Wednesday, October 26, 2016

बड़ी विडंबना है कि आज ब्राह्मण चाहे चौक चौराहों पर मिलें, सामाजिक आयोजनों अथवा शादी विवाह जैसे पारिवारिक आयोजनों में मात्र यही चर्चा करते हैं कि क्या बताएं साहब ब्राह्मण पिछड़ता जा रहा है ।
राजनीति ने सवर्णों विशेषकर ब्राह्मणों को पीछे ढकेल कर पिछड़ों अल्पसंख्यकों एवं अन्य जातियों को आगे कर दिया है वे ब्राह्मणों को इस काबिल ही नहीं समझते उनकी समस्यायें सही ढंग से सुनी जाये और नही उनको समझने का समय किसी भी राजनीतिज्ञ के पास है ।
मेरे विचार से चर्चा यह होनी चाहिए कि ब्राह्मण क्यों पिछड़ रहा है ? उसके कारण जानना जरूरी है कि ब्राह्मणों के बच्चों में हीन भावना क्यों आ रही है ?
दरअसल 15 वर्षों की समाज सेवा (ब्राह्मण के लिए) का निचोड़ यही निकला कि हमें दूसरों की मीन मेख ज्यादा नजर आती है उसकी शर्ट मेरी शर्ट से ज्यादा सफेद कैसे ? या उसकी साड़ी मेरी साड़ी से ज्यादा सफेद क्यों ? बस यही बात है जो हमें पीछे कर रही है इतिहास गवाह है कि बड़े- बड़े चक्रवर्ती सम्राटों ने अपनी राजनीति चलाने के लिए ब्राह्मणों के उत्कृष्ट दिमाग का उपयोग कर कठिन से कठिन समस्याओं को हल करके बरसों एक छत्र राज किया, किन्तु आज समस्याएं बनाने का तो मानो क्रेज हो गया है । अपने लेटरपैड में कई ब्राह्मण नेता आधा आधा दर्जन ब्राह्मण संस्थाओं के पदाधिकारी होने का दावा करते हैं और यदि कोई उनकी बैठक में चला जाए तो आधा दर्जन ब्राह्मण भी उपस्थित नहीं रहते । वे स्वंय वो सर्वमान्य नेता,(ठेकेदार) बताते हैं किन्तु धरातल पर कोई काम नहीं होता, राजनीतिक दलों की तरह नित नए पदाधिकारियों की घोषणा समाचार पत्रों में की जाती है किन्तु वे अखबार में फोटो छपवाने तक ही सीमित रहते हैं । समाज से उनका कोई सरोकार नहीं होता ।
अपनी कमजोरी को दूसरी जाति या राजनैतिक दलों पर थोप कर अपनेर् कत्तव्यों की इति श्री करने वालों जरा शर्म करो ।
आइए 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस पर हम यह संकल्प करें कि हम अपनी लड़ाई स्वयं लड़ेंगे हमें कोई भी पीछे नहीं कर सकता। ब्राह्मणों को आपस में लड़ाकर अपनी निकृष्ट राजनीति करने वाले ब्राह्मण समाज के ठेकेदारों को पनपने नहीं देंगे । हम परशुराम की संतान है उनके वंशज जरूरत पड़ने पर शास्त्र सम्मत शस्त्र भी उठा सकते हैं । हमें संगठित होकर स्वार्थवादी शक्तियों को हराना होगा तभी हम आगे बढ़ कर अपना खोया हुआ सम्मान पुन: पा सकेंगे । सभी को स्वतंत्रता दिवस की अनेकोनेक बधाई....
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बड़ी कामयाबियां हमेशा स्वत:स्फूर्त आंदोलनों से चलकर निकलती है । देश की आजादी का आंदोलन भी किसी ने रूपरेखा बनाकर नहीं शुरू किया था । यह किसी एक मंगल पांडे का वैयक्तिक गुस्सा भी नहीं था । यह पूरे देशकी बगावत और गुस्सा था ।
जिसने अंग्रेजों को हिन्दुस्तान से खदेड़ दिया । अब आतंकवाद,नक्सलवाद को खदेड़ने की बारी है ।अगर युवा उठ खड़े हुए हैं तो इनमें इतना दम नहीं है कि वह उनका मुकाबला कर सके । ध्यान रखिये आजादी की लड़ाई का भी नेतृत्व उस जमाने के आम से लेकर खास युवाओं के ही हाथ में था । बड़ी लड़ाइयां महज वही सफलता हासिल नहीं करती, जिसका लक्ष्य लेकर लड़ी जाती है,5-6 बड़ी लड़ाइयां जब जीती जाती है तो वह तमाम दूसरे लक्ष्य भी हासिल कर लेती है जो पहले से भले निशाने पर न हो ।
योजनाओं का हिस्सा न हो, इसलिए अगर समाज उठ खड़ा हुआ है, युवा जाग गए हैं.. तो वह महज कर्त्तव्यों के विरूद्द ही समर नहीं जीतेंगे बल्कि समाज की तमाम दूसरी बीमारियों का भी इलाज कर देंगे ।
इसी संदर्भ में छत्तीसगढ़ के युवाओं की टीम ने प्रदेश के सामाजिक सौहार्द और समग्र विकास लाने का बीड़ा अपने कंधों पर लिया है । प्रदेश जहां नक्सलवाद से प्रभावित है वहीं जातिवाद और संकीर्णवाद निरंतर पनपते जा रहा है । इन बीमारियों का इलाज युवा ही कर सकते हैं । इसी उद्देश्य से गत वर्ष परशुराम सद्भावना यात्रा का आयोजन प्रदेश में एक मिशाल के रूप में आयोजित हुआ। ब्राह्मण महाकूंभ और उसकी परिणति एक राज्य एक जन के रूप में हुई । जिसके संदर्भ में यह कि प्रदेश का प्रत्येक व्यक्ति विकास में जब तक सहभागी नहीं होगा तब तक समग्र विकास की कल्पना बेमानी होगी । आज का राजनीतिक माहौल हमें एक दूसरे से लड़ाने का हो रहा है । अपने -अपने स्वार्थों की पूर्ति में लगे राजनेता युवाओं की भविष्य की चिन्ता तक नहीं कर रहे हैं ।
समाज का युवा जागरूक है, सरस्वती पुत्र है, बुध्दिमत्ता पूर्ण निर्णय लेने में सक्षम है । हमारे समाज ने ही सदैव लोगों को नैतिकता का पाठ पढ़ाया है । लोगों में धार्मिक भावनाएं प्रगाढ़ करवाई है । धर्म और नीति के पथ पर चलने का प्रेरणा दी है । इसी आधार पर हम प्रदेश को एक राज्य एक जन बनाने की ओर कृत संकल्पित हो पुन: 2009 में परशुराम सद्भावना यात्रा लेकर आपके बीच उपस्थित होने वाले हैं ।
यह अंक वैवाहिक विशेषांक के रूप में समर्पित है। समाज में विवाह एवं विवाह में कुरीतियों के साथ दहेज एक गंभीर समस्या का रूप ले रही है । हम युवाओं को आगे आकर इन कुरीतियों से संघर्ष करना होगा । दहेज को महज एक औपचारिक स्वरूप प्रदान करने की ओर हमें ही आगे बढ़ना होगा ।
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आज दहेज प्राय: हर समाज में दानवीय रूप ले चुका है । जो समुचित अथवा कहें वट पक्ष के मनोनुकूल दहेज नहीं दे पाते उनसे तो वर पक्ष रूष्ट होता ही है उनकी बेटी जो विवाहोपरांत उनके घर की बहू बन जाती है और जिसे लक्ष्मी कहा जाता है उसे तरह तरह से प्रताडि़त किया जाता है । दहेज की बढ़ी मांग के चलते ही अनेक सुशील सुशिक्षित और सुंदर बेटियां भी या तो अविवाहित रह कर जीवन व्यतीत करने को बाध्य होती है या अन्तरजातीय विवाह करने को विवश होती है । शायद इसीलिए आजकल प्रेम विवाह बढ़ रहे हैं । वैसे ये प्रेम विवाह सफल हो यह जरूरी नहीं है सफल प्रेम विवाह का लडक़े लडक़ी के विचारों के सामंजस्य और एक दूसरे के अनुरूप स्वयं को ढाल कर पूर्ण समर्पण भाव से एक दूजे का हो जाने से ही निभते हैं । जहां केवल शारीरिक भूख के चलते त्वरित निर्णय पर किये गये विवाह अधिकाधिक सफल नहीं हो पाते । वैसे तो हर दम्पत्ति में झगड़े होते हैं पर ये मर्यादा में बंधे होने वाले संस्कारों के कारण विस्फोटक रूप नहीं ले पाते अपितु कुछ इस तरह होते हैं जैसे मिष्ठान्न के साथ नमकीन अथवा चटपटा व्यंजन ।
खैर समयानुसार परिस्थितियां बनती और बिगड़ती है और इनमें स्वयं ही सुधार कर अपने अनुकूल बना सकते हैं । सरकार भी इस ओर सक्रिय है दहेज विरोधी और नारी सुरक्षा हेतु कई कानून भी बनाये गये हैं पर क्या मात्र कानून बन जाने से समाज सुधरा हो जाता है ? समाज हम से है और हम ही समाज सुधार कर सकते हैं । जिसके लिए सकारात्मक सोच आवश्यक है । अन्यथा हर कानून से बचने के लिये रास्ते निकाल लेना आदमी की फितरत है । दहेज कानून का दुरूपयोग कुछ इस प्रकार होता है कि बहू की मनमानी में कोई व्यवधान आया और उसके पूरे ससुराल पक्ष पर आरोप लगा दिया कि ये सब मुझे दहेज के लिए प्रताडि़त करते हैं, अनेक ऐसे प्रकरण मिलेगें जहा गरीब घर की कन्या को आदर्शवादी पिता ने अपनी बहू बनाया बिना दहेज के और उसी वधू ने पति के साथ ही सास ससुर जेठ जिठानी , देवर, ननद सभी के विरूद्ध थाने में रिपोर्ट लिखाकर आरोपी बना दिया अपितु उनकी चल अचल संपत्ति पर भी अपना अधिकार जमाने में कसर नहीं की । लडक़ी के मायके वाले भी लडक़ी का साथ बढ़-चढ़ कर देते हैं । श्वसुर की स्वअर्जित और पैतृक संपत्ति को भी स्त्री धन कहकर हर दांव चला जाता है । यहां मेरा केवल इनता मानना है कि शादी के बाद यदि लडक़ी के मायेक वाले उसकी ससुराल के क्रियाकलापों में बिना किसी ठोस प्रमाण के हस्तक्षेप न करे तो लडक़ी का दाम्पत्य जीवन निभ सकता है ।
हम बात कर रहे थे दहेज की । दहेज एक पुरातन परम्परा है । राम और सीता के विवाह में राजा जनक ने न केवल भरपूर धन दौलत दी थी अपितु सेवकों दास दासियों को भी खुले हाथों पारितोषक दिये थे । इसी का उदाहरण अक्सर वर पक्ष वाले दहेज की मांग के औचित्य को प्रतिपादित करने के लिये दिया करते है । पर इस पर गहन मंथन करने से सत्य जो प्रकट होता है वह है कि सीता के अनुरूप राजा जनक की प्रतिज्ञा को अपने शौर्य से धनुष तोड़ कर राम का वर रूप में मिलना बहुत बड़ी बात थी । इसी हर्षातिरेक में राजा नजक ने अपनी सामथ्र्य के अनुसार दोनों हाथों से दान दहेज दिया । राम या दशरथ ने उनसे कोई मांग नहीं की थी । अत: दहेज लेना या देना बुरा नहीं परंतु दहेज की मांगना वह भी बिना सामने वाले की हैसियत देखे समझे बिना ठीक वैसा ही है जैसे कोई सम्यक गृह स्वामी से उसके सर्वस्व की मांग करे। दहेज तब और भी वीभत्स हो जाता है जब किसी लडक़े की शादी किसी कुलीन पविार में तय हो रही होती है । और तभी कोई धनाढ्य उस लडक़े लिये ज्यादा या दुगुना धन देने का लालच देकर अपने सांवली या काली लडक़ी का संबंध उसी लडक़े से येन केन प्रकारेण करा देता है। लडक़ा मर्यादा में बंधा होने से केवल अपनी किस्मत को रोता है या फिर विवाहेत्तर संबंध बनाकर अपना दाम्पत्य जीवन नष्ट कर लेता है ।
इन सभी बातों पर गहन मंथन कर यदि हम अपने समाज में इस बुराई को मिटाने का संकल्प ले ले तो हमारी संतान सुखी रहेगी और हमारा वंश भी सुंस्कारों से परिपूर्ण होकर आदर्श प्रस्तुत करने में सक्षम होगा । विप्र कुल को सनातन वर्ण व्यवस्था में सर्वश्रेष्ठ इसके तपस्वी, त्यागी और सर्वहिताय सोच के कारण ही कहा गया है, आज हम समय के प्रवाह में बहकर अर्थ लोलुप होकर अपने संस्कार भूल रहे हैं। शायद इसीलिए दुर्दशा की ओर बढ़ रहे हैं ईश्वर हमें सद्बुद्धि दे 
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एकता की कमी की बातें ..
कई लोगों ने विचार व्यक्त किया कि क्षत्रिय समाज कभी एक नहीं हो सकता. पर हम ऐसा नहीं मानते क्योंकि जब जब देश व समाज को जरुरत पड़ी क्षत्रिय समाज एक हुआ है, बाबर के साथ युद्ध में सभी क्षत्रिय राजाओं ने राणा सांगा के नेतृत्व में युद्ध लड़ा था. वर्तमान लोकतंत्र में भी विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में क्षत्रिय समाज ने पूरी एकजुटता दिखाई थी. वी.पी.सिंह के बाद भी कई अवसरों पर देखा है समाज अपने राजनेताओं व सामाजिक नेताओं के आव्हान पर भारी संख्या में एकत्र हुआ है, चाहे दिल्ली हो, जयपुर का अमरूदों का बाग हो, क्षत्रिय समाज नेतृत्व की आस लिए हर बार लाखों की संख्या में जुटा है लेकिन हर बार इस तरह के आयोजनों के बाद समाज ने अपने आपको नेतृत्व के मामले में हमेशा ठगा हुआ महसूस किया है. हर वर्ष नए नए सामाजिक, राजनैतिक क्षत्रिय नेता पैदा होते है जो आदर्शों व आश्वासनों की गठरी में कई सामाजिक योजनाएं लेकर आते है. समाज उन्हें नोटिस भी करता है पर आने वाले नेता समाज की आशाओं के अनुरूप खरे नहीं उतरते. हर कोई समाज को अपने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ पूर्ति के लिए प्रयोग करने आता है और समाज व राजनीति में स्थापित होते ही समाज को भूल जाता है. ऐसे में समाज आने नेताओं के सही गलत होने की खोज में भटक कर रह जाता है और सही व्यक्ति को समर्थन नहीं मिलता. इस तरह अपने स्वार्थों के वशीभूत समाज के नाम पर नेतृत्व की भूख को शांत करने की चाहत रखने वाले अस्पष्ट विचारधारा और अपूर्ण कार्यप्रणाली की समझ रखने वाले ऐसे नेताओं के प्रथम प्रयास विफल हो जाते है तब वे समाज को पीछे नहीं चलने का दोष देकर किनारे हो लेते। वास्तव में क्षत्रिय समाज अन्य समुदायों की तरह कोई भेड़ बकरी नहीं है जो चाहे जिसके पीछे हो जाये। जो व्यक्ति अपने निश्चित सिद्धांतों को सामाजिक सिद्धांतों के रूप में रखकर उन्हें सामाजिक जीवन में ढालने की क्षमता रखता हो, समाज उसी के पीछे चलने को तत्पर रहता है। और इतिहास साक्षी है कि ऐसे ही नेता आगे बढे है, लेकिन ऐसे व्यक्ति विरले ही मिलते है.

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