Tuesday, October 11, 2016

दोहे

भारत के पश्चिमी क्षेत्र की लोक-संस्कृति में दोहे छंद ने मुख्य स्थान प्राप्त किया । दैनन्दिन कार्यों अथवा अभिव्यक्ति में निर्द्धन्द्ध रूप से दोहों का प्रयोग प्राप्त होता है । जन सामान्य ने इस छंद की शाब्दिक एवं लयात्मक अवस्था के साथ अपना तादत्म्य स्थापित कर लिया है जिससे वे अत्यंत सहज रूप से या तो दोहे की रचना कर लेते हैं अथवा उन्हें प्रयोग में ले आते हैं । भरतीय छंद शास्त्र में भी दोहे का महत्वपूर्ण प्रयोग प्राकृत अप्रभंष काल में प्रारंभ हुआ । शास्त्रज्ञों की स्वीकृति तो इस छोटे से मात्रिक छंद को बहुत बाद में मिली, किन्तु धीरे-धीरे यही छंद अपनी संक्षिप्त, तिक्त और सूक्ष्म व्यंजना के कारण संपूर्ण साहित्य पर छा गया । मुक्तक एवं प्रबंध दोनों प्रकार के काव्यों में इस छंद ने अपना प्रभुत्व कायम कर लिया । दोहे के जो रूप राजस्थानी में प्रचलित हैं, वे इस प्रकार हैं-
               नाम             प्रति चरण मात्राएं                       तुक विधान चरण क्रम से
               दूहो             13, 11, 13, 11                           द्वितीय - चतुर्थ
               सोरठौ          11, 13, 11, 13                           प्रथम - तृतीय
सांकळियौ -बड़ौ दूहोै         11, 13, 13, 11                           प्रथम - चतुर्थ
तंवेरी -मध्यमेळ दूहौ        13, 11, 11, 13                           द्वितीय - तृतीय
चरणा दूहौ                    16, 11, 16, 11                           प्रथम-तृतीय, द्वितीय-चतुर्थ
पंचा दूहौ                      12, 11, 12, 11                           द्वितीय - चतुर्थ
चोटियौ दूहौ                  13, 23, 13, 21                           प्रथम-तृतीय, द्वितीय-चतुर्थ
खोड़ौ दूहौ                     11, 13, 11, 6                            तृतीय - चतुर्थ
-राजस्थान के मरूस्थलीय क्षेत्र में दोहों का गायन विधान लोक-संगीत का प्रमुखतम प्रयोग है । ये दोहे रोमांस, प्रेम, नीति, प्रतीक, कथा, प्रशंसा आदि के लिए मौखिक साहित्य एवं गेय रूप में प्रचलित हैं । ये अधिकतर पेशेवर लोक गायक जातियों की संपदा है । ये गायक अपने मुख्य गीत की भूमिका के रूप में ‘दोहे’ देते हैं और तत्पश्चात् लयपूर्ण शैली में गीत प्रस्तुत करते हैं । इनके कुछ गीत ऐसे भी होते हैं जो दोहे के रूप को ज्यांे का त्यों कायम रखते हुए गेय होते हैं । टेक रूप में या गीत के मुखड़े/बंदिश के रूप में एक अन्य पंक्ति प्रचलित रहती है । ये दोहे गद्य कथा-कथन शैली के साथ भी गाये जाते हैं । ढोला मारू, नागजी-नागवंती, बींझा-सोरठ आदि गद्यात्मक कथाओं के साथ ऐसे ही गेय दूहे या सोरठे प्रचलित हैं । राजस्थान की कुछ घुम्मकड़ जातियों में दोहे के प्रत्येक चरण के साथ कुछ गेय शब्द जोड़कर गाने का स्वरूप भी प्रचलित है । उपरोक्त सभी रूपों में दोहे या सोरठे का प्रयोग मौखिक साहित्य या संगीत की परंपरा में ही मिलता है । जहां शास्त्रज्ञ कवि ने दोहेे को अंगीकृत किया है - वहां राजस्थानी साहित्य के महत्वपूर्ण शब्दालंकार ‘वयण सगाई’ एवं ‘अखरोट’ आदि अत्यंत महत्वपूर्ण माने गये हैं । 

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है नहीं शमशीर कोई सिर कलम का काट दे !
हाँ ! कलम में है वो ताकत झूठ का सिर काट दे !
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ज़ालिमों का पर्दाफाश कर रही है जो कलम   ,
हौसलों के हाथ उसके कौन कैसे काट दे !
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सच की पहरेदार बन परवाज़ ऊँची भर रही ,
है अगर हिम्मत तो कातिल इसके पंख काट दे !
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झुक नहीं सकती कभी ज़ुल्मों-सितम के सामने ,
आग की लपटों को नामुमकिन है कोई काट दे !
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बेजुबान, अंधी , बहरी मत रहो 'नूतन' कलम ,

दुश्मनों के जिस्म आज टुकड़े-टुकड़े काट दे !

मनै बावली मनचली,  कहवैं सारे लोग।
प्रेम प्रीत का लग गया, जिब तै मन म्हँ रोग ।।

भूखी-प्यासी जनता ढूंढें नज़र नहीं वे आते हैं ,
अच्छे दिन का लालच देकर हाकिम सैर को जाते हैं !
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कभी-कभी मन की बातें कर जनता को बहलाते हैं ,
जनता को मीठी घुट्टी दे हाकिम सैर को जाते हैं !
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चायवाले हाकिम बनकर हाय पलट ही जाते हैं ,
सूट-बूट में ठाट-बाट से हाकिम सैर को जाते हैं !
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जाकर के परदेस में हाकिम कितनी रकम लुटाते हैं ,
मरो किसानों देश के प्यारो हाकिम सैर को जाते हैं !
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ऐसे अच्छे दिन से अच्छे पहले दिन ही भाते हैं ,
घर को आँख दिखाकर देखो हाकिम सैर को जाते हैं !

जनता  सच  कहती  है इसमें  झूठ  नहीं है ;
गद्दी  दी  है गद्दारी  की  छूट  नहीं .
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ठीक  है तुम  संसद  में  बैठो  हम  सड़कों  पर ;
हरा  भरा  जनतंत्र  है सूखा  ठूठ  नहीं है .
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हिन्दू - मुस्लिम - सिख- इसाई  में मत  बांटो  ;
हिन्दुस्तानी  हैं  हममे  कोई  फूट  नहीं है .
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भ्रष्टाचारी  जो है उसको फांसी दे  दो  ;
जनता का  है पैसा  कोई लूट  नहीं है .
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लगा  लाल  बत्ती  न  हम पर  रौब  जमाओं  ;
नेता  जनता का सेवक  देवदूत  नहीं है .

आया  है आज कौन ? किसकी ये जयकार है ?
बिजली पानी की आई कैसे बहार है ?
नादानों कुछ पहचानों मुश्किल दीदार हैं !
आयें पांच  साल में अपनी  सरकार  है .
सिंथेटिक  दूध लाओ ;लाकर के   इन्हें पिलाओ ;
नकली मावे के पेड़ों  का  इनको  भोग  लगाओ ;
ऐसा न हो जो स्वागत हमको धिक्कार है !
आये हैं पांच साल में ............
फिर चलें सड़क पर जब वे ;उनको ये समझाना ;
गड्ढों में सड़क है कहीं गिर नहीं जाना ;
फिर भी लुढ़क जाएँ ....खुद जिम्मेदार है !
आयें हैं पांच साल .....
जब देने लगें भाषण और करने लगें वादे
दिखलायें राम खुद को पर रावण से इरादे
दिखला दो उनको ठेंगा ;असली गद्दार हैं
आयें हैं पांच साल में ...................
हम दर्पण की तरह सुनने का हुनर रखते हैं 
बशर्ते आप अपना समझने का हौंसला रखिये
हम दिल से कद्र करना हर रिश्ते की जानते हैं
बशर्ते आप निभाने का अटल फैसला रखिये


काँपी रह-रह घाटियाँ, आया विकट असाढ़ |
थर्राए गिरि देख कर , लाया ऐसी बाढ़ ||
सावन जहँ गाने लगा, रह-रह राग मल्हार |
अँगड़ाई लेती दिखीं , तहँ नदिया की धार ||
किश्ती भी उत्साह से, दिखी तरबतर खूब |
चिंता में है वक चतुर , कहीं न जाएं डूब ||
कुदरत ने तन पर मले, सावन के जो रंग |
हर्षित हरियायी दिखी , धरा नवांकुर संग ||
झरनों की किलकारियां, खींच रहीं हैं ध्यान |
गाता है सावन जहाँ , लेकर लम्बी तान ||
मेघ गर्जना से कहीं , दादूर करते शोर |
कहीं उतरकर वृक्ष से, नाच रहा है मोर ||

मुख कलियों का चूमती, बारिश की जल बूँद |
तीक्ष्ण शूल को देखकर , रही नयन अब मूँद ||

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