Thursday, October 20, 2016

अभिभावक, बच्चे और आत्म-हत्याएं : आपकी ‘व्यस्तता’ कहीं उनकी हताशा का कारण न बन जाए



-शिवनाथ झा-
दाना सिल्वा संगमा नहीं रही, रिचर्ड लोइतम ने भी संदेहास्पद स्थिति में दम तोड़ दिया, समितन सेठिया ने  भी मृत्यु को गले लगाना पसंद किया. क्यों कर रहे हैं भारतीय बच्चे आत्म-हत्याएं? कौन है दोषी? माता-पिता या परिवार का वातावरण या शैक्षणिक संस्थाएं या शिक्षक या छात्र-छात्राओं का इन्फ़ीरियरिटी कॉम्प्लेक्स? एक माता-पिता के उस दर्द को कोई नहीं बाँट सकता, सिवाय उन्हें सांत्वना देने के, लेकिन कभी माता-पिता स्वयं से पूछते हैं कि कहाँ की उन्होंने चूक?
कुछ साल पहले दिल्ली के एक स्कूल में एक दसवीं कक्षा की बहुत ही मेधावी छात्रा ने स्कूल से जाने के बाद अपने घर में पंखे से लटककर अपनी जान दे दी. इस कदम को उठाने के पहले उसने चार पंक्तियों में एक नोट छोड़ा जिसमे कुछ इस कदर लिखा था: “मम्मी-पापा, आप मुझे माफ़ करें. आप दोनों मुझे प्यार नहीं करते. आप सिर्फ अपने बेटा को प्यार करते हैं. मुझे आप दोनों से बहुत अच्छी मेरी टीचर लगती है. मुझे बहुत प्यार करती हैं. मैं अपनी सभी बातें उन्हें बताती हूँ. वह मेरी सभी बातें जानती हैं. लेकिन आज उन्हें भी फुरसत नहीं था, वे अपने पति के साथ कही चली गयीं, मेरी बात नहीं सुनी. मुझे कोई प्यार नहीं करता. इसलिए मैं जा रही हूँ.”
मैं उन दिनों दिल्ली से प्रकाशित द इंडियन एक्सप्रेस में एक क्राइम रिपोर्टर था. मुझे भी एक कहानी लिखनी थी, लेकिन मेरी कहानी सिर्फ समाचार पत्र में छपने के लिए नहीं थी. मेरे संपादक ने मुझे इस कहानी को ‘मानवीय तरीके’ से लिखने को कहा जो किसी भी माता-पिता, अभिभावक और शिक्षकों के लिए एक मनोवैज्ञानिक सन्देश हों. मैंने कोशिश की. यह बात सन 1994 की है.
अक्सर, हम अपनी व्यस्तता के कारण, चाहे वह सिर्फ दिखाने के लिए ही क्यों ना हों, अपने संतानों की, विशेषकर स्कूली छात्र-छात्राओं की, मनोवैज्ञानिक मनोदशा को पढ़ नहीं पाते या बढ़ते उम्र में उनकी बढ़ती ‘संगतियों’ को नजर अंदाज करते चले जाते हैं, यह सोच कर की आने वाले दिनों में वे खुद ही ‘अच्छा क्या है-बुरा क्या है’ को समझ जायेंगे. लेकिन यह नहीं जानते की उनके मन और व्यवहार में जो ‘बीज पनप कर बड़े हों रहे हैं, वह किस ओर उन्मुख होगा और उसका परिणाम क्या होगा?
मीडिया दरबार से बात करते हुए इंडियन मेडिकल एसोसियेशन (आई.ऍम.ए) के सीनियर प्रसीडेंट डॉ. विनय अग्रवाल भी इस बात से सहमत हैं. उनका कहना है कि  “विज्ञानं के विषय के साथ साथ जिस तरह लोगों, चाहे वे किसी भी आर्थिक कोटि के हों, की व्यस्तता बढ़ी है, यह प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से परिवार और संतानों के बीच की दूरियां बनायीं है. दूरियों का बढ़ना या घटना इस बात पर निर्भर करता है की उस बच्चे के माता-पिता या अभिवावक उससे संवेदनात्मक रूप से कितने करीब है. दुर्भाग्य यह है कि लोगों की व्यस्तता इन दूरियों की खाई को पाटने में आज के माहौल में बिलकुल असमर्थ है.”
बीस वर्ष बीत गए. लेकिन उस छात्रा ने जो प्रश्न अपने माता-पिता या समाज के सामने रखा था, वह आज भी परिवार में, माता-पिता के सम्मुख, समाज में, शैक्षणिक संस्थाओं में उसी तरह पड़ा है. इन बीते वर्षों में कितने ही बच्चे इश्वर द्वारा प्रदत इस अमूल्य तोहफे को रौंद कर अपने जीवन को समाप्त कर चुके. आंकड़े हजारों में है. दुर्भाग्य यह है कि इस तरह की सभी आत्म-हत्याओं को महज एक क़ानूनी कारर्वाई के रूप में देख और समझ कर समाप्त कर दिया जाता है. ना तो माता-पिता के पास इतना वक़्त है कि वे आत्मीयता से इन घटनाओं पर नजर डालें और समाज में जागरूकता लायें, बच्चों में विस्वास जगाएं. क्या यह काम भी सरकार की है?
मनोवैज्ञानिक मनोज कुलकर्णी कहते हैं: “बच्चों द्वारा किये जा रहे आत्म-हत्याओं को एक दुसरे नजर से भी देखें. लगभग ९५ फीसदी छात्र-छात्राएं अपनी बातों को अपने माता-पिता या अभिवावक से छिपाते हैं. इसमें परिवार के आतंरिक वातावरण का महत्वपूर्ण योगदान होता है. अगर परिवार में किसी भी तरह का कलह है-माता-पिता के बीच, तो बच्चे कभी भी अपनी बातों व्यक्त नहीं करेंगे और धीरे धीरे यह एक अलग रूप में उन बच्चों में विकास होता है. पांच से अधिक फीसदी माता-पिता या अभिवावक ही ऐसे हैं जो अपने बच्चों की सम्पूर्ण बातों को सुनते हैं, विस्वास के साथ और उसी विस्वास से बच्चे भी उनके दोस्त बने रहते हैं. अगर इन सांख्यिकी को अखिल भारतीय स्तर पर होने वाली परीक्षाओं के साथ जोड़ें, तो लगभग वही छात्र-छात्राएं यहाँ अब्बल आतीं हैं जो इन पांच फीसदी में हैं. शेष अन्य कार्यों को कर अपना जीवन यापन  करते हैं.”
डॉ अग्रवाल फिर कहते हैं: “एक डॉक्टर शारीरिक बीमारी को ठीक करता है. मानसिक बीमारी की उत्पत्ति अधिकांशतः परिवार के वातावरण से होती है. एक उदहारण: पिछले महीने जब दसवीं और बारहवीं कक्षा की परीक्षा हों रही थी, दिल्ली के मुख्य मंत्री श्रीमती शिला दीक्षित को “गले फाड़-फाड़ कर बच्चों को मानसिक रूप से सबल रहने का ज्ञान बांटते रेडियो पर सुना, लेकिन उन पंद्रह दिनों में दिल्ली या देश और प्रदेश में ऐसे किसी भी दस माता-पिता या अभिभावकों को एक साथ अपने गली के कोने पर, मोहल्ले के पार्कों में बैठकर इन बच्चों को संवेदनात्मक सदेश देते नहीं देखा. यह बनात बहुत छोटी है, लेकिन बहुत ही गंभीर और किसी के भी परिवार की संरचना या विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है.”
एक स्कूली शिक्षिका कहती हैं की कुछ माता-पिताओं का अपने बच्चों के साथ इतना मजबूत भावनात्मक सम्बन्ध होता है कि दोनों में यह निर्णय करना की दोनों माता-पिता और संतान हैं या फिर तीनो दोस्त. जबकि, कुछ बच्चे आज भी भय से नजर उठाकर अपने माता-पिता से बात नहीं कर सकते. बेटा अगर रात में १२ बजे भी घर वापस आये तो माता-पिता गले लगाते हैं, खाने पर उसका इंतज़ार करते हैं, लेकिन, बेटी अगर आठ बजे के बाद घर में पैर रखे तो घर ही नहीं समाज में भी माता-पिता “डुगडुगी” लेकर उसके चरित्र को नीलाम करने लगते हैं.
मनोवैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार, अपने-अपने बच्चों से “अपेक्षाएं” चाहे वह शैक्षणिक हों, सामाजिक हों, धार्मिक हों या कुछ और, माता-पिता या अभिवावकों की इतनी अधिक होती है की बच्चे उनकी उस मुराद को पूरे करने में अक्सरहां असफल होते हैं और आत्म-हत्या को ओर उन्मुख होते हैं. आकंडे भी कुछ ऐसे ही कहते हैं. आंकड़ों के मुताबिक पिछले दस सालों में विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं में जितनी भी आत्महत्याएं हुई हैं उनमे अधिकांशतः वैसे छात्र-छात्राओं ने मृत्यु को गले लगाया है, जो कश्मीर से कन्यान्कुमारी तक फैले देश भर के गाँव और कस्बों से अपनी शैक्षणिक स्थिति को मजबूत करने की उम्मीद से भारत के शहरोंमे अंग्रेजी वातावरण में पल और विकसित हों संस्थाओं में दाखिला लिया है यह जानते हुए की वे उस वारावरण में अपने आप को समायोजित नहीं कर पाएंगे.
अध्ययन के अनुसार, भारत के लगभग सभी राज्यों में जो शैक्षणिक वातावरण उपलब्ध है, उनमे स्थानीय भाषाओँ के माध्यम से शिक्षा दी जाती है. सामान्यतः बच्चों की शैक्षणिक नीव दसवीं या बारहवीं कक्षा तक जितना मजबूत होना होता है, वह हों चूका होता है. ऐसी हालात में, अगर स्थानीय भाषाओँ में पढ़े छात्र-छात्राएं अंग्रेजी माध्यम में पढाई होने वाले शैक्षणिक संस्थाओं में दाखिला लेते हैं (दाखिला लेने का तरीका चाहे जो भी अपनाया जाए), तो उन्हें अपने आप को उस वातावरण में समायोजित करने में बहुत कठिनाइयाँ होती है. समायोजित करने वाले छात्र-छात्राओं की संख्या भी बहुत अधिक नहीं है. संभव है, यह “इन्फ़िरियरिटी कॉम्प्लेक्स” सीधा ‘आत्म-हत्या’ को ओर रह दिखाए.
आइए, अपनी व्यस्तता को कम कर अपने संतानों को देखें, उनके जीवन सवारें. यह कार्य सिर्फ और सिर्फ माता-पिता ही कर सकते हैं. समाज तो सिर्फ ताली बजाएगा आपके दुःख पर.


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