनुबंध (Promotion of Equal Contract) विवाह, मातृत्व और महिलाओं के लिए संपत्ति के अधिकार को बढ़ावा देना था। 19वीं सदी के अंतिम दशक तक आते-आते इसका ध्यान राजनीति में सक्रिय भूमिका पाने व विशेष रूप से मताधिकार पर केन्द्रित हुआ हालांकि कुछ नारीवादियों ने महिलाओं के यौन, प्रजनन और आर्थिक अधिकारों के मुद्दों को भी उठाया परन्तु महिला मताधिकार का स्वर सबसे तीव्रतम स्वर बनकर उभरा। नारीवादी आंदोलनों की दूसरी धारा महिला मुक्ति आंदोलन के साथ जुड़ती है जिसकी शुरूआत1960 के दशक के आस-पास होती है, जिसमें महिलाओं की सामाजिक और संवैधानिक समानता का प्रश्न प्रमुख था। साथ ही इसमें सांस्कृतिक और राजनैतिक असमानताओं व निजी जीवन में बढते राजनैतिक दखल से जुड़े मुद्दों को भी उठाया गया जिसके लिए नारीवादी कार्यकर्ता और लेखक Carol Harish ने ‘the personal is political’ का नारा दिया जो बाद में इस धारा का पयार्य बन गया। तीसरी धारा की शुरूआत संयुक्त राज्य अमेरिका में 1990 के दशक से मानी जाती है जिसका जन्म दूसरी धारा की असफलता व उससे जुड़े आंदोलनों की प्रतिक्रिया के रूप में होता है।
महिलाओं की समस्याओं व उनके प्रश्नों की पड़ताल करें तो इसकी जड़े हमें 18वीं सदी के मानवतावाद और औद्योगिक क्रांति में दिखाई देती हैं। स्त्रियों के लिए व्यापक अवसर प्रदान किए जाने का स्वर पहले ही उठ चुका था जिसमें पहला स्वर ‘मैरी वोल्स्टोनक्राफ्ट’ (Mary Wollstonecraft) की पुस्तक ‘स्त्रियों के अधिकारों की बहाली’ (The vindication of Rights of Women) का था। आंदोलन के रूप में इसकी शुरूआत 1848 से होती है जब ‘एलिजाबेथ केंडी स्टैण्डन’ ‘लुक्रेसिया कफिन मोर’ और कुछ अन्य ने न्यूयार्क में महिला सम्मेलन करके ‘नारी स्वतंत्रता’ पर एक घोषणापत्र (A Declaration of Sentiments) जारी किया, जिसमें पूर्ण कानूनी समानता, शैक्षिक और व्यावसायिक अवसर, समान मुआवजा, मजदूरी कमाने तथा वोट देने के अधिकार की मांग की गई थी। इसके पूर्व 1845 में Women in the Nineteenth Century ‘मारगरेट फूलर’ (Margaret Fuller) की पुस्तक आती है जो यूरोप में उठे स्त्री अधिकारों के मुद्दों को सामने लाती है।
नारीवादियों का यह आंदोलन इतना प्रभावशाली रहा की इसका स्वर पूरे यूरोप में सुनाई देने लगा, जिसका परिणाम 1893 में न्यूजीलैण्ड और 1895 में दक्षिण आस्ट्रेलिया की स्वराज्य कॉलोनियों में महिलाओं को मत का अधिकार मिलना था। 1918 में ब्रिटेन में व पुनः संशोधन के बाद 1928 में महिलाओं को मताधिकार प्राप्त होता है। अमेरिका में 1919-1920 के आसपास महिला मताधिकार अधिनियम पारित होता है जिसके परिणाम स्वरूप महिलाओं में पुरुष के समकक्ष बराबरी के सवाल को लेकर दो खेमें उभरते हैं। एक खेमा राष्ट्रीय महिला पार्टी का था जो पुरुष के समकक्ष स्त्रियों की बराबरी की वकालत करता था जबकि दूसरे खेमे का यह कहना था कि महिलाओं के लिए कुछ संरक्षणात्मक कानून बनाए जाएं। 19वीं सदी में संरक्षणात्मक कानून के विविध रूप अमल में लाए जा चुके थे। जैसे स्त्रियों के लिए काम करने की समय सीमा का निर्धारण करना, खतरनाक व्यवसायिक पेशों से मुक्त रखना आदि। 1946 में नारी दशा पर संयुक्त राष्ट्रसंघ ने एक आयोग गठित किया जिसका दायित्व विश्वभर की महिलाओं के लिए समान राजनैतिक, आर्थिक और शैक्षिक अधिकार दिलाना था, जिसके तहत 1948 में विश्व स्तर पर स्त्री और पुरुष समान अधिकार (The Equal Rights of men and women) कानून पारित हुआ। 1960 तक आते-आते स्त्री मुक्ति आंदोलन एक नया रूप लेता है, जिसके तहत 1966 ई. में राष्ट्रीय महिला संगठन (National Organization of Women) का गठन होता है, जिसकी 400 से भी अधिक स्थानीय शाखाएँ1970 के आरंभ में खुलती है। इन संगठनों ने गर्भपात सुधार, संघीय राज्य द्वारा अनुपोषित शिशु देखभाल केन्द्र, महिलाओं के लिए समान वेतन, महिलाओं की पेशों में तरक्की और महिलाओं के लिए शिक्षा, राजनीतिक प्रभाव और आर्थिक सत्ता हासिल करने की दिशा में समान कानून और सामाजिक बाधाओं के खात्मे के लिए प्रयास किया।
1972 में शर्ली किसोम(Shirlechiholm),‘बेट्टी फ्राइडेन’ (Betty Friedan), ग्लोरिया स्टेनम’ (Gloria E. Steinem) आदि के नेतृत्व में जेंडर आधारित विभेदीकरण पर रोक लगाने की मांग की गई जिसके तहत1972 में समान अधिकार संशोधन विधेयक पास हुआ , राष्ट्रीय स्तर पर जिसमें जेंडर के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित कर दिया गया। 1975 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्वस्तर पर महिलाओं को संगठित करने व उनकी समस्याओं व मुद्दों से रूबरू होने के लिए विश्वस्तरीय कान्फ्रेंस (World Conference of the international Women’s) की शुरूआत की जिसका उद्देश्य विश्वस्तर पर सभी राष्ट्रों की महिलाओं को एकजुट करना, व उनकी समस्याओं को जानना व उन्हें समान अधिकार प्रदान कराना था, जिसके लिए1975 से 1985 के पूरे दस साल महिलाओं के नाम कर दिए।
आरंभ में स्त्रियों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली महिलाओं तथा आज की नारीवादियों में मुख्य अंतर दिखाई देता है। पहले स्त्रियाँ लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही थीं, जिसमें शिक्षा,रोजगार, संपत्ति का मालिकाना अधिकार, राजनीति में प्रवेश पाने व तलाक का अधिकार जैसे प्रमुख मुद्दे थे। उनका संघर्ष घर और परिवार के दायरे से बाहर था वहीं आज देखा जाए तो स्त्रियों का यह संघर्ष कानूनी सुधारों से कही आगे का संघर्ष बन गया है। आज के नारीवाद का केन्द्र घर के भीतर स्त्री पर पुरुष के वर्चस्व और अधिकार, परिवार द्वारा शोषण, कार्यस्थल में जेंडर विभेदीकरण, समाज, संस्कृति और धर्म द्वारा शोषण, साथ ही बच्चे पैदा करने, पालने व उत्पादन के दोहरे बोझ के विरुद्ध संघर्ष है।
एशिया में स्त्री मुक्ति का संघर्ष राजनैतिक चेतना के साथ उभरता है। विशेषतः 19वीं व 20वीं सदी में विदेशी शासन और सामंती शासकों की निरंकुशता के विरोध में नारी मुक्ति आंदोलन जोर पकड़ता है। जिसमें विधवा पुनर्विवाह, बहुविवाह, सती प्रथा पर रोक लगाने व स्त्रियों के लिए शिक्षा व संवैधानिक स्वतंत्रता मुहैया कराने जैसी मांगों को उठाया गया। भारत के इतिहास में यूँ तो महिलाओं की स्थिति को लेकर कई सुधारवादी आंदोलन हुए जिनमें 4 दिसम्बर 1829 को सती प्रथा पर रोक लगी। 1855 में कुछ नियमों के आधार पर विधवा पुनर्विवाह को मान्यता मिली साथ ही स्त्री शिक्षा पर भी ज़ोर दिया गया। यह सभी आंदोलन ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, राजाराममोहन राय, दयानंद सरस्वती जैसे समाज सुधारकों की अगुवाई में हुए। स्त्रियों ने समय-समय पर अपनी स्थितियों को लेकर विरोध किया। जिनमें सावित्री बाई फुले और पंड़िता रमाबाई का विशेष योगदान रहा है। ‘पंडिता रमाबाई’ पितृप्रधान धार्मिक कट्टरपंथी समाज पर आघात करती हैं।
वह ऐसे समय में स्त्रियों के अधिकारों व उनकी स्वतंत्रता की बात करती है, जब स्त्री पितृसत्ता,सामन्तशाही और धर्म के कठोर नियमों और वर्जनाओं के तले सैकड़ों-हजारों सालों से घुटन व चुप्पी भरा जीवन जी रही थी। 1887 में छपी पुस्तक ‘द हाईकास्ट हिन्दू वूमन’ में पंडिता रमाबाई स्त्री की दशा सुधारने के लिए चलाए गए अभियान की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं। ‘सावित्री बाई फुले’ ने भी स्त्रियों की शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया हैं। 1848 में वे पूने के बुधवारा पेठ में आम के वृक्ष के नीचे पहला बालिका विद्यालय खोलती हैं। इसी तरह 1851 में रास्तापेठ, 1852 बताल पेठ में दो और बालिका विद्यालय खोलते हुए स्त्री शिक्षा की लौ जलाती हैं। 1825 में ‘तारा बाई शिन्दे’ ‘स्त्री पुरुष तुलना’ में स्त्री और पुरुष संबंधों की विवेचना करती हैं और संबंधों में आए टूटन का कारण धर्मशास्त्रों को मानती हैं -‘‘उस जमाने के ऋषियों के बारे में भी क्या कहना ? कोई गौ के पेट से जन्मा, तो कोई हिरणी के पेट से। पक्षियों के पेट से जन्मा भारद्वाज और गधी के पेट से जन्मा था वह गंर्दभ ऋषि ! इन लोगों के कहे लिखे वाक्य जैसे वेद वाक्य हो गए और उसका परिणाम भुगतना पड़ा नारी को।
19वी सदी जहाँ सुधारों की थी वहीं 20वी सदी अधिकारों की। 20वीं सदी के साथ ही भारतीय स्त्रियों की राजनैतिक गतिविधियों में सहभागिता आरम्भ हो जाती है। 1906 में बहिष्कार आंदोलन के जुलूसों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। 1920 में अखिल भारतीय महिला समिति जैसी संस्थाओं के माध्यम से बाल विवाह, पर्दा प्रथा व सती प्रथा का विरोध करना। 1927 में अखिल भारतीय महिला कॉन्फ्रेंस (A.I.W.C.)का गठन होता है, जिससे भारतीय महिलाओं को यह समझ आता है कि संगठन में ही शक्ति है यहीं से भारत में एक भारतीय नारीवादी सोच पनपनी शुरू होती है। 1970 के दशक में जब विश्वभर में महिलाओं की स्थिति पर संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों का ध्यान गया तो उसी कड़ी में भारत में महिला अध्ययन केन्द्र की शुरूआत होती है जिसका पहला केंद्र दिल्ली में ‘सेंटर फॉर विमेन्स डेवलपमेन्ट स्टडीज’और मुम्बई की ‘एस.एन.डी.टी. यूनिवर्सिटी’ खुलता है। इसे स्थापित करने में बीना मजूमदार, नारी देसाई और मैत्रेयी कृष्णराज ने अपनी महती भूमिका निभाई, जिसके कारण 1975 से महिलाओं के योगदान उनके संघर्षों उनकी स्थितियों पर खोज करना उन्हें समाज के सामने रखने का सिलसिला शुरू हुआ।
महिलाओं से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर विमर्श करने के लिए 1980 में पहला राष्ट्रीय महिला सम्मेलन हुआ। यह सम्मेलन मुम्बई में हुआ जिसमें 32 महिला समूहों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में बलात्कार और महिला शोषण जैसी समस्याओं पर खुली बहस की शुरूआत हुई। लड़की के रूप में उनके पैदा होने की लाचारी एवं पीड़ा का श्रृंखलाबद्ध वर्णन किया जिसमें उनकी जवानी को लेकर पनपती यौन उत्पीड़न की फिक्र, विवाहोपरांत ‘दूर भेजे जाने का डर’, ‘अकेलापन’ और ‘विवाह के पश्चात् उनकी निजता की समाप्ति’,‘लड़की पैदा होने की पीड़ा’ और ‘भय’ से वाकिफ़ करवाया। इस संबंध में ‘सीमोन द बोउवार’लिखती हैं- ‘‘औरत की नियति और सम्पूर्ण महता इस बात में निहित है कि वह पुरुष के दिल की धड़़कन बढ़ा सके। वह जगम संपत्ति है, जिसको पुरुष जहाँ चाहे छांटकर ले जा सकता है ’’।[4] साथ ही नैतिकता,पवित्रता, शीलता व परित्याग जैसे गुणों के खोखले रूप व उसमें स्त्री की निर्मिति को चित्रित करते हुए‘जान स्टुअर्ट मिल’ लिखते हैं ‘‘पुरुष अपनी स्त्रियों को एक बाध्य गुलाम की तरह नहीं बल्कि एक इच्छुक गुलाम की तरह रखना चाहते है, सिर्फ गुलाम नहीं बल्कि पसंदीदा गुलाम बनाए रखने के लिए उन्होंने सारे संभव रास्ते अपनाए हैं’’।[5] इसीलिए पुरुष सत्ता ने नैतिक, अनैतिक, शील-अश्लील, त्याग-परित्याग, प्रेम-स्नेह और कर्तव्य जैसे खोखले मानदण्डों की चारदीवारी का निर्माण किया जिसमें स्त्री को अपनी इच्छानुसार ढाला जा सके जिसका चाहकर भी वह विरोध ना कर सके। इस चीख पुकार लाचारी के बीच अब तक के अनछुए भावनात्मक पहलू की अभिव्यक्ति का एक नया आयाम भारतीय नारी विमर्श में देखने को मिलता है। जहाँ एक ओर कामकाजी महिलाओं को पत्नी-माता, शक्ति की छवि का परित्याग कर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने को कहा गया। दूसरी ओर वर्ग चेतना के माध्यम से महिलाओं को संगठित व एकजुट भी किया गया। साथ ही श्रमिक राजनीति में उनकी भागीदारी को प्रोत्साहित किया गया।
स्वाधीनतापूर्व की नारीवादियों ने जहाँ श्रम आधारित भेद को स्वीकार। 70 के दशक में वही विरोध का यह स्वर लिंग समानता के अधिकार की मांग के रूप में मुखर होता है। नारीवादियों द्वारा महसूस किया गया कि समानता की अवधारणा को व्यापक बनाना होगा तभी असमानता के इस ढाँचे से बाहर आया जा सकता है। इस दौरान पुरुषों से अपने निजी जीवन पर नियंत्रण के अधिकार को लेकर आवाजें उठने लगीं। आर्थिक आत्मनिर्भरता इसका सबसे सशक्त पहलू था और उससे भी महत्वपूर्ण था महिलाओं की उनकी देह पर नियंत्रण के अधिकार की मांग। महादेवी वर्मा लिखती हैं-‘‘भारतीय पुरुष जैसे अपने मनोरंजन के लिए रंग-बिरंगे पक्षी पाल लेता है, उपयोग के लिए गाय या घोड़ा पाल लेता है। इसी प्रकार वह एक स्त्री को भी पालता है। अपने पालित पशु पक्षियों के समान ही उसके शरीर और मन पर अपना अधिकार समझता है[6]’’। जॉन स्टुअर्ट मिल लिखते हैं-‘‘एक पुरुष अपनी पत्नी को अपना प्रिय गुलाम बनाना चाहता है[7]’’। इस गुलामी और शरीरिक आज़ादी के खिलाफ ही 20वी सदी का नारीवादी आंदोलन खड़ा होता है।
यह सच है कि पिछले दो सौ वर्षों में स्त्रियों ने बहुत से क्षेत्रों में काफी तरक्की की है। कुछ औरतों के लिए कुछ सामाजिक बंधन भी कम हुए हैं। कुछ कानून भी बदले काफी हद तक औरतों को बराबरी का दर्जा भी दिया है। इन सबके बावजूद आज भी लगभग हर देश में स्त्रियों को न समान अधिकार है और न पूरी आजादी है। अर्चना वर्मा लिखती है-‘‘समाज यूँ नहीं बदला करता-वचनों, प्रवचनों, विवादों और विचारधाराओं से। उसको बदलने के लिए महामारी, अकाल, भूकंप, बाढ़ जैसी विराट पैमाने की कोई प्राकृतिक आपदा चाहिए या फिर युद्ध जैसी मानव रचित दुर्घटना क्योंकि ऐसे ही समय में मनुष्य की चेतना सामुदायिक रूप से इतनी तत्पर, सतर्क और संबद्ध होती है कि विचारों को शब्दों के घेरे से बाहर निकालकर कर्म में परिवर्तित कर दें। [8]’’
समकालीन स्त्री चिंतन जिसे स्त्री विमर्श भी कहा जाता है, स्त्री, उसका जीवन और उस जीवन की समस्याओं को केन्द्रीय विषय बनाता है। वह पारंपरिक ज्ञान और दर्शन को चुनौती देता है। जहाँ स्त्री ज्ञाता नहीं बल्कि ज्ञान की विषय वस्तु मात्र है और ज्ञान का अधिष्ठाता पुरुष समाज है। इस कारण नारीवादी सिद्धान्त स्त्री केन्द्रित पाठ (ज्ञान) की चर्चा करता है, जिसका एक रूप महादेवी के काव्य में देखा जा सकता है। उनके काव्य को रहस्यवादी, विरह वेदना का काव्य माना जाता है वहीं यदि स्त्री दृष्टि से उसका अध्ययन करते हैं तो स्त्री की स्वतंत्र पहचान का प्रश्न स्वर उनके काव्य में सुनाई देता है, जहाँ वह कहती हैं- ‘‘विस्तृत नभ का कोई कोना/मेरा न कभी अपना होना /परिचय इतना इतिहास यही/उमड़ी कल थी मिट आज चली/ मैं नीर भरी दुःख की बदली’’[9]। इस विस्तृत समाज रूपी नभ पर पुरुषों का ही एकाधिकार है। स्त्री यहाँ उपेक्षिता, अधीनस्थ एवं प्रताड़ित है उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं। वह माँ,पत्नी या बहू के रूप में समाज द्वारा मान्य है। उसका सम्पूर्ण जीवन इन्हीं पारिवारिक संबंधों की बेदी पर बलि चढता है और उसके बाद भी हाथ आते हैं तो केवल आँसू लेकिन नारीवादी आंदोलन और अध्ययन ने स्त्री की बनी बनाई छवि को तोड़ने का काम भी किया।
नारीवाद का ज्यों-ज्यों विकास होता गया इसकी शाखाएँ विभिन्न दिशाओं में फैलती गई। नारीवादी चिंतकों ने पारंपरिक दर्शन की स्त्री विरोधी प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला उन्होंने बताया की पारंपरिक दर्शन ने न केवल स्त्री के बौद्धिक प्रयास का अवमूल्यन किया, साथ ही उसके निजी मूल्यबोध को भी तुच्छ किया। चिंतन के क्षेत्र में स्त्री अपना स्थान बना सकती थी परन्तु पुरुष केन्द्रित सीमित सोच के कारण नहीं बना पाई। प्रभा खेतान के शब्दों में ‘‘एलिसन जैगर कहती हैं दुनिया को तौलने का पुरुषोचित नजरिया रहा है। कुछेक प्लेटो, जॉन स्टुअर्ट मिल एवं मार्क्स ने स्त्री-पुरुष को समकक्ष रखने की चेष्टा की ही। किन्तु उनमें से अधिकतर दार्शनिकों अरस्तू, कान्ट, हीगेल और नीत्शे को स्त्री जाति की बौद्धिक और तार्किक क्षमता पर गहरा संदेह था। अरस्तू जैसे महान विचारक भी पुरुष की विशेषता प्रभुत्व को, वही स्त्री की विशेषता उसकी आज्ञाकारिता को मानते हैं”।[10] जिसने जाने अनजाने ही इस जगत को दो हिस्सों में बांट दिया। एक हिस्सा जो नितांत वैयक्तिक और निजी था उसे स्त्री से जोड़ दिया गया उसकी सुरक्षा का दायित्व भी पुरुष सत्ता ने अपने ऊपर ले लिया और स्त्री से जुडे़ मुद्दें को विचार-विनिमय के काबिल ही नहीं समझा। दूसरा हिस्सा हमारा समाज और राजनीति का था जिसे पुरुष से जोड़ा गया क्योंकि उसके पास तर्क व बुद्धि थी ऐसा माना गया।
आज के समय में नारीवादी सिद्धांत में उदारवादी, उग्र नारीवादी, मार्क्सवादी, समाजवादी नारीवाद से लेकर नस्ल विरोधी मनोविश्लेषण और उत्तर आधुनिक नारीवाद शामिल है। उदार नारीवाद तक का संबंध व्यक्तिगत आजादी अर्थात् चयन की स्वतंत्रता, समान अवसर और नागरिक अधिकारों से था, जिसमें स्वतंत्रता और समानता का प्रश्न मुख्य रहा है। उदारवादी नारीवादियों में ‘मेरी वोल्स्टोनक्राफ्ट’ (1759-1797) की 1792 में प्रकाशित‘Vindication of Rights of Women’(महिलाओं के अधिकारों का समर्थन),जॉन स्टुअर्ट मिल’ (1806-1873) ‘A Subjection of Women’(स्त्री पराधीनता), ‘हैरिस्ट टेलर मिल’(1807.1858) ‘Enfranchisement of Women’ (इन फ्रेनचीसमेन्ट ऑफ वुमेन), बैट्टी फ्रीडन ‘The Feminine mystique’ (द फेमिनिन मिस्टीक) का भी विशेष योगदान रहा है। इन दार्शनिकों ने अपने लेखन में वैयक्तिक स्वतंत्रता और सामाजिक परिवर्तन की चर्चा तो की किंतु इनकी उदारवादी नीति स्त्री-पुरुष को समान अधिकार दिलाने में असमर्थ रही। यह पितृसत्तात्मक राज्य संरचना को उसी रूप में अपनाते हैं जिस रूप में वह मौजूद है, जहाँ आज भी पति नियंता व पत्नी अधीन है। व्यक्ति स्वतंत्रता के संबंध में उदारवादी विचारधारा बाहृय दुनिया तक ही सीमित थी। परिवार में अब भी पितृसत्ता का ही वर्चस्व बरकरार था, जहाँ ‘‘स्त्रियों से बहुत लगाव रखने वाले पुरुष भी आँखें मूंदकर यही मानते रहे कि उनकी छत्रछाया में स्त्री का व्यक्तित्व दिनोदिन विकसित हो रहा है....बिना यह सोचे-समझे कि उस स्त्री की स्थिति उस वृक्ष जैसी है जिसकी आधी शाखाओं को भाप-स्नान दिया जा रहा है जबकि बाकी आधी बर्फ में ढकी है। [11]’’
उदार नारीवादी कार्यकर्ताओं में बेला अबलेक्स, बेट्टी फ्रीडन और एलिजाबेथ हाउसमैन रही हैं। इन्होंने स्त्री-पुरुष समानता का प्रश्न उठाया है और कहा कि स्त्रियों को पुरुषों के समान सुविधाएँ प्रदान की जाएँ। समाज द्वारा निर्मित स्त्री निर्माण की प्रक्रिया का वह विरोध करती हैं, जहाँ लड़कों में विचारों का स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता स्वायत्ता विकसित की जाती है वही स्त्रियों में आज्ञाकारी पवित्रता पतियों को खुश रखने की कला का विकास अनिवार्य माना जाता है। इस संदर्भ में ‘मेरी वलस्टनक्राफ्ट’ का कहना था कि रुसो का यह तर्क कि स्त्री-पुरुष दोनों अलग तरह से सोचते हैं, पूर्णत: सही नही है। जब कोई स्त्री अलग या गलत तर्क देती है, उसके पीछे का कारण उसकी परवरिश का अभाव होता है न कि स्त्री-पुरुष विभेदता[12]। “Wollstonecraft rejects Rousseau’s idea than men and women think differently……when women do reason differently or incorrectly : its due to lack of training.”[13]
उदार नारीवादी सार्वजनिक जीवन में महिलाओं के अधिकारों मतदान प्राप्ति, शादी-शुदा महिलाओं की संपत्ति की रक्षा के जरिए विवाहित महिलाओं की स्थिति में सुधार बच्चों के अधिग्रहण के मामले में महिलाओं की कानूनी स्थिति में सुधार, तलाक कानूनों को सरल बनाना, विवाहित महिलाओं को आर्थिक स्वायत्तता प्रदान करना,उच्च शिक्षा तथा ज्ञान में उनके योगदान को सुगम बनाना जैसे मुद्दों को तो उठाता है। व्यावहारिक जीवन में जेंडर व श्रम उत्पीड़न जैसे मुद्दें इसमें उपेक्षित ही रह जाते हैं , जिन्हें आगे चलकर समाजवादी नारीवादियों व उग्र नारीवादियों द्वारा उठाया गया। उदार नारीवादियों के संदर्भ में Zillah Eisenstein 1979 लिखती हैं- “वे लैंगिक उत्पीड़न, श्रम का लैंगिक विभाजन और आर्थिक वर्गीय ढाँचे में आपसी रिश्ते नहीं तलाश सकी[14]’’ क्योंकि स्त्री स्वतन्त्रता के संबंध में उदारवादी विचारधारा केवल समाज तक सिमट कर ही रह गई , परिवार इसमें अछूता ही रहा।
मार्क्सवादी नारीवाद (Marxist Feminism) के अंगर्तत वर्ग और सेक्स के बीच के संबंधों को समझने का प्रयास किया गया, जिनमें 1970 में केट मिलेट कि ‘सेक्सुअल पालिटिक्स’ और ‘सुलामिथ फायर स्टोन’ की‘डालयेक्टिक ऑफ सेक्स’ जुलियट मिशेल ‘वुमेन स्टेट’ पुस्तकें आती हैं। इनका कहना था कि स्त्री मुक्ति संबंधी सारे सिद्धांतों का स्रोत स्त्री का निजी जीवन है। इनका प्रमुख नारा था कि ‘पर्सनल इज पॉलिटिकल’। इन्होंने स्त्री को अपनी खामोशी तोड़कर सामाजिक मंचों पर, विचार विमर्श करने के लिए आमंत्रित किया। स्त्री अधीनता का प्रमुख कारण निजी संपत्ति की अवधारणा को माना। ‘फैडरिक एंगेल्स’ने ‘परिवार निजी संपत्ति राज्य की उत्पत्ति’ और ‘ऐलेन सोवोलता’‘द लिटरेचर ऑफ देयर ओन’ पुस्तक में जिसे स्वीकारा है, जिसके अनुसार समाज में स्त्री का अस्तित्व केवल पुरुष की निजी संपत्ति के रूप में ही है। अतः आर्थिक रूप से स्वावलंबन ही स्त्री स्वतंत्रता का मार्क्सवादियों ने पैमाना माना। स्त्री शोषण के पीछे कहीं न कहीं उत्पादन के संसाधनों पर पुरुष वर्ग का स्वामित्व होना भी था। महिलाओं के द्वारा किए जाने वाले श्रम को भी कभी उत्पादन के दायरे में नहीं माना गया नारीवादियों द्वारा यह महसूस किया गया कि स्त्री की अधीनता का कारण यह भी है। पुरुष जहाँ केवल समाज में श्रम उत्पादन में योगदान देता है वहीं स्त्री का श्रम दो क्षेत्रों में बंटा होता है। पहला समाज, दूसरा उसका परिवार, जहाँ वह दिन-रात बिना किसी मूल्य के श्रम करती है। संतान का भरण-पोषण, परिवार की देख-रेख व अन्य सेवा कार्य करती है, जिसका आर्थिक मूल्यांकन नहीं किया जाता। मार्क्सवादी नारीवादियों ने इन मुद्दों को उठाया और महिलाओं के शोषण की आर्थिक और सामाजिक व्याख्या की।
मार्क्सवादी नारीवादियों ने जिनमें ‘डोना हार्वे’, ‘शीला रोबांथम’, ‘जूलियट मिशेल’ प्रमुख हैं मार्क्स के विचारों की पुनर्व्याख्या करने की कोशिश की साथ ही पूंजीवाद और पुरुष वर्चस्व के आपसी संबंध पर अंतहीन बहसे भी की। इससे विचारों की दो धाराएं उभरती हैं-पहली धारा का संबंध पारंपरिक मार्क्सवाद से था,जहाँ मार्क्सवादी अवधारणा की संरचना के भीतर ही स्त्रियों की मुक्ति की अवधारणा का विश्लेषण करना था। दूसरी धारा में वे स्त्रियां थी जो सर्वहारा से अलग हटकर, स्त्री की समस्या को विश्व मंच पर रखना चाह रही थी। 1968 की छात्र सभा में जर्मन मार्क्सवादी स्त्री कार्यकर्ता हेल्के सेंडर कहती हैं -‘‘स्त्री को पहचान तभी मिलेगी जब वह मंच पर अपने निजी जीवन की समस्याओं की अभिव्यक्त करें और इसी आधार पर राजनैतिक रूप से एकबद्ध होकर संघर्ष करें [15]।’’ पितृसत्ता इन दोनों ही धाराओं का केन्द्रीय मुद्दा रहा। जहाँ स्त्री होने के लिए उसे पुरुष सत्ता के वर्चस्व व उसकी सत्ता द्वारा निर्धारित होने के लिए बाध्य होना पड़ा। इसी को लिंगीकरण अर्थात् जेंडराइजेशन की प्रक्रिया भी कहा गया। ‘द डायलेक्टिक आफ सेक्स’ में ‘सुलामिथ’ आर्थिक और राजनैतिक सुधार को ही स्त्री पराधीनता से मुक्ति का वाहक नहीं मानती। ‘आवश्यकता है कि स्त्रीकरण (अर्थात् स्त्री बनाए जाने की प्रक्रिया) की इस यौनवादी व्यवस्था को बदला जाए। साथ ही स्त्री स्वयं में भी बदलाव लाए’। मार्क्सवादी नारीवाद स्त्री मुक्ति की कामना उसके स्वयं के द्वारा जीवन में लाए बदलावों से मानता है।
उग्र नारीवादी सिद्धांत (Radical-Feminism) जो कुछ अपना है, उसे दूसरों से क्यों मांगा जाए क्यों न उसे छीन लिया जाए यही विचार उग्र नारीवाद है। साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में तथा सत्तर के दशक की शुरूआत में उदार नारीवाद के प्रतिक्रिया स्वरूप इसका जन्म होता है। इसके उदय में 1960 और 1970 के दशक की तीन पुस्तकों की अहम भूमिका रही। पहली ‘सिमोन द-बोउवार’ की ‘द सेकेंड सेक्स’ (1949)जिसमें वह सेक्स को जेंडर से अलगाती है तथा जेंडर को महिलाओं के उत्पीड़न का कारण मानती है‘‘स्त्री जन्म से ही स्त्री नहीं होती बल्कि बढ़कर स्त्री बनती है।[16]’’ दूसरी 1970 के दशक में प्रकाशित‘केट मिलेट’ की सेक्सुअल पॉलिटिक्स’ है, जिसमें मिलेट लिखती हैं-“Marxist theory had failed to supply a sufficient ideological base for a sexual revolution..[17]” इसके साथ ही अपनी पुस्तक में मिलेट ने यौन क्रीड़ाओं का पुरुषों के द्वारा किए जाने वाले वर्णन व उसमें निहित वर्चस्व के संबंधों को भी रेखांकित किया है-‘‘पितृसत्ता का निर्माण पुरुषों ने किया और हमे इसी तरह पाला पोसा जाता है कि हम उसे स्वाभाविक मान लेते हैं। छोटी-छोटी लड़कियों को भी इसी तरह प्रशिक्षित किया जाता है कि आमतौर पर वे रूमानी प्रेम के चित्रण के जरिए अपनी-अपनी जेंडर भूमिकाओं को स्वीकारें[18]’’। तीसरी ‘शुलामिथ फायरस्टोन‘ की ‘द डालेक्टिक्स ऑफ सेक्स: द केस फॉर फेमिनिस्ट रेवोल्यूशन’ पुस्तक है। उनका मानना है‘स्त्री वास्तव में जन्म से स्त्रीकरण का शिकार है। उनका तर्क या महिलाओं का जीव विज्ञान उनकी अधीनता की जड़ में है’। जहाँ गर्भधारण बाल जन्म और बच्चों का लालन पालन की समस्याओं के कारण महिलाएं प्राकृतिक स्थिति में खुद को कमजोर महसूस करती रही है।
इस प्रकार उग्र नारीवाद का उद्देश्य लिंगों के बीच व्याप्त विभेद को उजागर करना है जो कानून, रोजगार तक ही नहीं बल्कि हमारे व्यक्तिगत संबंधों में भी व्याप्त है। इसका दायरा घर, बिस्तर यहाँ तक की हमारी स्वयं की आत्मसात धारणाओं तक फैला हुआ है, जहाँ जेंडर आधारित विभेद समग्र जीन की संरचना करता है। पितृसत्तात्मक विचारधारा के तहत जहाँ मातृत्व ही स्त्री का श्रेष्ठ गुण है। जिसमें कोई नारी सम्पूर्णता व सम्मान पा सकती है। किसी कारणवश वह संतान पैदा करने में अक्षम होती है, तो उसे अस्त्रियोचित समझा जाता है। मातृत्व को जिस तरह पितृसत्ता के तहत संस्थाबद्ध किया गया है वह नारी उत्पीड़न का ही रूप है। ‘स्त्री के पास खोने के लिए कुछ नहीं है’ पुस्तक में ‘सिमोन द बोउवार’ एलिस श्वेर्जन से बातचीज के दौरान कहती हैं ‘‘आज किसी व्यक्ति के लिए औरतों से यह कहना बेहद मुश्किल है कि पतीलियाँ धोना ही उनके जीवन का महान ईश्वरीय लक्ष्य है। इसलिए उनसे यह कहा गया कि बच्चे को जन्म देना और उसे पाल-पोस कर बड़ा करना ही उनका देवी कर्तव्य है[19]’’।
उग्र नारीवादियों द्वारा सामाजिक मुद्दों चिकित्सा शास्त्र धर्म, प्रजनन, जातिवाद पर्यावरण और राजनैतिक सिद्धांतों पर भी लिखा गया परन्तु उनके विमर्श का केन्द्रीय मुद्दा पुरुष सत्ता द्वारा स्त्री यौन इच्छाओं का निर्धारण था, जहाँ यौन जीवन में वह तरह-तरह के यौन उत्पीड़न एवं हिंसा का शिकार होती हैं। बलात्कार,अश्लील साहित्य (ब्लूफिल्मस), अनैच्छिक मातृत्व एवं जन्मनिरोध जैसे मुद्दों को उठाती हैं, जहाँ उसके जीवन पर पुरुष सत्ता का वर्चस्व रहता है। उसे अपनी इच्छाओं का चुनाव करने का अधिकार नहीं, बल्कि उसे असहाय, दुर्बल, खतरे में है कहकर सुरक्षा की आड़ में उसका शोषण किया जाता रहा है। उग्र नारीवाद इसी शोषण के खिलाफ अपनी आवाज उठाता है। इस सत्य से वाकिफ होने के साथ-साथ उग्रनारीवाद पितृसत्ता के नकाब को उतारता है।
मनोविश्लेषक नारीवाद (Psychoanalytic Feminism) मनोविश्लेषक नारीवादी विचारधारा का उदय सिगमंड फ्रायड ‘थ्री कॉन्ट्रीब्यूशन टू दा थ्योरी ऑफ सेक्सयूलटी’ (Three Contribution of the Theory of Sexuality) इनर्फटाईल सेक्सूवल्टी (Infantile Sexuality) और दा ट्रांसफोरमेशन ऑफ पवर्टी (The Transformation of puberty) से हुआ है, जहाँ व्यक्ति के यौन जीवन को इतरलिंगी माना गया और इन संबंधों को स्त्री-पुरुष जीवन की अनिवार्यता। स्त्रीवादी विचारकों द्वारा फ्रायड के इतरलिंगी सिद्धांत पर प्रश्न खड़े किए कि क्यों स्त्री जीवन में इतरलिंगी संबंधों को जायज व अनिवार्य माना ? क्यों समलैंगिक संबंधों को केवल स्त्री के लिए नाजायज माना गया है ? जबकि समलैंगिकता एक सहज प्रकृति है। बचपन में स्त्री का अपनी माँ के साथ लगाव रहता है। फिर क्यों उस प्रेम संबंध को त्यागकर पुरुष के पास भेज दी जाती है। मनोविश्लेषक नारीवादियों द्वारा यह अध्ययन किया गया, कैसे समाज की पुरुषवादी मानसिकता बचपन से बच्चे पर हावी होती है जो उसे और उसके लिंग को पहचान देती है। इस संदर्भ में प्रभा खेतान के शब्दों में ‘नैन्सी सोडोरो’ का कहना है कि ‘‘यह स्वाभाविक है कि प्राक इडिपस स्तर पर बच्चा अपने माँ-बाप से जुड़ा रहता है और उन्हें ही सर्वशक्तिमान मानता है, किन्तु माँ और बच्चे का संबंध दोहरा है...बच्चे का अपनी माँ के साथ गहरा लगाव है। लड़के का प्यार उसकी माँ है, किन्तु पिता के भय से आतंकित होकर माँ को छोड़ने को बाध्य है, अतः मन के गहरे लिंग विहीन होने का आतंक समाया हुआ है[20]’’। इसके विपरीत लड़की के पास लिंगविहीन होने की समस्या नहीं होती है। इस कारण माँ से उसका गहरा जुड़ाव रहता है परन्तु पितृसत्ता के ढाँचे में वह स्वयं को समेट नहीं पाती और सदा हाशिए पर ही बनी रहती है।‘‘जहाँ पुरुष वैयक्तीकरण के माध्यम से जीता है। स्त्री संबंधीकरण के माध्यम से जीती है[21]’’।
पुरुष सत्ता द्वारा मानसिक रूप से स्त्री को गुलाम बनाने की प्रक्रिया आज भी जारी है। स्त्री उस प्रक्रिया में किस प्रकार अस्वाभाविक होकर अपना योगदान देती है, जिसमें वह अपने उन रिश्तों व प्रेम के बंधनों को तोड़ती है जो उसके जीवन का अनिवार्य हिस्सा है। इत्तर लिंगी जिसे पितृसमाज द्वारा जीवन का अनिवार्य रूप माना तो समलैंगिकता को हेय। प्रभा खेतान के शब्दों में ‘एड्रियन रिच’ के अनुसार-‘‘यह पुरुष सत्ता है, उसकी ताकत है, जो स्त्री पर इतरलिंगी व्यवस्था को आरोपित करती है। इसी व्यवस्था के माध्यम से पुरुष अपना शारीरिक, आर्थिक और भावनात्मक वर्चस्व स्त्री पर लागू कर पाता है। पितृसत्ता ने समलैंगिकता को स्त्री के लिए असंभव माना, क्योंकि स्त्री कामना की व्याख्या भी पुरुष सत्ता ने अपने अनुसार की है यानी पुरुष ने अपने उत्तरलिंगी यौन जीवन के अनुभव को स्त्री कामना पर आरोपित किया। सत्ता ने कामना के प्रसंग में स्त्री की इच्छा-अनिच्छा का सवाल ही नहीं उठाया[22]’’। नारीवादी विचारकों द्वारा स्त्री मुक्ति के संघर्ष में मनोविश्लेषण की पद्धति को अपनाया गया ताकि समाज की मानसिक संरचना को समझा जा सके। आज यह विमर्श फ्रायड से भी आगे निकल चुका है।
सामाजिक नारीवादी (Social Feminism) इस विचारधारा के अन्तर्गत समाज में स्त्री के शोषण के कारणों को जानना व उन पर नए सिरे से अध्ययन करना था जैसा की नारीवादियों द्वारा देखा गया की केवल पूँजी ही स्त्री शोषण का कारण नहीं है। स्त्री आर्थिक रूप से सक्षम हो भी जाए तब भी वह शोषित होती है, जिसका कारण पुरुष सत्ता का वर्चस्व व उनके मन में विद्यमान जातीय श्रेष्ठता का बोध है। अतः नारीवादियों द्वारा समाज के इस परम्परावादी ढांचे में बदलाव लाने का प्रयास किया गया,जिसमें सर्वप्रथम परिवार तथा विवाह नामक संस्थाओं पर प्रश्न खड़े किए।
इस प्रकार समय के आगे बढ़ने की प्रक्रिया में स्त्री विमर्श में भी नई-नई विचारधाराओं का आगमन होता गया, जिसमें 80 व 90 के दशक के बाद सांस्कृतिक, समलैंगिक, आर्थिक, उत्तर आधुनिक, उत्तर नारीवाद और अश्वेत नारीवाद (जिसे तीसरी दुनिया में दलित नारीवादी विमर्श) के नाम से जाना जाता है जैसी विचारधाराओं से हमारा परिचय होता है। इनके माध्यम से स्त्री को समझने का एक नया पाठ हमारे समक्ष प्रस्तुत होता है जो स्त्री को स्त्री के नजरिए से समझने की बात करता है। भारतीय संदर्भ में विमर्श की बात की जाए तो यह एक ‘इन्फ़ोरमेशन’ है जो ज्ञान के रास्ते से गुजरकर स्वतन्त्रता की चेतना पैदा करता है। स्त्री विमर्श के संदर्भ में यदि इसे समझे तो ऐतिहासिकता में इसके संपूर्ण कालक्रम को देखना व समकालीन संदर्भों में उसके विभिन्न आयामों समझना है। स्त्री विमर्श की अपनी कोई ठोस परिभाषा नहीं हो सकती है। पश्चिम के नारीवाद से ही इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लेते हुए भारतीय महिला आंदोलन को उससे जोड़कर समझा जा सकता है, जो वैश्विक परिदृश्य में ‘स्त्री’ को समझने का व्यापक नजरिया देता है साथ ही ‘सिस्टर वुड’ जैसी अवधारणाओं के वैश्विक फलक पर अलग-अलग रूपों को समझने में भी सहायक होता है।
संदर्भ सूची
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