यह मुरझाया हुआ फूल है,इसका हृदय दुखाना मत ।
स्वयं बिखरने वाली इसकी,पंखुड़ियाँ बिखराना मत ॥ जीवन की अन्तिम घड़ियों में, देखो, इसे रुलाना मत ॥
अगर हो सके तो ठण्डी -बूँदें टपका देना, प्यारे ।
जल न जाए संतप्त हृदय,शीतलता ला देना प्यारे ॥
- सुभद्रा कुमारी चौहान
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साहिल को अपनाना हो तो, तूफ़ानों से हाथ मिलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे, उन काँटों में फूल खिलाना।
किसे पता सुनसान सफर में, कितने रेगिस्तान मिलेंगे।
कौन बताए किस पत्थर के, सीने से झरने निकलेंगे।
प्यास अगर हद से बढ़ जाए, आँसू पीकर काम चलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे, उन काँटों में फूल खिलाना।
मंज़िल तक तो साथ न देंगे, आते जाते साँझ सवेरे।
अपनी-अपनी चाल चलेंगे, कभी उजाले कभी अँधेरे।
रातें राह दिखाएँगी, तू बस छोटा-सा दीप जलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे, उन काँटों में फूल खिलाना।
ज़ोर-शोर से उमड़-घुमड़ कर, मौसम की बारात उठेगी।
धीरे-धीरे रिमझिम होगी लेकिन पहले उमस बढ़ेगी।
सावन जम कर बरसेगा, दो पल झूलों की बात चलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे, उन काँटों में फूल खिलाना।
घड़ी बहारों की आने दे, भर लेना चाहत की झोली।
आवारा पागल भँवरे से, मस्त पवन इठला कर बोली।
कलियों का मन डोल उठेगा,ज़रा सँभल कर डाल हिलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे,उन काँटों में फूल खिलाना।
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शोर भारी हो रहा है हम कहें तो क्या कहें?
भीड़ में कुछ खो रहा है हम कहें तो क्या कहें?
बाग में बैठी हुई हैं बन्दरों की टोलियाँ,
और माली सो रहा है हम कहें तो क्या कहें?
घर उजड़ता देख कर हँसते रहे जो देर तक,
साथ उनके वो रहा है हम कहें तो क्या कहें?
लोग कैसे शातिरों को रहनुमा कहने लगे,
झूठ को सच ढो रहा है हम कहें तो क्या कहें?
हाथ में उसके जमीं आई न आया आसमाँ,
एक बादल रो रहा है हम कहें तो क्या कहें?
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जोड़ ले जो वक्त ने दो ग़म दिए।
ये अँधेरे हैं उजालों के लिए।
आस हो या प्यास अपने साथ ले,
आदमी वो क्या कि जो तनहा जिए।
उम्र भर सब से शिकायत ही रही,
अब गुज़ारा कर बिना शिकवा किए।
मस्त आँखों से छलकते जाम पी,
बैठ कर आँसू पिए तो क्या पिए।
आँधियों का रुख बदलने दे ज़रा,
खुद हवा आ कर जलाएगी दिये।
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दिन गया ठहरे रहे हालात,
फिर वही सपने अकेली रात।
वादियाँ गुमसुम दिशायें मौन,
कौन करता धड़कनों से बात।
फैसलों पर उलझनों का बोझ,
हसरतों पर बेबसी तैनात।
छल गई चौथे पहर के साथ,
घोर तम को किरन की सौग़ात।
दूर घर से रह न पाई और,
घूम फिर कर लौट आई प्रात।
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रात सुलाती हम सो जाते नींद कभी ऐसे भी आती
सोकर सपनों में खो जाते नींद कभी ऐसे भी आती अपने आंगन की तस्वीरें धुंधली सी लगने से पहले आंसू आँखों को धो जाते नींद कभी ऐसे भी आती करते-करते बात किसी को जी भर कर अपना कर लेते और उसी के खुद हो जाते नींद कभी ऐसे भी आती नीचे आकर लोरी गाने और दिलों में बस जाने के संदेसे परियों को जाते नींद कभी ऐसे भी आती जिनसे नजरों को राहत हो वे नजरों के आगे रहते पलकें मुंद जातीं तो जाते नींद कभी ऐसे भी आती
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रोज खुले में टकराते हैं मेरी रातें उनके सपने
अक्सर घायल हो जाते हैं मेरी रातें उनके सपने बेखटके चलती रहती हैं बेहूदा बेढंगी बातें चुप रहने से कतराते हैं मेरी रातें उनके सपने शिकवे हैं उलझन हैं गम हैं लेकिन कैसी मज़बूरी है रिश्ते तोड़ नहीं पाते हैं मेरी रातें उनके सपने सूनी राह भटक जाता हूँ इनका पीछा करते-करते मुझको पागल बतलाते हैं मेरी रातें उनके सपने अपनी ही सूरत से खुद को मैं पहचान नहीं पाता हूँ आईना जब ले आते हैं मेरी रातें उनके सपने
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भूख का मतलब गुज़ारा हो गया है,
आदमी फिर बेसहारा हो गया है।
भीड़ है बेहद नुकीली तंग राहें
ज़िंदगी का ये नज़ारा हो गया है।
हैं थके पर दौड़ना भी है ज़रूरी,
हाल क्या से क्या हमारा हो गया है।
आजकल दिन भी बड़े हैं रात लंबी,
खूब जीने का सहारा हो गया है।
दूर कलियों से बहुत रहने लगा है,
बागबाँ को खार प्यारा हो गया है।
जी लिए मँझधार में भी इस अदा से,
हर लहर हमको किनारा हो गया है।
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जो दिल को बहला जाती थी वो मीठी तकरार कहाँ है
कोई हम से पूछ रहा है पहले जैसा प्यार कहाँ है. पंख नहीं फिर भी धरती से पैर नहीं लगते हैं जिसके उसके पैरों तक जा पायें पैरों की रफ़्तार कहाँ है. अपने शहरों तक गांवों की कोई बात नहीं आती है सावन को कैसे समझाएं उसका मेघ-मल्हार कहाँ है. कल को आपस में मिलजुल कर सब अपने बेगाने उसके छुटकारे का जश्न मनाएं ऐसा भी बीमार कहाँ है. वो दिन कब के बीत चुके जब ना के पीछे हाँ होती थी इकरारों की खुशबू लाये अब ऐसा इनकार कहाँ है. |
Saturday, October 8, 2016
कविता संग्रह
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