महाराष्ट्र के अकोला जिले के शेणपुर गांव में 23 फरवरी, 1876 को धोबी जाति के अत्यंत गरीब झिंगराजी और सखूबाई के घर में एक बालक ने जन्म लिया. माता-पिता ने बालक का नाम डेबू रखा. यही बालक आगे चलकर गाडगे बाबा के नाम से विख्यात हो गया.. पिता झिंगराजी का 1884 में निधन हो गया. उस समय बालक डेबू की उम्र मात्र आठ वर्ष की थी. माँ सखुबाई को बच्चों को लेकर पिता के घर दापुरे में शरण लेनी पड़ी.. जहां से वे कभी शेणपुर नहीं गई.. बालक डेबू को नाना के घर पशुपालन व खेतीबाड़ी में काम बंटाना पड़ता था. डेबू बचपन से ही सफाई पसंद था..
उसी काल में शिक्षा से वंचित रखे गये हिन्दू समाज को सभी दलित जातियों में अज्ञानता, अंधविश्वास, गरीबी, शराबखोरी आदि विद्यमान थे. गंदे वातावरण के रहने एवं अच्छे भोजन के अभाव में बच्चे कुपोषण का शिकार हो जाते थे. गरीबी को झेलते दलितों को बेगार के नाम पर कमरतोड़ मेहनत के साथ जलालत भी मुफ्त में झेलनी पड़ती थी. इन अथाह दुःखो को शोषित समाज सदियों से पिछले जन्मों के कर्मों का फल और भाग्य का लेखा-जोखा समझ कर झेल रहा था. इसलिए विद्रोह का उनके अंदर माद्या ही नहीं बचा था. शोषित समाज विवेकशून्य होकर पशुतूल्य जीवन जी रहा था. उन दिनों क्षेत्र में निर्गुण परंपरा के संत नाम देव चोखामेला आदि का बड़ा प्रभाव था. भगत मंडलियों द्वारा उनकी वाणी गाई जाती. मंडली के लोग संतों के उपदेशों की व्याख्या भी करते थे.. इसका बालक डेबू पर प्रभाव शुरू होने लगा था...
डेबू (गाडगेबाबाजी) भजनों के अलावा दलितों में अंधविश्वासों की बुरी परंपरा के प्रति भी समाज को सचेत करते थे, उन्हें कर्ज न लेने की हिदायतें देते थे. साफ-सफाई के महान महत्त्व को भी समझाते, चरित्र निर्माण पर जोर देते हुक्का-बीड़ी पीने वाले को कोसते.. धीरे-धीरे डेबूजी की मेहनत रंग लाने लगी. अब दलित लोग उनकी बातों की चर्चा घर-परिवार में करने लगे. दापुरे गांव के एक गरीब धोबी थनाजी खल्लारकर की बेटी कुंताबाई के साथ उनकी शादी धूमधाम के साथ हुई. डेबू सुखपूवर्वक अपनी पत्नी के साथ रहने लगे. उनकी भजन मंडली का सिलसिला भी चलता रहा. वह मंडली के साथ धार्मिक सामाजिक समारोहों में जाते तो उन्हें चारों तरफ दलित समुदाय के बीच समस्याएं ही समस्याएं नजर आती. बेगार की समस्या छुआछूत, कर्ज, भुखमरी, कुपोषण-महामारियों के बीच चारों तरफ गन्दगी उपर से नशाखोरी और अन्धविश्वासों की परंपरा. युवा डेबू सोचने को मजबूर हुए क्योंकि इस ओर किसी भी साधू संत या महापुरुष का ध्यान नहीं गया. अब उन्हें लगने लगा कि अपने समाज के लिए कुछ करना होगा. यह दर्द हमारा है तो इनका इलाज भी हमें ही करना होगा. उन्होंने दलित समाज को सबकुछ समर्पित करने की ठान ली. उनका सोचना था कि पेट के लिए तो पशु-पंछी भी मेहनत करते हैं, अगर मैं भी यह सब करता रहा तो मुझे और पशु-पंछी में मौलिकक अंतर क्या रहेगा. क्या मैं खुद इस त्याग के काबिल हूं. साथ ही उन्हें माँ और गर्भवती पत्नी कुंताबाई व दो बेटियों अलोकाबाई, कलावती बाई के चेहरे कौंधने लगते परिवार के सभी सदस्य मेहनत-मजदूरी करने पर ही पेट भर रोटी, बदन भर कपड़ा पा पाते है. तो वह मेरे बाद भी इतना पा सकते है. अतः उन्होंने फरवरी, 1905 से घर-परिवार त्याग दिया, उनका यह त्याग जनसेवा के लिए था न कि किसी ईश्वर की भगती के लिए था. उनका त्याग समस्याओं से लडाई जैसा था. तथाकथित ईश्वर प्राप्ति से उसका कोई सम्बन्ध नहीं था.
यह भी एक संयोग है कि 29 वर्ष की आयु में तथागत बुद्ध ने भी 29 वर्ष में गृह त्याग किया था. डेबू जी के हाथ में लाठी दुसरे हाथ में मिट्टी का भिक्षा पात्र और शरीर पर फटे-पुराने चिथड़ों को गांठ-गांठ कर चीवर जैसा बना पहन कर चलि दये. बाबा जब किसी बस्ती के पास से गुजरते तो गांव भर के आवारा कुत्ते उन पर टूट पड़ते बाबा उनसे बचने की कोशिश करते फिर भी वह लहू-लुहान हो हो ही जाते.. मौसम की मार से बचने को बाबा फटे-पुराने चिथड़े पूरे जिस्म पर लपेटे रहते, एक हाथ में लाठी दुसरे में मिट्टी का ठीकरा ऐसी विचित्र भेष-बुषा को देखकर कुत्तों का भौंकना काटना लाजिमी ही था. कुत्तों द्वारा शोर होने पर बच्चों के झुण्ड चिल्लाते पागल आया. पागल आया. बाबा के इस भेष से लोगों को भी शंका होती वह उन्हें चोर-लुटे होने के भय से भगा देते...
शुरू-शुरू में उन्हें यह समस्या रही लेकिन धीरे-धीरे स्थिती सामान्य होने लगी. क्षेत्रीय दलित समाज में डेबू जी का नाम नया नहीं था. लोग उन्हें भजन गायक और उपदेशक के रूप में पहले ही जानते थे. परंतु इस समय कुछ नया उनका लिबास ही था. एक दिन वह चलते-चलते एक दलित बस्ती में चले गये, लोगों ने उनको पहली नजर में भिखारी समझा, लेकिन नजदीक आने पर उन्हें पहचान लिया, पुरी बस्ती में कुड़े के ढेर थे, जिसके कारण बदबू उड़ रही थी. मक्खियां भिनभिना रही थी. इधर-उधर सुअर लोट लगा रहे थे. डेबू बाबा बस्ती के दलितों को संबोधित करते हुए कहा भाइयों और बहनों आप अपने घरों के बगल में इस गन्दगी को देखो यह गन्दगी कई किस्म की बीमारियों का कारण बनती है भाई लोग ताश खेलते है, शराब पीने में लगे रहते है, बहनें इधर उधर बातों में अपना समय नष्ट करती हैं, जबकि हमें अपने आस-पास खाली समय में स्वच्छता अभियान चलना होगा. इसके साथ वह स्यवं जुट गये तो लोग भी उनका साथ देने लगे. शाम तक वस्ती चमक गई. इस प्रकार वह एक गांऴ की सफाई करते हुए दूसरे गांव की ओर चलते गये. वे गांव-गांव बस्ती चर्चित होने लगे. इस प्रकार अब वह गाडगेबाबा के नाम से पुकारे जाने लगे.
गाडगे बाबा की अनुयायियों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी. लोग उनके इशारे पर जन-सेवा में जुटने लगे थे. उस समय अधिकांश यात्रा पैदल घोडा या बैलगाडी से तय होती, जिसमें यात्रियों को रात पेड़ों के नीचे ही बितानी पड़ती. यात्रियों की सुविधा के लिए कुएं तालाबों का निमार्ण कराया. यह सब मानव सहयोग से उन्हीं के प्रयोग के लिए उपलब्ध हुआ न किसी ईश्वरी शक्ति के माध्यम से. बाबा श्रम करते समय दलितों तथा मजदूरो को समझाते रहते कि संसार में जो तुम निर्माण एवं विकास देखते हो यह आपके ही श्रम का फल है. बाबा का अगला कदम मरीजों के लिए अस्पतालों तथा कुष्ठरोगियों के लिए कुष्ठ आश्रमों का निर्माण कराया. जिन तथाकथित धार्मिक स्थलों पर बकरे, मूर्गे, भैसे कटते थे बाबा ने इससे हटकर जीवदया नामक संस्थाओं की स्थापना की शुरूआत की.
गाडगे बाबा मन्दिरों और मूर्ति पूजा के विरोधी थे. गाडगे बाबा कहते, पत्थर की मूर्तियों के लिए इतने आलीशान महल और देहधारी दलितों के लिए छोपड़ियां. कुछ के पास वह भी नहीं था. मन्दिरों में निठल्ले लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए तरह-तरह के अंधविश्वास फैलाते रहे. शुद्र-तिशुद्र समाज की गर्दन काटने का षडयंत्र इन्ही ठिकाणों में बुने जाते रहे है. वह मंदिर मूर्ति के बजाय जन कल्याण समाज व विकास के लिए शिक्षा के विद्या मंदिरों में विश्वास करते थे. अतः बाबा शिक्षा के विकास की ओर बढ़ने लगे और इसकी कई संस्थाएं स्थापित की गई. उन्होंने दूषित दिमागों को धोने का आंदोलन कम समय में सफलतापूर्वक किया जो आज भी एक शक्तिवान के रुप में स्थापित है. गाडगे बाबा साधुओं, संतो-महंतो और किस्म-किस्म के बाबाओं के पीछे हाथ धोकर पड़े रहे, उन्होंने उनके धार्मिक पाखण्डों की धज्जियां उड़ा दी. वह इन गद्दियों को दुकानदारी और चमत्कारों कपेट पालने का बड़ा साधन मानते थे. वह किसी तरह का गुरुमंत्र भी नहीं देते थे. ईश्वर, आत्मा पुनर्जन्म ब्राह्मधाम आदि बेकार की बातों पर उनका विश्वास नहीं था. आंखे मूंदकर राम नाम जपने को वे ढोंग मानते और ऐसे उपदेशकों को ढोंगी. वे खुद के बारे में कहते है.... मेरा कोई शिष्य नहीं है और मैं किसी का गुरू भी नहीं हू, स्वयं प्रेरणा से प्रपंच का मोह त्यागकर जो कोई इच्छा होकर दीनोदार और अनपढ़ गरीब लोगों के देवधर्म के बारे में सही ज्ञान देकर जागृत करने के काम में लगा है, वे सभी मेरे अनंत जन्म के गुरू है...
गाडगे बाबा के पास कोई संगठन या मिशन नहीं था.. इसके वजह से कुछ अनियमिताएं तथा अनुशाषन भंग की शिकायते भी. अंतः बाबा के प्रमुख अनुयायियों ने संस्थाओं में अनुशाषन बनाये रखने एवं बाबा के मिशन को तीव्रगति चहुओं फैलाने के उद्देश्य से 8 फरवरी 1952 को गाडगे मिशन की स्थापना की. बाबा भी ऐसे समर्पित थे कि उन्होंने सर्वाधिकार भी गाडगे मिशन को ही सौंप दिये... महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री बी.जी. खैर ने बाबा की सभी संस्थाओं का ट्रस्ट बना दिया जिसमें करीब 60 संस्थाएं है. आज भी यह मिशन जनसेवा को समर्पित है, इनकी अनकों योजनाए अब सहकारी सहयोग से चल रही है...
गाडगे बाबा के लाखों अनुयायी थे, जिनमें मजदूर से लेकर मंत्री तक थे. लेकिन विश्व के महापुरुषों में से एक बाबासाहब डॉ.आंबेडकर भी उनके प्रशसंक थे. यदाकदा उनसे भेंट भी करते रहते थे. बाबासाहब डॉ. आंबेकर गाडगे बाबा को बोधिसत्व सम्मान देते थे. वे उन्हें अपने गुरू ज्योतिबा फुले केबाद सबसे बढ़ा त्यागी जनसेवक मानते थे.
बाबासाहब डॉ. आंबेडकर, संत गाडगे के प्रयासों से बहुत प्रभावित थे. कभी-कभी वे संत गाडगे का प्रवचन सुनने जाते. संत गाडगे बाबा साहब के जाने पर बाबा साहब की जय के नारे लगवाते. मनमाड में 1942-43 ई.में गाडगे बाबा ने बाबासाहेब को शोषितो-पीडितों का उद्धारक कहा. 14 जुलाई 1949 को संत गाडगे की बीमारी पर विधिमंत्री के रूप में बाबासाहेब उन्हें अस्पताल में देखने गये. बाबासाहब ने शाल ओढकर संत गाडगे को सम्मानित किया. संत गाडगेमहाराज ने पंढरपुर की धर्मशाला, समाजहित में बाबासाहेब को सौंप दी.
गाडगे बाबा के अन्य कई समकालीन नेताओं से अच्छे संबंध थे लेकिन बाबा साहब आंबेडकर जैसे सम्बन्ध किसी के साथ नहीं थे. दोनो में अनुयायियों जैसा नहीं बल्कि एक-दूसरे में प्रशंसकों का रिश्ता था. यही कारण है की गाडगेबाबा ने अछूतों के लिए बनाई गई पंढरपुर की चोखामेला धर्मशाला महात्मा गांधी के स्थान पर डॉ. आंबेडकर के हवाले की. इन दोनो महाशक्तियों का मिलन 14 जुलाई 1949 का उल्लेख मिलता है. गाडगे बाबा और डॉ. आंबेडक एक-दूसरे सेकई बार मिले. गाडगे बाबा डॉ. आंबेडकर को बहुजनों का मसीहा मानते थे. डॉ. आंबेडकर के निधन से गाडगेबाबा अंदर से टूट गये और उनका स्वास्थ्य गिरता गया.. वह अपने अनुयायियों को बुलाकर समझाते कि जितने त्याग, ईमानदारी पवित्रता की भावना से यह सेवा कार्य आज तक होता आया है आगे भी होता रहेगा तो मानवता का भला होगा. इस कार्य को जारी रखने की कोशिश में लगे रहना. डॉ आंबेडकर की मृत्यू के ठीक 14 दिन के बाद (20 दिसंबर 1956) को संसार से विदा हो गये..
उसी काल में शिक्षा से वंचित रखे गये हिन्दू समाज को सभी दलित जातियों में अज्ञानता, अंधविश्वास, गरीबी, शराबखोरी आदि विद्यमान थे. गंदे वातावरण के रहने एवं अच्छे भोजन के अभाव में बच्चे कुपोषण का शिकार हो जाते थे. गरीबी को झेलते दलितों को बेगार के नाम पर कमरतोड़ मेहनत के साथ जलालत भी मुफ्त में झेलनी पड़ती थी. इन अथाह दुःखो को शोषित समाज सदियों से पिछले जन्मों के कर्मों का फल और भाग्य का लेखा-जोखा समझ कर झेल रहा था. इसलिए विद्रोह का उनके अंदर माद्या ही नहीं बचा था. शोषित समाज विवेकशून्य होकर पशुतूल्य जीवन जी रहा था. उन दिनों क्षेत्र में निर्गुण परंपरा के संत नाम देव चोखामेला आदि का बड़ा प्रभाव था. भगत मंडलियों द्वारा उनकी वाणी गाई जाती. मंडली के लोग संतों के उपदेशों की व्याख्या भी करते थे.. इसका बालक डेबू पर प्रभाव शुरू होने लगा था...
डेबू (गाडगेबाबाजी) भजनों के अलावा दलितों में अंधविश्वासों की बुरी परंपरा के प्रति भी समाज को सचेत करते थे, उन्हें कर्ज न लेने की हिदायतें देते थे. साफ-सफाई के महान महत्त्व को भी समझाते, चरित्र निर्माण पर जोर देते हुक्का-बीड़ी पीने वाले को कोसते.. धीरे-धीरे डेबूजी की मेहनत रंग लाने लगी. अब दलित लोग उनकी बातों की चर्चा घर-परिवार में करने लगे. दापुरे गांव के एक गरीब धोबी थनाजी खल्लारकर की बेटी कुंताबाई के साथ उनकी शादी धूमधाम के साथ हुई. डेबू सुखपूवर्वक अपनी पत्नी के साथ रहने लगे. उनकी भजन मंडली का सिलसिला भी चलता रहा. वह मंडली के साथ धार्मिक सामाजिक समारोहों में जाते तो उन्हें चारों तरफ दलित समुदाय के बीच समस्याएं ही समस्याएं नजर आती. बेगार की समस्या छुआछूत, कर्ज, भुखमरी, कुपोषण-महामारियों के बीच चारों तरफ गन्दगी उपर से नशाखोरी और अन्धविश्वासों की परंपरा. युवा डेबू सोचने को मजबूर हुए क्योंकि इस ओर किसी भी साधू संत या महापुरुष का ध्यान नहीं गया. अब उन्हें लगने लगा कि अपने समाज के लिए कुछ करना होगा. यह दर्द हमारा है तो इनका इलाज भी हमें ही करना होगा. उन्होंने दलित समाज को सबकुछ समर्पित करने की ठान ली. उनका सोचना था कि पेट के लिए तो पशु-पंछी भी मेहनत करते हैं, अगर मैं भी यह सब करता रहा तो मुझे और पशु-पंछी में मौलिकक अंतर क्या रहेगा. क्या मैं खुद इस त्याग के काबिल हूं. साथ ही उन्हें माँ और गर्भवती पत्नी कुंताबाई व दो बेटियों अलोकाबाई, कलावती बाई के चेहरे कौंधने लगते परिवार के सभी सदस्य मेहनत-मजदूरी करने पर ही पेट भर रोटी, बदन भर कपड़ा पा पाते है. तो वह मेरे बाद भी इतना पा सकते है. अतः उन्होंने फरवरी, 1905 से घर-परिवार त्याग दिया, उनका यह त्याग जनसेवा के लिए था न कि किसी ईश्वर की भगती के लिए था. उनका त्याग समस्याओं से लडाई जैसा था. तथाकथित ईश्वर प्राप्ति से उसका कोई सम्बन्ध नहीं था.
यह भी एक संयोग है कि 29 वर्ष की आयु में तथागत बुद्ध ने भी 29 वर्ष में गृह त्याग किया था. डेबू जी के हाथ में लाठी दुसरे हाथ में मिट्टी का भिक्षा पात्र और शरीर पर फटे-पुराने चिथड़ों को गांठ-गांठ कर चीवर जैसा बना पहन कर चलि दये. बाबा जब किसी बस्ती के पास से गुजरते तो गांव भर के आवारा कुत्ते उन पर टूट पड़ते बाबा उनसे बचने की कोशिश करते फिर भी वह लहू-लुहान हो हो ही जाते.. मौसम की मार से बचने को बाबा फटे-पुराने चिथड़े पूरे जिस्म पर लपेटे रहते, एक हाथ में लाठी दुसरे में मिट्टी का ठीकरा ऐसी विचित्र भेष-बुषा को देखकर कुत्तों का भौंकना काटना लाजिमी ही था. कुत्तों द्वारा शोर होने पर बच्चों के झुण्ड चिल्लाते पागल आया. पागल आया. बाबा के इस भेष से लोगों को भी शंका होती वह उन्हें चोर-लुटे होने के भय से भगा देते...
शुरू-शुरू में उन्हें यह समस्या रही लेकिन धीरे-धीरे स्थिती सामान्य होने लगी. क्षेत्रीय दलित समाज में डेबू जी का नाम नया नहीं था. लोग उन्हें भजन गायक और उपदेशक के रूप में पहले ही जानते थे. परंतु इस समय कुछ नया उनका लिबास ही था. एक दिन वह चलते-चलते एक दलित बस्ती में चले गये, लोगों ने उनको पहली नजर में भिखारी समझा, लेकिन नजदीक आने पर उन्हें पहचान लिया, पुरी बस्ती में कुड़े के ढेर थे, जिसके कारण बदबू उड़ रही थी. मक्खियां भिनभिना रही थी. इधर-उधर सुअर लोट लगा रहे थे. डेबू बाबा बस्ती के दलितों को संबोधित करते हुए कहा भाइयों और बहनों आप अपने घरों के बगल में इस गन्दगी को देखो यह गन्दगी कई किस्म की बीमारियों का कारण बनती है भाई लोग ताश खेलते है, शराब पीने में लगे रहते है, बहनें इधर उधर बातों में अपना समय नष्ट करती हैं, जबकि हमें अपने आस-पास खाली समय में स्वच्छता अभियान चलना होगा. इसके साथ वह स्यवं जुट गये तो लोग भी उनका साथ देने लगे. शाम तक वस्ती चमक गई. इस प्रकार वह एक गांऴ की सफाई करते हुए दूसरे गांव की ओर चलते गये. वे गांव-गांव बस्ती चर्चित होने लगे. इस प्रकार अब वह गाडगेबाबा के नाम से पुकारे जाने लगे.
गाडगे बाबा की अनुयायियों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी. लोग उनके इशारे पर जन-सेवा में जुटने लगे थे. उस समय अधिकांश यात्रा पैदल घोडा या बैलगाडी से तय होती, जिसमें यात्रियों को रात पेड़ों के नीचे ही बितानी पड़ती. यात्रियों की सुविधा के लिए कुएं तालाबों का निमार्ण कराया. यह सब मानव सहयोग से उन्हीं के प्रयोग के लिए उपलब्ध हुआ न किसी ईश्वरी शक्ति के माध्यम से. बाबा श्रम करते समय दलितों तथा मजदूरो को समझाते रहते कि संसार में जो तुम निर्माण एवं विकास देखते हो यह आपके ही श्रम का फल है. बाबा का अगला कदम मरीजों के लिए अस्पतालों तथा कुष्ठरोगियों के लिए कुष्ठ आश्रमों का निर्माण कराया. जिन तथाकथित धार्मिक स्थलों पर बकरे, मूर्गे, भैसे कटते थे बाबा ने इससे हटकर जीवदया नामक संस्थाओं की स्थापना की शुरूआत की.
गाडगे बाबा मन्दिरों और मूर्ति पूजा के विरोधी थे. गाडगे बाबा कहते, पत्थर की मूर्तियों के लिए इतने आलीशान महल और देहधारी दलितों के लिए छोपड़ियां. कुछ के पास वह भी नहीं था. मन्दिरों में निठल्ले लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए तरह-तरह के अंधविश्वास फैलाते रहे. शुद्र-तिशुद्र समाज की गर्दन काटने का षडयंत्र इन्ही ठिकाणों में बुने जाते रहे है. वह मंदिर मूर्ति के बजाय जन कल्याण समाज व विकास के लिए शिक्षा के विद्या मंदिरों में विश्वास करते थे. अतः बाबा शिक्षा के विकास की ओर बढ़ने लगे और इसकी कई संस्थाएं स्थापित की गई. उन्होंने दूषित दिमागों को धोने का आंदोलन कम समय में सफलतापूर्वक किया जो आज भी एक शक्तिवान के रुप में स्थापित है. गाडगे बाबा साधुओं, संतो-महंतो और किस्म-किस्म के बाबाओं के पीछे हाथ धोकर पड़े रहे, उन्होंने उनके धार्मिक पाखण्डों की धज्जियां उड़ा दी. वह इन गद्दियों को दुकानदारी और चमत्कारों कपेट पालने का बड़ा साधन मानते थे. वह किसी तरह का गुरुमंत्र भी नहीं देते थे. ईश्वर, आत्मा पुनर्जन्म ब्राह्मधाम आदि बेकार की बातों पर उनका विश्वास नहीं था. आंखे मूंदकर राम नाम जपने को वे ढोंग मानते और ऐसे उपदेशकों को ढोंगी. वे खुद के बारे में कहते है.... मेरा कोई शिष्य नहीं है और मैं किसी का गुरू भी नहीं हू, स्वयं प्रेरणा से प्रपंच का मोह त्यागकर जो कोई इच्छा होकर दीनोदार और अनपढ़ गरीब लोगों के देवधर्म के बारे में सही ज्ञान देकर जागृत करने के काम में लगा है, वे सभी मेरे अनंत जन्म के गुरू है...
गाडगे बाबा के पास कोई संगठन या मिशन नहीं था.. इसके वजह से कुछ अनियमिताएं तथा अनुशाषन भंग की शिकायते भी. अंतः बाबा के प्रमुख अनुयायियों ने संस्थाओं में अनुशाषन बनाये रखने एवं बाबा के मिशन को तीव्रगति चहुओं फैलाने के उद्देश्य से 8 फरवरी 1952 को गाडगे मिशन की स्थापना की. बाबा भी ऐसे समर्पित थे कि उन्होंने सर्वाधिकार भी गाडगे मिशन को ही सौंप दिये... महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री बी.जी. खैर ने बाबा की सभी संस्थाओं का ट्रस्ट बना दिया जिसमें करीब 60 संस्थाएं है. आज भी यह मिशन जनसेवा को समर्पित है, इनकी अनकों योजनाए अब सहकारी सहयोग से चल रही है...
गाडगे बाबा के लाखों अनुयायी थे, जिनमें मजदूर से लेकर मंत्री तक थे. लेकिन विश्व के महापुरुषों में से एक बाबासाहब डॉ.आंबेडकर भी उनके प्रशसंक थे. यदाकदा उनसे भेंट भी करते रहते थे. बाबासाहब डॉ. आंबेकर गाडगे बाबा को बोधिसत्व सम्मान देते थे. वे उन्हें अपने गुरू ज्योतिबा फुले केबाद सबसे बढ़ा त्यागी जनसेवक मानते थे.
बाबासाहब डॉ. आंबेडकर, संत गाडगे के प्रयासों से बहुत प्रभावित थे. कभी-कभी वे संत गाडगे का प्रवचन सुनने जाते. संत गाडगे बाबा साहब के जाने पर बाबा साहब की जय के नारे लगवाते. मनमाड में 1942-43 ई.में गाडगे बाबा ने बाबासाहेब को शोषितो-पीडितों का उद्धारक कहा. 14 जुलाई 1949 को संत गाडगे की बीमारी पर विधिमंत्री के रूप में बाबासाहेब उन्हें अस्पताल में देखने गये. बाबासाहब ने शाल ओढकर संत गाडगे को सम्मानित किया. संत गाडगेमहाराज ने पंढरपुर की धर्मशाला, समाजहित में बाबासाहेब को सौंप दी.
गाडगे बाबा के अन्य कई समकालीन नेताओं से अच्छे संबंध थे लेकिन बाबा साहब आंबेडकर जैसे सम्बन्ध किसी के साथ नहीं थे. दोनो में अनुयायियों जैसा नहीं बल्कि एक-दूसरे में प्रशंसकों का रिश्ता था. यही कारण है की गाडगेबाबा ने अछूतों के लिए बनाई गई पंढरपुर की चोखामेला धर्मशाला महात्मा गांधी के स्थान पर डॉ. आंबेडकर के हवाले की. इन दोनो महाशक्तियों का मिलन 14 जुलाई 1949 का उल्लेख मिलता है. गाडगे बाबा और डॉ. आंबेडक एक-दूसरे सेकई बार मिले. गाडगे बाबा डॉ. आंबेडकर को बहुजनों का मसीहा मानते थे. डॉ. आंबेडकर के निधन से गाडगेबाबा अंदर से टूट गये और उनका स्वास्थ्य गिरता गया.. वह अपने अनुयायियों को बुलाकर समझाते कि जितने त्याग, ईमानदारी पवित्रता की भावना से यह सेवा कार्य आज तक होता आया है आगे भी होता रहेगा तो मानवता का भला होगा. इस कार्य को जारी रखने की कोशिश में लगे रहना. डॉ आंबेडकर की मृत्यू के ठीक 14 दिन के बाद (20 दिसंबर 1956) को संसार से विदा हो गये..
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