Tuesday, October 18, 2016

ज्ञानसार

विपरीत ज्ञान का नाम अविद्या है। अथवा जैसे वस्तु हो उसको वैसी न जानना किन्तु उससे अन्य प्रकार की जानना, उसका नाम अद्य है। लोक में इसको मूर्खता कहते हैं, शास्त्रकार इसी को अविवेक, अविचार, अज्ञान, मोह आदि नामों से पुकारते हैं। यह अविद्या यानी मूर्खता ही समस्त अनर्थों का कारण है। इसी के कारण से मनुष्य, चतुर मनुष्य, अपने को पंडित मानने वाले भी आपको यानी अपने स्वरूप को भी नहीं जानते! बालक से भी पूछा जाय कि तू देह है या तेरा देह है, तो उत्तर देता है कि मेरा देह है, मैं देह नहीं हूँ, इससे स्पष्ट है। कि देह से, देह का मालिक, देह वाला मित्र है। फिर भी सब आपको देह ही समझते हैं, देह ही मानते हैं देह ही जानते हैं, और देह ही कहते हैं।
विद्वानों का वचन है कि “जो मूढ़ आप कुछ है, मानता अपने को कुछ है, आत्मा को-आपको चुराने वाले उस चोर ने कौन सा पाप नहीं किया यानी सब पाप कर लिये। यह अविद्या ही सब पापों की कराने वाली है। इसी के कारण से मनुष्य आपको भूल कर देह आदि को आत्मा यानी अपना स्वरूप मानने लगता है और जन्म-मरण के चक्र में पड़कर अनेक योनियों में जन्म लेकर अनेक दुःख भोगता है किन्तु जीव के साथ जीती है।
विद्वानों का वचन है कि संसार में मूर्खता ही दुःख है, इसके सिवाय अन्य कोई दुःख नहीं है, सर्प का काटा एक बार मरता है, विष खाने वाला भी एक ही बार मरता है, अविद्या तो बार-बार मरती है, करोड़ों जन्म तक भी जीव इससे छूट नहीं सकता अथवा यों कहिए कि इससे छूटने की कभी भी आशा ही नहीं है। कई विद्वान कहते हैं कि-यह अविद्या घोर अन्धेरी रात है इसमें विचरने वाला करोड़ों वर्षों युगों तक ठोकरें खाता रहता है। यह अविद्या भीषण पिशाचिनी है, जो निरन्तर प्राणियों का माँस खाती रहती है। क्या यह अविद्या भयंकर नहीं है? जो अपने में पड़ने वाले जीवों को डुबाती उछालती हुई दुःखी करती रहती है। यह अविद्या क्षय रोग की बीमारी है, घुला-घुला कर सुखा कर जीवों को मारती रहती है, चैन से सोने नहीं देती! यह सब कथन ठीक ही हैं, अविद्या ऐसी ही है। समस्त अवगुणों की हानि और समस्त शुभ गुणों को चुराने वाली यह अविद्या ही है कोई धीर, वीर ही, जिसके ऊपर ईश्वर की कृपा हो, इस डाकिनी के पंजे में से छूट सकता है नहीं तो सब उसके पंजे में फँसे ही रहते हैं निकल नहीं सकते।
निकल कैसे सकते हैं? कोई एक दो चुड़ैल के वश हों, तो निकल सकते हैं, यहाँ तो यह भूतनी सबके सिर के ऊपर चढ़ी हुई यह पिशाचिनी सबको नचा रही है, और आप उनका तमाशा देख रही हैं। कोई स्त्री की कामना से दुःखी होकर रो रहा है, कोई पुत्र की इच्छा से आँसू बहा रहा है, इतना ही नहीं, दूसरे से लड़ रहा है, कट रहा है, मर रहा है, दुःखी हो रहा है। अविद्या ने सबकी आँखें बन्द कर दी हैं, सब अन्धे कर दिये हैं, इसलिये कहीं कोई किसी से रोग कर रहा है, कोई किसी से द्वेष कर रहा है, कोई किसी की चोरी कर रहा है, कोई किसी की जमीन दबाना चाहता है। सारांश यह है कि आंखें बन्द होने के कारण सब ठोकरें खा रहे हैं, हाय-हाय कर रहे हैं, जिसके करने से दुःख उठाते हैं, उसी को बारम्बार करते हैं सुखी नहीं होते, उलटे दुःखी ही होते हैं, फिर भी दुःख के कार्य को नहीं छोड़ते, यह आश्चर्य है। इस प्रकार आप सभी इस अविद्या के वश दुःखी हैं, करोड़ों में कोई विरला एक विवेकी ही इससे मुक्त हो तो भले हो।
इस अविद्या की निवृत्ति विद्या से होती है। सत् शास्त्रों का पठन-पाठन करने से और सन्त महात्माओं का संग करने से विद्या की प्राप्ति होती है, विद्या की प्राप्ति होते ही, जैसे उजाले के होते ही अन्धेरा दूर हो जाता है, इसी प्रकार अविद्या दूर हो जाती है, जैसे आँख बन जाने से मनुष्य सब वस्तुऐ देखने लगता है, इसी प्रकार भाग्यवान अधिकारी सत्य असत्य का विवेकी हो जाता है विवेकी पुरुष न तो कभी शोक करता है, न मोह करता है न किसी से भय करता है, न किसी से वैर करता है, किन्तु निःशंक, निर्मोह, निर्भय और निडर होकर सुख पूर्वक विचरता है। अब तक जो दुःखी और दीन नहीं होता, किन्तु सुखी, धीर, वीर और उदार हो जाता है। जैसे कल्प करने से मनुष्य फिर नये सिरे से वृद्ध से युवा हो जाता है। उसी प्रकार यह धीर पुरुष काया पलट हो जाता है। कल्प करने से तो स्थूल शरीर ही पुष्ट होता है विद्या से तो सूक्ष्म और को रण शरीर स्वस्थ हो जाते हैं, इतना ही नहीं किन्तु आत्मा अनात्मा का विवेक होने से अनात्मा से वैराग्य हो जाता है और धीर पुरुष आत्मा का अनुसंधान करता हुआ अजर अमर हो जाता है।
सत्शास्त्रों के पढ़ने से और सत्संग करने से विद्या उदय होती है, अविद्या अस्त हो जाती है, इसलिये श्रेयकांक्षी को सत् शास्त्र का अवलोकन और संत महात्माओं का सत् कर्तव्य है। ऐसा करने से विचार रूपी सूर्य उदय होता है, अविद्या रूपी रात्रि भाग जाती है, अविद्या रूपी रात्रि के भाग जाने पर उसमें विचरने वाले काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, असूया, ममता, अहंता, कृपणता आदि अशुभ गुण भाग जाते हैं और उनके भागते ही शर्म, दम, शान्ति, सन्तोष, दया, क्षमा, समता, एकाग्रता, वीरता, धीरता, उदारता, विवेक, वैराग्य आदि शुभ गुण अधिकारी के हृदय में वास करने लगते हैं। इनके वास करने से अन्तःकरण इतना पवित्र और प्रसन्न हो जाता है यानी शुद्ध हो जाता है कि मल-विक्षेप और आवरण तीनों अन्तःकरण के दोष दूर हो जाते हैं, जैसी वस्तु वैसी ही वस्तु दिखाई देने लगती है। इसी का नाम सम्यक् है सम्यक् ज्ञान मात्र ही सुखी और स्वतंत्र होने का एक उपाय है। सत्शास्त्र और सत्संग से सम्यक् ज्ञान प्राप्त होता है, ऐसा जानकर चतुर पुरुष कुशास्त्र और कुसंग को त्याग करके सत्शास्त्र और सत्संग का ही सेवन करता है।
जैसे सिद्धाँजन का सेवन करने से गड़ा हुआ धन दिखायी देने लगता है, इसी प्रकार सत् शास्त्र और सत्संग से छुपा हुआ आत्म तत्व प्रत्यक्ष हो जाता है। जैसे सूर्य के निकलने से कमल खिल जाता है, इसी प्रकार इन दोनों के प्राप्त होने से भाग्यवान अधिकारी का हृदय कमल विकसित हो जाता है। जैसे चन्द्रमा के उदय होने से दिन का ताप दूर हो जाता। जैसे अग्नि सेवन करने से जाड़ा दूर हो जाता है, इसी प्रकार इन दोनों के सेवन से अविद्या रूप जड़ता दूर हो जाती है।
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मनुष्य ईश्वर का उत्तराधिकारी एवं राजकुमार है। आत्मा परमात्मा का ही अंश है। अपने पिता के सम्पूर्ण गुण और वैभव बीज रूप उसमें मौजूद है। जलते हुए अंगार में जो शक्ति है वही छोटी चिनगारी में भी मौजूद है। इतना होते हुए भी हम देखते हैं कि मनुष्य बड़ी निम्न कोटि का जीवन बिता रहा है। दिव्य होते हुए भी दैवी सम्पदाओं से वंचित हो रहा है।
परमात्मा सत् है, परन्तु उसके पुत्र हम असत् में निमग्न हो रहे हैं। परमात्मा आनन्द स्वरूप है हम दुःखों से संतप्त हो रहे हैं। ऐसी उल्टी परिस्थिति उत्पन्न हो जाने का कारण क्या है। यह विचारणीय प्रश्न है। जबकि ईश्वर का अविनाशी राजकुमार अपने पिता के इस सुरम्य उपवन संसार में विनोद क्रीड़ा करने के लिये प्राया हुआ है तो उसकी जीवन यात्रा आनन्दमयी न रहकर दुख दरिद्र से भरी हुई क्यों बन गई है? यह एक विचारणीय पहेली है।
अग्नि स्वभावतः उष्ण और प्रकाशवान् होती है, परन्तु जब जलता हुआ अंगार बुझने लगता है तो उसका ऊपरी भाग राख से ढ़क जाता है। तब उस राख से ढके हुए अंगार में वे दोनों ही गुण दृष्टिगोचर नहीं होते जो अग्नि में स्वभावतः होते हैं। बुझा हुआ, राख से ढ़का हुआ अंगार न तो गरम होता है और न प्रकाशवान्। वह काली-कलूटी कुरूप भस्म का ढेर मात्र बना हुआ पड़ा रहता है। जलते हुए अंगार को इस दुर्दशा में पहुँचाने का कारण वह भस्म है जिसने उसे चारों ओर से घेर लिया है, यदि यह राख का परत ऊपर से हटा दिया जाय तो भीतरी भाग में फिर वैसी ही अग्नि मिल सकती है जो अपने उष्णता और प्रकाश के गुण से सुसम्पन्न हो।
परमात्मा सच्चिदानन्द है। वह आनन्द से ओत-प्रोत है। उसका पुत्र आत्मा भी आनन्दमय ही होना चाहिए। जीवन की विनोद क्रीड़ा करते हुए इस नन्दनवन में उसे आनन्द ही आनन्द अनुभव होना चाहिए। इस वास्तविकता को छिपाकर जो उसके बिल्कुल उलटी दुःख-दरिद्र और क्लेश-कलह की स्थिति उत्पन्न कर देती है वह कुबुद्धि रूपी राख है। जैसे अंगार को राख ढ़क कर उसको अपनी स्वाभाविक स्थिति से वंचित कर देती है वैसे ही आत्मा की परम सात्विक, परम आनन्दमयी स्थिति को यह कुबुद्धि ढ़क लेती है। और मनुष्य निकृष्ट कोटि का दीन-हीन जीवन व्यतीत करने लगता है।
‘कुबुद्धि’ को ही माया, असुरता, अविद्या, आदि नामों से पुकारते हैं। यह आवरण मनुष्य की मनोभूमि पर जितना मोटा चढ़ा होता है वह उतना ही दुखी पाया जाता है। शरीर पर मैल की जितनी मोटी तह जम रही होगी उतनी ही खुजली मचेगी और दुर्गन्ध उड़ेगी, यह तह जितनी ही कम होगी उतनी ही खुजली और दुर्गन्ध कम होगी। शरीर में दूषित, विजातीय विष एकत्रित न हो तो किसी प्रकार को कोई रोग न होगा। पर यह विकृतियाँ जितनी अधिक जमा होती जायेगी शरीर उतना ही रोग-ग्रस्त होता जायेगा। ‘कुबुद्धि’ एक प्रकार से शरीर पर जमी हुई मैल की तह या रक्त में भरी हुई विषैली विकृति है जिसके कारण खुजली, दुगन्ध, बीमारी तथा अनेक प्रकार की अन्य असुविधाओं के समान जीवन में नाना प्रकार की पीड़ा, चिन्ता, बेचैनी और परेशानी उत्पन्न होती रहती है।
लोग नाना प्रकार के कष्टों से दुखी हैं। कोई बीमारी से कराह रहा है, कोई गरीबी से दुखी है, किसी का दाम्पत्य जीवन कष्टमय है, किसी को सन्तान की चिंता है, व्यापार में घाटा, उन्नति में अड़चन, असफलता की आशंका, मुकदमा, शत्रु के आक्रमण का भय, अन्याय का उत्पीड़न, मित्रों का विश्वासघात, दहेज की चिन्ता, प्रियजनों का विछोह, आदि का दुख आये दिन दुखी बनाये रहता है। व्यक्तिगत जीवन की भाँति धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में भी अशान्ति कम नहीं है। यदि कोई व्यक्ति अपने आपको बहुत सम्भाल कर रखे, तो भी व्यापक बुराइयों एवं कुव्यवस्थाओं के कारण उसकी शान्ति नष्ट हो जाती है और जीवन का आनन्दमय उद्देश्य प्राप्त करने में बाधा पड़ती है।
दुःख चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक उनका कारण एक ही है और वह है कुबुद्धि। संसार में इतने प्रचुर परिमाण में सुख-साधन भरे पड़े हैं कि इन खिलौनों से खेलते-खेलते सारा जीवन हँसी-खुशी बीत सकता है। मनुष्य को ऐसा अमूल्य शरीर, मस्तिष्क एवं इन्द्रिय समूह मिला हुआ है कि इनके द्वारा साधारण वस्तुओं एवं परिस्थितियों में भी इतना आनन्द किया जा सकता है कि स्वर्ग भी उसकी तुलना में तुच्छ सिद्ध हो। इतना सब होते हुए भी लोग बेहाल दुःखी हैं, जिन्दगी में कोई रस नहीं, मौत के दिन पूरे करने के लिये समय को एक बोझ की तरह काटा जा रहा है। मन में चिन्ता, बेबसी, भय, दीनता और बेचैनी की अग्नि दिन भर जलती रहती है। जिसके कारण पुराणों में वर्जित नारकीय यात्राओं जैसी व्यथाएं सहनी पड़ती हैं।
यह संसार चित्र सा सुन्दर है इसमें कुरूपता का एक कण भी नहीं, यह विश्व विनोदमयि क्रीड़ा का प्राँगण है इसमें चिन्ता और भय के लिए कोई स्थान नहीं, यह जीवन आनन्द का निर्वाध निर्भर है इसमें दुःखी रहने का कोई कारण नहीं। स्वर्गादपि गरीयसी इस जननी जन्म भूमि में वे सभी तत्व मौजूद हैं जो मानस की कली को खिलाते हैं। इस सुरदुर्लभ नर तन की रचना ऐसे सुन्दर ढंग से हुई है कि साधारण वस्तुओं को वह अपने स्पर्श मात्र से ही सरस बना लेता है। परमात्मा का राजकुमार आत्मा इस संसार में क्रीड़ा कल्लोल करने आता है। उसे शरीर रूपी रथ, इन्द्रियों रूपी सेवक, मस्तिष्क रूपी मंत्री देकर परमात्मा ने यहाँ इसलिये भेजा है कि इस नन्दन वन जैसे संसार की शोभा को देखे, उसमें सर्वत्र बिखरी हुई सरसता का स्पर्श और आस्वादन करे। प्रभु के इस महान उद्देश्य में बाधा उपस्थित करने वाली, जीवन के महान प्रयोजन को नष्ट करने वाली, स्वर्ग को नरक बना देने वाली कोई वस्तु है तो वह केवल ‘कुबुद्धि ही है’।
स्वस्थता हमारी स्वाभाविक स्थिति है, बीमारी अस्वाभाविक एवं अपनी भूल से पैदा हुई वस्तु है। पशु-पक्षी जो प्रकृति का स्वाभाविक अनुसरण करते हैं, बीमार नहीं पड़ते, वे सदा स्वास्थ्य का सुख भोगते हैं पर मनुष्य नाना प्रकार की मिथ्या आहार-विहार द्वारा बीमारी को न्यौता बुलाता है। यदि वह भी अपना आहार-विहार प्रकृति के अनुकूल रखे तो कभी बीमार न पड़े। इसी प्रकार सद्बुद्धि स्वाभाविक है। वह ईश्वर प्रदत्त है, दैवी है, जन्मजात है, जीवन संगिनी हैं। संसार में भेजते समय प्रभु हमें सद्बुद्धि रूपी कामधेनु भी देते हैं ताकि वह हमारे सम्पूर्ण सुख साधन जुटाती रहे परन्तु हमें भूल वश, भय वश, अज्ञान वश, आय ग्रस्त होकर सद्बुद्धि को त्यागकर कुबुद्धि को अपना लेते हैं और जैसे मिथ्याचरण से बीमारी न्योता बुलाई जाती है वैसे ही मानसिक अव्यवस्था के कारण कुबुद्धि को आमंत्रित किया जाता है। यह पिशाचिनी जहाँ आई नहीं कि जीवन का सारा क्रम उलटा हुआ नहीं, दोनों एक साथ रह नहीं सकतीं, जहाँ कुबुद्धि होगी वहाँ तो अशान्ति, चिंता, तृष्णा, दीनता, नीचता, क्रूरता आदि की कष्टकारक स्थितियों का ही निवास होगा।
गायत्री, सद्बुद्धि ही है। इस महामंत्र में सद्बुद्धि के लिये ईश्वर से प्रार्थना की गई है। इसके चौबीस अक्षरों में 24 अमूल्य शिक्षा संदेश भरे हुए हैं वे सद्बुद्धि के मूर्तिमान प्रतीक हैं। उन शिक्षाओं में से वे सभी आधार मौजूद हैं जिन्हें हृदयंगम करने वाले का सम्पूर्ण दृष्टिकोण शुद्ध हो जाता है और उस भ्रम अन्य अविद्या का नाश हो जाता है जो आये दिन कोई न कोई कष्ट उत्पन्न करती रहती है। गायत्री महामंत्र की रचना ऐसे वैज्ञानिक आधार पर हुई है कि उसकी साधना से अपने भीतर छिपे हुए अनेकों गुप्त शक्ति केन्द्र खुल जाते हैं और अन्तस्तल में सात्विकता की निर्झरिणी बहने लगती है। विश्व व्यापी अपनी प्रबल चुम्बक शक्ति से खींचकर अन्तः प्रदेश में जमा कर देने की अद्भुत शक्ति गायत्री में मौजूद है। इन सब कारणों से कुबुद्धि का शमन करने में गायत्री अचूक रामबाण मंत्री की तरह प्रभावशाली सिद्ध होता है। इस शमन के साथ-साथ अनेकों दुःखों की समाप्ति हो जाना भी पूर्णतया निश्चित है। गायत्री देवी प्रकाश की वह अखंड ज्योति है जिसके कारण कुबुद्धि का अशानान्धकार दूर होता है और अपनी वही स्वाभाविक स्थिति प्राप्त हो जाती है जिसको लेकर आत्मा इस पुरायमयी धरती माता की परम शान्तिदायक गोदी में किलोल करने आया है।
रंगीन काँच का चश्मा पहन लेने पर आँखों पर सब चीजें उसी रंग की दीखती है जिस रंग का कि वह काँच होता है। कुबुद्धि का चश्मा लगा लेने से सीधी साधारण सी परिस्थितियाँ और घटनायें भी दुःखदायी दिखाई देने लगती हैं। जिस मनुष्य को भौंरी रोग हो जाता है सिर घूमता है, मस्तिष्क के चक्कर आते हैं उसे दिखाई पड़ता है कि सारी पृथ्वी, मकान, वृक्ष आदि घूम रहे हैं। डरपोक आदमी को झाड़ी में भूत दिखाई देने लगता है। जिसके भीतर दोष है उसे बाहर के सुधार के कुछ लाभ नहीं हो सकता, उसका रोग मिटेगा तभी बाहर बुरी अनुभूतियों का निवारण होगा। पीला चश्मा पहनने वाले के सामने चाहे कितनी ही चीजें बदल कर रखी जाएं पर पीले पन के अतिरिक्त और कुछ दिखाई न देगा। बुखार से मुँह कडुआ हो रहा है उसे स्वादिष्ट पदार्थ भी कडुए लगेंगे। कुबुद्धि ने जिसके दृष्टिकोण को, चिर प्रवाह को दूषित बना दिया है वह चाहे स्वर्ग में रखा जाय चाहे कुबेर सा घने पति या इन्द्र सा सत्ता सम्पन्न बना दिया जाय तो भी दुःखों से छूट न सकेगा।
गायत्री महामंत्र का प्रधान कार्य कुबुद्धि का निवारण है जो व्यक्ति कुबुद्धि से बचने और सद्बुद्धि की ओर अग्रसर होने का व्रत लेता है वही गायत्री का उपासक है। इस उपासना का फल तत्काल मिलता है जो अपने अन्तःकरण में सद्बुद्धि को जितना स्थान देता है उसे उतनी ही मात्रा में तत्काल आनन्दमयी स्थिति का लाभ प्राप्त होता है।
सोये हुए गाँव को जैसे बाढ़ बहा ले जाती है वैसे ही पुत्र और पशुओं में लिप्त मनुष्य को मौत ले जाती है। जब मृत्यु पकड़ती है उस समय पिता, पुत्र, बन्धु या जाति वाले कोई भी रक्षा नहीं कर सकते। इस बात को जानकर बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह शीतवान बने और निर्वाण की ओर ले जाने वाले मार्ग को जल्द साफ करे।

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