पिछले दिनों में घटी कई घटनाओं ने एक बार फिर मन में बेचैनी पैदा कर रही है. दरअसल हम निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि हमारा समाज किधर जा रहा है. एक तरफ हम आधुनिक से उत्तर-आधुनिक होने का विमर्श कर रहे हैं. धरती से लेकर मंगल ग्रह के रहस्य को सुलझा रहे हैं, बैलगाड़ी को छोड़कर हवा में उड़ रहे हैं. नित नए प्रकृति के रहस्य को खोल रहे हैं. तो दूसरी तरफ तथाकथित बाबाओं निर्मल, आसाराम नित्यानंद, रामपाल, राधे(माँ) जैसी देवियों के हाथों आस्था का खिलौना बनकर देश की खिल्ली भी उड़ा रहे हैं. देश की सारी प्रगतिशीलता पर ये मुट्ठीभर बाबा भारी पड़ते हैं..अपने भक्त को मोह माया और भौतिकता से दूर रहने का प्रवचन देने वाले ये बाबा खुद भौतिक सुख–सुविधा की चमक से इस कदर चिपके रहते हैं कि इनको आसानी से लक्ज़री वाहन में चलते हुए वातानुकूलित कमरा और तथाकथित देवदासियों से घिरा हुआ देखा जा सकता है. पहले सिर्फ धर्म का धंधा कर रहे थे लेकिन अब तो ये खुद साबुन से लेकर तेल तक के धंधा शुरू कर चुके हैं. राधे (माँ), अपने को स्वघोषित देवी कहने वाली यह औरत देखने में किसी थर्ड ग्रेड सिनेमा की हिरोइन से कम नहीं लगती है. उछल–उछल कर भक्तों की गोद में भौतिक सुख लेने वाली औरत एक पूरे जमात को उल्लू बनाकर एय्याशी भरी जिन्दगी जीती रही. उससे भी ज्यादा जिम्मेदार वे मुर्ख भक्त हैं जो अनुयायी बनकर उसकी शोहरत को बढ़ाते है इतना ही नहीं राजनेता और अभिनेता भी उनके मठ मंदिरों में जाकर जनता के अन्धविश्वास को और भी प्रबल करते हैं. इन राजनेताओं के चलते ही लोकतान्त्रिक देश धर्मसत्ता और राजसत्ता का गठजोड़ बना हुआ है. इसीलिए अपने मतदाताओं को रिझाने के लिए मठ, मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर में जाकर बाबाओं की सत्ता और आतंक के आकाओं को कबूल करते है. जब बाबा के गुनाह का पर्दा उठता है तब ये नेता भीगी बिल्ली बनकर मिडिया में सफाई देते फिरते है.
मुझे अब भी याद है कि उतने बड़े गाँव में पढ़े–लिखे समझदार कई थे लेकिन इस अन्धविश्वास के प्रति पंगा लेने वाला कोई नहीं था. कोई इस बचपन से शमाए हुए डर को निकालने वाला नहीं था. आज जब ये वाकया यादाता है तो हंसी और क्रोध दोनों आते हैं. सोचता हूँ आज यदि मैं होता तो सबसे पहले पर्ची को फाड़कर बच्चे से लेकर बूढों के सामने पर्दाफाश करता. एक बारगी विश्वास नही होता है कि यह सब घटना मैं इक्कीसवीं सदी की बता रहा हूँ. आज फिर चारों तरफ से कर्मकांड, पाखंड, धर्मान्धता,अन्धविश्वास तेजी से अपने पांव पसार रहे हैं. भले उसका स्वरूप बदला हो लेकिन इरादा अब भी वही है. मुझे लगता है अब इसे नज़रअंदाज करने का नही बल्कि इससे टकराने का समय है.
इस पर एक शोध होना चाहिए कि इन जैसे बाबाओं और देवियों के जो भक्त है वे समाज के किस श्रेणी से आते हैं? उनकी शिक्षा क्या है? वैसे भी भारत की शिक्षा व्यवस्था ऐसी है जहाँ अन्धविश्वास इतनी मात्रा में पाया जाता है कि वहाँ की पुस्तकों में शायद ही इस विषय पर गंभीरता से लिखा हुआ कोई पाठ हो. इसलिए एक स्नातक भी वही सोचता है जो उसके दादा या दादी सोचते हैं जिस तरह विरोध अन्धानुकरण का यह रवैया विज्ञान का विरोध कर रहा है अब उसी के सहारे फल-फूल भी रहा है. इन बाबाओं ने बड़ी ही चालाकी से टी.वी. और टेक्नोलॉजी का सहारा लेकर अपने धर्म के धंधे को नया रूप दिया है. इनके प्रवचन अब चौबीस घंटा चलते है. साथ ही टोना-टोटका, झाड़–फूँक, ताबीज-गंडा,चमत्कारी अंगूठी का प्रचार भी. यह महज संयोग नहीं है कि इस तरह के अन्धविश्वास का विरोध करने वाले नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पानसारे और अब प्रो. कुलबर्गी तथा दूसरी तरफ बांग्लादेश में दो–दो ब्लॉगर की दर्दनाक हत्या कर दी जाती है. अब इनका तन्त्र इतना मजबूत हो चुका है कि अपने धंधे का विरोध करने वालों को चाहे तो शरेआम मौत की नींद सुला सकते हैं.
दूसरी घटना जो कुछ दिन पहले झारखंड की राजधानी राँची से आठ किलोमीटर दूर आदिवासी समाज में घटी, वह भी अन्धविश्वास की चरमावस्था थी. एक गाँव में पांच महिलाओं को एक साथ डायन घोषित करके गाँव वालों ने उन्हें घर से निकालकर निर्वस्त्र करके बेरहमी से मार डाला. आश्चर्य की बात यह थी कि कॉलेज में पढ़ने वाले छात्र भी इस कुकृत्य में शामिल थे. आदिवासी समाज में डायन प्रथा लम्बे समय से चली आ रही है. कई बार इन्हें मारने के पीछे जमीन, जायदाद को हड़पने वाले कारण भी होते रहे हैं. किन्तु ऐसी घटना में छात्रों का शामिल होना यह दर्शाता है कि अन्धविश्वास की पकड़ कितनी मजबूत है. सरकार की तरफ से भी इस पर पाबंदी बाबत कोई सख्त और सक्रिय कानून शायद ही हो. डायन जैसी कुप्रथा के प्रति जागरूक करने के लिए उनके पाठक्रम में कोई ऐसा विषय शामिल होना चाहिए था जो उन्हें इस विषय पर वैज्ञानिक नजरिये से सोचने को विवश करता. किन्तु दुःख की बात तो यह है कि उन्हें धर्म भीरु बनाने वाले पाठ जरुर उनके पाठ्यक्रम में होते है लेकिन तार्किक, चिंतनशील वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले विषय को उतना तवज्जों नहीं मिल पाती है या थोड़ा बहुत मिलता भी है तो उसे पढ़ाने वाले शिक्षक उस दृष्टिकोण के नहीं होते हैं. एक तरफ भले ही सरकार बच्चों में नैतिकता और संस्कार जैसे मूल्य को डालने के लिए दुबली होती जा रही है लेकिन अन्धविश्वास और पाखंड को मिटाने के लिए कोई तत्परता दिखाई नहीं देती.
इधर उत्तर प्रदेश और बिहार में भी अन्धविश्वास प्रदर्शन हेतु एक दूसरे में होड़ लगी रहती है. महीने दो महीने में छोटी–बड़ी भूतप्रेत की कहानियाँ सुनने को मिलती रहती है. और यह अफवाह इतनी तेजी से फैलती है कि शायद उतनी तेजी से जंगल में आग भी नहीं फैलती होगी. चाहे वह गंगा मैया को साड़ी चढ़ाने वाला वाकया हो या मुंहनोचवा का हल्ला हो. या फिर बूढी महिला द्वारा घर से प्याज मांगना तथा देने पर घर के सदस्य की मृत्यु हो जाएगी या अभी वर्तमान में यह प्रचार चल रहा है कि हर घर पर सिल लोढे के निशान पाए जा रहे है. यह सही है कि अन्धविश्वास का भी अपना मनोविज्ञान है. कई बार अनायास और कई बार सायास फायदे से प्रेरित होकर योजनाबद्ध तरीके से इस अफवाह को जन्म दिया जाता है ताकि ओझा–सोखा से लेकर धर्मगुरुओं की दुकान में आई हुई मंदी फिर एक बार अपने चरम तक पहुंचे..
आज जो भी लोग तार्किक और वैज्ञानिक चेतना से सम्पन्न हुए है उनको भी एक समय कितना मशक्कत करनी पड़ी है. इस धर्मान्धता और अन्धविश्वास को अपने मन–मष्तिष्क से उखाड़ फेकने में प्रो. तुलसी राम ने तो अपनी आत्मकथा 'मुर्दहिया' में आधे से अधिक भाग में भूत–प्रेत की कहानियों और किस्सों का वर्णन किया है. जहाँ हर घटना और कार्य की सफलता–असफलता के पीछे भूत–प्रेत, देवी–देवता के मिथक गढ़े गए हैं. शिक्षा के बावजूद आज भी गाँव के हालात इस मायने में वही है जो तुलसीराम के समय थे. क्योंकि सोचने–समझने के तरीके अभी भी वही हैं. हम लोग जब गाँव में छोटे–छोटे थे तब एक और चीज बड़ी तेजी से फ़ैली थी वह थी कि कोई अमुक गाँव के मन्दिर में देवी मैया का दर्शन हुआ है.और उसने पुजारी से कहा है कि मेरे नाम से सौ–दो सौ पर्ची छापकर बांटोगे तो तुम्हे सप्ताहभर के अंदर कोई लाखों की लॉटरी जरुर मिलेगी. फिर उस पर लिखा रहता था किसने कितने पर्ची छपवाकर बांटा और उसे कौन–कौन सी लाटरी मिली, इसका पूरा जिक्र रहता था. साथ ही एक भयानक सन्देश भी कि इस पर्ची को मजाक समझकर एक आदमी ने फाड़ दिया उसका जवान बेटा मर गया, दूसरे की बीबी मर गई इत्यादि. मुझे याद है कि हम लोगों को जबरदस्ती कोई पकड़ा देता था तो लेना भी पड़ता था, क्योंकि देवी मैया की बात है लेकिन उससे ज्यादा चिंता यह रहती थी इस पर्ची को कहाँ रखे की फटे नही वर्ना हमारे घर के साथ भी वहीं होगा जो पर्ची में लिखा है.
मुझे अब भी याद है कि उतने बड़े गाँव में पढ़े–लिखे समझदार कई थे लेकिन इस अन्धविश्वास के प्रति पंगा लेने वाला कोई नहीं था. कोई इस बचपन से शमाए हुए डर को निकालने वाला नहीं था. आज जब ये वाकया यादाता है तो हंसी और क्रोध दोनों आते हैं. सोचता हूँ आज यदि मैं होता तो सबसे पहले पर्ची को फाड़कर बच्चे से लेकर बूढों के सामने पर्दाफाश करता. एक बारगी विश्वास नही होता है कि यह सब घटना मैं इक्कीसवीं सदी की बता रहा हूँ. आज फिर चारों तरफ से कर्मकांड, पाखंड, धर्मान्धता,अन्धविश्वास तेजी से अपने पांव पसार रहे हैं. भले उसका स्वरूप बदला हो लेकिन इरादा अब भी वही है. मुझे लगता है अब इसे नज़रअंदाज करने का नही बल्कि इससे टकराने का समय है.
प्रेमचन्द ने प्रगतिशील लेखक संघ के भाषण में कहा था कि ‘हमारी साहित्यिक रूचि बड़ी तेजी से बदल रही है. अब साहित्य केवल मन बहलाव की चीज नहीं है .मनोरंजन के सिवाय उसका और भी कुछ उद्देश्य है. अब वह केवल नायक–नायिका के संयोग–वियोग की कहानी नहीं सुनाता, बल्कि जीवन की समस्याओं पर भी विचार करता है, और उन्हें हल करता है. अब वह स्फूर्ति या प्रेरणा के लिए अद्भुत आश्चर्यजनक घटनाएँ नहीं ढूँढता और न ही अनुप्रास का अन्वेषण करता है, किन्तु उन्हें उन प्रश्नों में दिलचस्पी है,जिनसे समाज या व्यक्ति प्रभावित होते हैं. उसकी उत्कृष्टता की वर्तमान कसौटी अनुभूति की वह तीव्रता है, जिससे वह हमारे भावों और विचारों में गति पैदा करता है.’ प्रेमचन्द का संकेत साहित्य को समाज की समस्या से सीधे–सीधे जोड़ने की तरफ है और आज हमें ख़ुशी है कि साहित्य किसी न किसी रूप में समाज की समस्या से अपने आप को जोड़ रहा है. चाहे वह दलित विमर्श हो या आदिवासी विमर्श हो या फिर नारीवादी आन्दोलन हो. साहित्य ने समाज के हाशिए के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाकर यह साबित किया है कि वह समाज के सदियों से दबे, कुचले, पीड़ित.शोषित की आवाज बन सकता है.
भीमराव अम्बेडकर अपने समय में एक पत्रिका निकालते थे जिसका नाम था ‘मूकनायक’ उसका सीधा संकेत था कि उनका नायक अभी मूक है.कुछ बोलता नहीं है.किन्तु आज अम्बेडकर का नायक बोलता ही नहीं है बल्कि मुखर होकर बोल रहा है. उसके मुखर होने से भले किसी की तकलीफ बढ़ी हो लेकिन समाज के एक बड़े हिस्से में इन विमर्शों ने अपनी स्वीकार्यता और दावेदारी तय की है. वह सिर्फ अपनी पीड़ा को ही व्यक्त नहीं कर रहा है बल्कि उन तमाम रुढ़िवादी, जड़तावादी मूल्यों और परम्पराओं को नकार रहा है जो मनुष्य को मनुष्य मानने से इनकार करती है. सदियों से जो वर्णव्यवस्था कायम थी उसकी जड़े हिलनी शुरू हो गयी है.आज बड़ी संख्या में पढ़े–लिखे और सामाजिक चेतना से लेस युवाओं ने चाहे वह किसी भी जाति, वर्ग के हो इस दीवार को तोड़कर मानवता के धरातल पर समाज का निर्माण करना चाहा है.
इस अंक को दलित और आदिवासी दोनों को एक साथ रखा है. आज भले इनकी समस्याएँ अलग–अलग है लेकिन वे तमाम समस्याएँ बड़ी भीषण हैं. एक जल, जंगल, जमीन और विस्थापन की समस्या झेल रहा है. जंगली और नक्सली पहचानों के बीच अपने आप को मनुष्य के रूप में बचाए रखने के लिए अस्मिता की लड़ाई लड़ रहा है. इस तरह विकास की चकाचौध में सबसे ज्यादा खामियाजा उन्हें ही भुगतना पड़ रहा है. आए दिन उनकी महिलाओं के साथ जिस तरह के पुलिस उत्पीडन प्रकाश में आते हैं वह हर संवेदनशील आत्मा को अंदर से झकझोर देते हैं. दूसरी तरफ दलित आज भी जातिगत अपमान झेलने को मजबूर हैं. कोई भी ऐसा राज्य नहीं है जहाँ कहा जा सके कि दलित उत्पीडन कम है. हर रोज हत्या और बलात्कार की खबर हमें इसका अहसास दिलाती है. जैसे–जैसे दलित जागरूक हो रहा है उसकी अपने अधिकारों को लेकर दूसरे वर्गों से टकराहट भी बढ़ रही है.सुविधा और आरामपरस्त वर्ग आसानी से अपने तथाकथित दैवीय विशेषाधिकारों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है. अपनी इन्हीं सामाजिक प्रतिबद्धताओं को लेकर यह अंक निकालने का निर्णय लिया गया.अब आप ही बताएँगे कि हम कहाँ तक सफल हुए है.बकौल गोरख पाण्डेय की कविता–
हज़ार साल पुराना है उनका गुस्सा
हज़ार साल पुरानी है उनकी नफ़रत
मैं तो सिर्फ़
उनके बिखरे हुए शब्दों को
लय और तुक के साथ लौटा रहा हूँ
मगर तुम्हें डर है कि
आग भड़का रहा हूँ
इस विशेषांक के लिए हमने कई लोगों से लिखने के लिए अनुरोध किए और प्रेरित भी किए, कई साथियों ने अपना महत्वपूर्ण समय देकर गंभीरता से लिखा और दूसरे से लिखवाया भी. देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से हमारे युवा साथियों ने कई महत्वपूर्ण लेख दिए उन सबके प्रति हम अपना आभार व्यक्त करते हैं. इस अंक में दो महत्वपूर्ण हस्ताक्षर आदिवासी चिंतक रमणिका गुप्ता और दलित चिन्तक चौथीराम यादव को साक्षात्कार देने के लिए उनके प्रति हम आभार व्यक्त करते हैं. दलित आलोचक कंवल भारती जी को विशेष रूप से आभार तथा इस अंक को सफल बनाने में जिन दो साथियों का निरंतर सहयोग और सुझाव मिला सौरभ कुमार और बृजेश यादव को हम विशेष रूप से आभार व्यक्त करते है. एक नाम जो छूट रहा है वह नाम है माणिक, जिन्होंने यह दायित्व सौपा उन्हें भी हम विशेष रूप से आभार व्यक्त करते हैं. आवरण चित्र के लिए बूंदी,राजस्थान के राजकीय कॉलेज के चित्रकला प्राध्यापक रामदेव मीणा और रेखांकन के लिए उज्जैन के प्रसिद्द चित्रकार मुकेश कुमार बिजोले जी का भी शुक्रिया बनता है. हाल ही में कट्टरपंथियों के शिकार हुए कन्नड़ लेखक प्रो. कुलबर्गी को अपनी माटी की तरफ से भावभीनी श्रद्धांजलि. अब यह अंक आप के हाथों में सौप रहे है.अपनी राय जरुर व्यक्त करिएगा.
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