Thursday, October 13, 2016

भाषण

मंच पर उपस्थित सभी मेरे श्रेष्ठ...
अवस्थी जी...सुनीता जी...पाण्डेय जी....
और, हॉल में मौजूद सभी श्रेष्ठ गुरुजन, छात्र-छात्राओं, मित्रों.....
जब मुझे अम्बेडकर विश्वविद्यालय प्रशासन से इस सेमिनार में मौजूद रहने का आमंत्रण मिला और मुझे पता चला कि अभिव्यक्ति और बोलने की स्वतंत्रता पर बोलना है तो मुझे बहुत संतोष हुआ. पिछले कुछ समय से इसपर और इससे मिलते जुलते तमाम मुद्दों पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस चल रही है. ये अच्छा है क्योंकि अब तक सिर्फ गरीबी, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और राजनीतिक उठापटक और उसके अपराधीकरण पर ज्यादा बात होती थी लेकिन, मुझे लगता है कि पहली बार बोलने की आजादी पर इतनी बहस हो रही है. खास बात तो ये है कि इसपर बहस कुछ ही दिनों में थम नहीं गयीं बल्कि लगातार जारी है. अब सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है. जाहिर है कि कुछ न कुछ तो बदलाव आया है कि जिसकी वजह से पूरे देश में इसपर मुद्दे पर चर्चा चल रही है. यहां तक की पूरी दुनियां भी इसपर नजर रखे हुए है कि भारत में इन दिनों क्या हो रहा है...हमें उस बदलाव को महसूस करना होगा जो पिछले समय में आया है.

साहित्याकारों द्वारा अपने पुरस्कार लौटाने के दौर से लेकर जेएनयू के छात्रों की गिरफ्तारी तक इस मुद्दे पर रोज नये अध्याय जुड़ रहे हैं....मैं व्यक्तिगत तौर पर मानता हूं कि जब भी कोई बात हमें नागवार गुजरती है या फिर हम जिसे पसंद नहीं करते तो उसके खिलाफ हमारा जो विरोध शुरु होता है उसके तरीके में बदलाव आया है. नापसंदगी के प्रति जिम्मेदार लोगों का विरोध बेहद तीखा और पहले से कहीं ज्यादा तीव्रता का हो गया है. आमिर खान का ताजा उदाहरण हमारे सामने है. आमिर खान ने देश के सामने एक ऐसी बात रखी जिसे उनकी पत्नी ने उनके सामने रखी थीं. आमिर ने अपने निजी अनुभवों को समाज के सामने रखा था लेकिन, आमिर का विरोध किस रूप में हमारे सामने आया. पहले तो आमिर के बयान के बारे में ज्यादातर लोगों तक गलत ,सूचना पहुंचायी गयी. जैसे आमिर ने ये कहा हो कि उसे भारत से ज्यादा प्यार किसी दूसरे मुल्क से हो. आमिर का प्रकरण सामने आते ही देश के अलग अलग हिस्सों से इस बात की प्रतिक्रिया आने लगी कि ऐसे लोगों को तो पार्टिशन के वक्त ही पाकिस्तान चले जाना चाहिए था. ऐसे लोगों के लिए भारत में कोई जगह नहीं है...वगैरह...वगैरह....साथ ही आमिर के पुतले फूंकने से लेकर उनकी फिल्मों को दिखाने वाले सिनेमाघरों में तोड़फोड़ तक शुरु हो गयी.

हैरान करने वाली बात तो ये है कि ऐसा आमिर के साथ ही नहीं हुआ बल्कि कई और लोगों के लिए ऐसी ही घटनायें दोहरायी गयीं. अब ये कहां तक उचित है कि जो हमारी पसंद की बात न बोले उसके खिलाफ हिंसक आन्दोलन छेड़ दें. भारत माता की जय बोलने और ना बोलने को लेकर भी ऐसा ही कुछ देखने को मिल रहा है. मैं तो ये देखकर हैरान रह गया कि दिल्ली में वकीलों के एक दल ने एबीपी न्यूज की पत्रकार श्रेया बहुगुणा को इन्टरव्यू के दौरान ये कहने के लिए मजबूर करते रहे कि तुम भारत माता की जय बोलो. हालांकि श्रेया ने इस प्रवृत्ति का पुरजोर विरोध किया. तो क्या श्रेया बहुगुणा देशद्रोही हो गयीं. असल में इस बात का प्रयास तेजी से किया जा रहा है कि देश का माहौल और राजनीति यहां तक की लोगों की सोच भी नारों के इर्द गिर्द सिमटकर रह जाये. अब सवाल ये उठता है कि क्या नारों से ही नागिरकों का चरित्र तय किया जायेगा. राजनैतिक दलों को ज्यादातर नारों की ही जरूरत महसूस हो रही है. बेहतर नारे गढ़ने के लिए मैनेजर रखे जा रहे हैं. लेकिन, ये हमें नहीं भूलना चाहिए कि मैनेजरों के सहारे चुनाव जीतना लोगों को भ्रमित करके चुनाव जीतने के बराबर है. क्योंकि जब आपकी असलियत उजागर हो जाती है तभी आप मैनमेजर का मुखौटा लगाते हैं. तो क्या राजनीतिक दल समर्थन और विरोध में दिये जाने वाले नारों के बीच ही लोगों को ऱखना चाहते हैं. क्या इस बात की कोशिश नहीं की जा रही है यदि आप भारत माता की जय नहीं बोलतके हैं तो आप देशद्रोही करार दिये जायेंगे. लेकिन, इसे बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए.

और, इसीलिए मैंने कहा कि अभिव्यक्ति और बोलने की आजादी जैसे मुद्दों पर चर्चा की जरूरत पहले से ज्यादा महसूस हो रही है. इस देश में एक बहुत बड़ा वर्ग है को मसर्थन और विरोध से अलग एक अपने दायरे में रहता है जिसकी प्राथमिकतायें नारा लगाना से ज्यादा किसी और मुद्दे के लिए है. आखिर हम उसे कहां जगह देंगे. वैसे लोगों को वो जगह लेनी होगी. ऐसे समय में मीडिया की भूमिका बेहद अहम हो जाती है लेकिन उसकी भूमिका भी इस मामले में कुछ कम विवादास्पद नहीं रही है. अखबार हो या टेलीविजन दोनों ने ही जमकर मनमानी की है. जेएनयू के मामले में तो हद ही हो गयी. नेशनल चैनलों ने जिस तरह से इस पूरे प्रकरण को प्रस्तुत किया वो वाकयी खतरनाक है. चैनलों ने अपनी स्क्रीन पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा कि क्या जेएनयू देशद्रोहियों का अड्डा है. इतना ही नही, कुछ चैनलों ने कन्हैया कुमार, उमर खालिद और अनिर्बान की फोटो एक साथ लगाकर लिखा कि देशद्रोही कौन.... देशद्रोही शब्द रोटी कपड़ा की तरह लोगों की जुबान पर चढ़ गया. अब बात ये पूछी जानी चाहिए कि इण्डियन पीनल कोड में देशद्रोही शब्द कहा हैं और उसकी क्या व्यख्या है. जिन आरोपों की बात टीवी वाले कर रहे थे वो राजद्रोह था ना कि देशद्रोह. फिर दोनों में अंतर क्यों नहीं किया गया. जब हम कानून की बात कर रहे होते हैं तो हमें कानूनी शब्दों से परहेज क्यों. आखिर मीडिया ने मनमाने तरीके से ऐसा क्यों किया.

असल में मीडिया का फोकस बदल गया है. सामाजिक दायित्वों से ज्यादा उसके लिए आर्थिक लाभ जरूरी हो चला है और ऐसा इसलिए भी क्योंकि ज्यादातर मीडिया घराने एक एक करके कार्पोरेट के हाथों में चले गये हैं या जा रहे हैं. मीडिया की जो भूमिका पिछले दिनों में सामने आयी है उससे ये आशंका बढ़ती जा रही है कि कहीं मीडिया लोकतंत्र के चौथा स्तम्भ होने के अपने वजूद को खो ना दे और सिर्फ एक व्यावसायिक घराने के रूप में ही देखा जाने लगे. अपनी हर गलती या अपराध पर मीडिया ये कहकर निकल जाता है कि टेलीविजन का इतिहास अभी नया है लेकिन, सवाल ये है कि इस बात के भरोसे कब तक टीवी को अपराध की छूट मिलती रहेगी. मैं टेलीविजन पर ज्यादा फोकस इसलिए कर रहा हूं क्योंकि टेलीविजन का प्रभाव अखबारों से कहीं ज्यादा व्यापक और तीव्र होता है. टीवी की न सिर्फ पहुंच अखबारों से ज्यादा है बल्कि उसे समझने के लिए आपका पढ़ा लिखा या बौद्धिक होने की भी जरूरत नहीं. यदि आप भाषा भी नहीं समझती तब भी वीडियो फुटेज ही अपना काम कर देता है.

लेकिन, इस मामले में अखबारों ने भी कुछ कम नहीं गंवाया है. जब भी पुलिस आतंकवाद के आरोपों में किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करती है तो अखबारों में इसे इस तरह क्यों छापा जाता है कि.... आईएसआईएस के चार आतंकी गिरफ्तार... तीन आईएसआई एजेण्ट गिरफ्तार.... आखिर संदिग्ध शब्द को क्यों त्याग दिया गया है. इसी लखनऊ में आठ साल पहले आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार चार लड़कों को कोर्ट ने बाइज्जत बरी कर दिया है. जबकि उन लड़कों का 2008 में केस लड़ने वाले वकील को कोर्ट परिसर में जमकर मारा पीटा गया और उनका हाथ तोड़ दिया गया. लेकिन, किसी ने ये सवाल नहीं पूछा कि जब "आतंकी" बरी हो गये तो फिर पुलिस ने जो हथियार उनसे बरामद दिखाया था वो कहां से आये थे. जाहिर है मीडिया को ये देखना होगा कि उसकी मनमानी कब रूकेगी. हालांकि न्यूज ब्रॉडकास्ट स्टैण्डर्ड अथॉरिटी ने टाइम्स नाऊ पर जुर्माना लगाया है लेकिन, उसकी सफलता तो तब मानी जायेगी जब एनबीएसए की चलेगी.

आपको एक उदाहरण पाकिस्तान का देता हूं. ये हाल ही में चर्चा में आया है क्योंकि न्यूयार्क टाइम्स में एक लेख 19 मार्च को छापा गया था. पाकिस्तान में कुरान या फिर पैगम्बर के खिलाफ बोलने वालों को सजा ए मौत दी जाती है. पाकिस्तान का ब्लासफेमी कानून बहुत पुराना है लेकिन, इसे बेहद सख्त किया जनरल जियाउल हक ने अपने दौर में. पाकिस्तान की महज तीन फीसदी आबादी गैर मुस्लिम है. जिसमें ज्यादातर हिन्दू और ईसाई हैं. अब इस कानून के तहत जिन लोगों को सजा दी गयी है उनमें से आधे से अधिक इन्हीं दोनों समुदायों के लोग रहे हैं. 2008 में एक ईसाई महिला ने पैगम्बर के खिलाफ कुछ बयान दिया तो उसे फांसी की सजा दी गयी. इस बीच पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गवर्नर सलीम तासीर ने इसका विरोध किया और ब्लासफेमी कानून खत्म करने की मांग की. उनके इतना कहने भर से ही पूरे पाकिस्तान में उनका जबरदस्त विरोध शुरु हो गया. अंततः 2011 में उनके अपने ही बॉडीगार्ड काद्री ने उनकी हत्या कर दी.

काद्री को इस हत्याकांड के लिए फांसी की सजा हुई जो इसी साल फरवरी में दी गयी. काद्री का जब जनाजा निकाला गया जो पूरी दुनियां दंग रह गयी. काद्री के जनाजे में रावलपिंडी में एक लाख लोग जमा हुए. इतनी बड़ी संख्या पाकिस्तान में सिर्फ दो ही लोगों के जनाजे में जमा हुई थी. पहली बार मुहम्मद अली जिन्ना और दूसरी बार बेनजीर भुट्टो के जनाजे में. असल में काद्री के जनाजे में शामिल होने आये लोगों को काद्री में दिलचस्पी नहीं थी बल्कि उनकी रूचि उस ख्श को देखने में थी जिसने सलमान तासीर की हत्या की. वह सलमान तासीर जिसने एक ऐसी महिला का समर्थन किया जिसने इस्लाम के खिलाफ कुछ कहा था.. आपको येजानकर हैरानी होगी कि 1980 से अब तक लगभग 1500 लोगों पर ब्लासफेमी कानून के तहत कार्रवाई की गयी है. यहां तक की 60 से ज्यादा लोगों की तो हत्या की जा चुकी है. कुछ तो ऐसे लोगों की हत्या की गयी है जिन्हें कोर्ट ने बरी कर दिया था.

मैंने पाकिस्तान के इस प्रकरण का हवाला इसलिए दिया क्योंकि हमारे अंदर भी ऐसी प्रवृत्ति पनपने लगी है. अब सवाल उठता है कि क्या हमारा समाज भी कहीं धीरे धीरे उसी मानसिकता की ओर तो नहीं बढ़ रहा है. हमारी नापसंदगी की बात करने वालों को मिटा देने की प्रवृति ठिक नहीं कही जा सकती. कन्हैया कुमार पर हमला हो या फिर आतंकियों का मुकदमा लड़ने वाले वकील पर हमलाकर हाथ तोड़ने का मामला हो.... ऐसी प्रवृति को हर हाल में खत्म करना होगा. विरोधियों को नष्ट करने की भावना खतरनाक है क्योंकि ये हमारे सामाजिक ताने बाने के उलट है. हमारे पुरखों ने हमें सिखाया है निन्दक नियरे राखिये..... जवाहर लाल नेहरू ने भी श्यामा प्रसाद मुखर्जी और बाबा साहब, जिनका आप जन्मदिवस मनाने जा रहे हैं, को अपने तमाम विरोधों के बावजूद मंत्रिमण्डल में रखा था. तो आखिर फिर वो प्रवृत्ति क्यों कमजोर हो रही है. हमें इसे ताकत देनी होगी तभी कुछ बुरा नहीं होगा.....
धन्यवाद...

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