Wednesday, October 19, 2016

डाकन प्रथा इस प्रथा पर सर्वप्रथम अप्रैल १९५३ ईस्वी में मेवाड़ में महाराणा स्वरुप सिंह के समय में खेरवाड़ा उदयपुर में इसे गैर कानूनी घोषित कर दिया था।

  

डाकन प्रथा
         डाकन प्रथा या डायन प्रथा एक कुप्रथा थी जो पहले राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में काफी प्रचलित थी , इसमें ग्रामीण औरतों पर डाकन यानी अपनी तांत्रिक शक्तियों से नन्हें शिशुओं को मारने वाली पर अंधविश्वास से उस पर आरोप लगाकर निर्दयतापूर्ण मार दिया जाता था। इस प्रथा  के कारण सैकड़ों स्त्रियों को मार दिया जाता था। १६वीं शताब्दी में राजपूत रियासतों ने कानून बनाकर इस प्रथा पर रोक लगादी थी। इस प्रथा पर सर्वप्रथम अप्रैल १९५३ ईस्वी में मेवाड़ में महाराणा स्वरुप सिंह के समय में खेरवाड़ा उदयपुर में इसे गैर कानूनी घोषित कर दिया था

प्रथा को रोकने का प्रयत्न
'डाकन' घोषित कर दी गई स्त्री समाज के लिए अभिशाप समझी जाती थी। अतः उस स्त्री को जीवित जलाकर या सिर काटकर या पीट-पीटकर मार दिया जाता था। राज्य द्वारा भी डाकन घोषित स्त्री को मृत्यु दण्ड दिया जाता था। 1852 ई. में मेवाड़ की इस कुप्रथा ने कोर कमाण्डर जे. सी. ब्रुक और मेवाड़ के पॉलिटिकल एजेन्ट जार्ज पैट्रिक लारेन्स का ध्यान इस कृत्य की ओर आकर्षित किया। मेवाड़ के पॉलिटिकल एजेन्ट ने कप्तान ब्रुक के पत्र को महाराणा के पास प्रेषित करते हुए इस प्रथा को तत्काल बन्द करने को कहा। किन्तु महाराणा स्वरूपसिंह ने इस पत्र पर कोई ध्यान नहीं दिया।

1856 ई. में मेवाड़ भील कोर के एक सिपाही ने 'डाकन' घोषित स्त्री की हत्या कर दी। इस पर तत्कालीन ए. जी. जी. ने पॉलिटिकल एजेन्ट जॉर्ज पैट्रिक लॉरेन्स को लिखा कि राज्य में इस प्रकार की घटनाएँ घटित होने पर अपराधी को कठोरतम दण्ड दिया जाय।

दण्ड का प्रावधान

ए. जी. जी. के निरन्तर दबाव के परिणामस्वरूप बड़ी अनिच्छा से महाराणा स्वरूपसिंह ने यह घोषित किया कि यदि कोई व्यक्ति डाकन होने के संदेह होने पर किसी स्त्री को यातना देगा, तो उसे छ: माह कारावास की सजा दी जाएगी। हत्या करने पर उसे हत्यारे के रूप में सजा दी जाएगी। लेकिन महाराणा की इस घोषणा के उपरान्त भी इस तरह की घटनाएँ समय-समय पर होती ही रहीं। यद्यपि ब्रिटिश अधिकारियों और महाराणा द्वारा की गई कार्यवाहियों के द्वारा भी समाज में इस कुप्रथा को पूर्णतः समाप्त तो नहीं किया जा सका, लेकिन 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में डाकनों के प्रति अत्याचारों में कमी अवश्य आ गयी।

ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा डाकन सिद्ध की जा चुकी महिला को मार देने पर रोक तो लगा दी गई, लेकिन अब धूर्त स्त्रियाँ डाकन होने का स्वांग करने लगीं तथा रूढ़िवादी समाज, जो अब भी डाकन भय से ग्रस्त था, ऐसी औरतों से बचने के लिए उनके द्वारा मुँह माँगी वस्तुएँ देने लगा। महाराणा सज्जनसिंह ने ऐसी धूर्त औरतों का देश से निष्कासन करना आरम्भ कर दिया, फिर भी समाज में डाकन भय समाप्त नहीं हुआ।
जयपुर। राज्य विधानसभा ने गुरुवार को राजस्थान डायन-प्रताड़ना निवारण विधेयक, 2015 को ध्वनिमत से पारित कर दिया। महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री अनिता भदेल ने विधेयक को सदन में विचारार्थ प्रस्तुत किया।
विधेयक पर हुई बहस के बाद भदेल ने कहा कि हमारे देश और समाज में डायन प्रताड़ना का वर्षों पुराना अंधविश्वास मानवता के लिए अभिशाप है। उन्होंने कहा कि राज्य में महिलाओं को डायन घोषित कर उनके साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार करने, यहां तक कि उनकी हत्या करने की भी अनेक शिकायतें प्राप्त होती रहती हैं।
उन्होंने ने कहा कि विगत वर्षों में गृह विभाग के आंकड़ों के मुताबिक जनवरी-2010 से दिसंबर-2014 तक डाकन कुरीति के 43 मामले दर्ज किए गए। उन्होंने कहा कि ऐसे हजारों मामले भी हो सकते हैं, जो कि दर्ज नहीं हो पाते। उन्होंने कहा कि अंधविश्वासों की आड़ लेकर महिलाओं का जो उत्पीड़न होता है, उससे संरक्षण के लिए यह विधेयक लाया गया है।
यह एक सामाजिक बुराई है, जिसे दूर करने के लिए समझाइश और जागरूकता के माध्यम से सबको मिलकर प्रयास करने होंगे। उन्होंने कहा कि कई स्थानों पर अशिक्षा और पिछड़ेपन के कारण डायन प्रथा आज भी कायम है। सामूहिक जुर्माने के बारे में उन्होंने कहा कि सामाजिक सुधारों से जुड़े कई विधेयकों में यह प्रावधान पहले से ही है।
महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री ने बताया कि हमारे देश में नारी को उच्च स्थान प्राप्त है। हमारा इतिहास गार्गी जैसी विदूषी और महान महिलाओं से भरा पड़ा है। उन्होंने कहा कि राज्य में वर्तमान में डायन-प्रताड़ना तथा इस तरह की अन्य समान कुरीतियों को प्रतिबंधित करने तथा इनमें आरोपित व्यक्तियों को दण्डित करने के लिए अलग से कोई नियम नहीं हैं।
उन्होंने कहा कि इस विधेयक का उद्देश्य राज्य में डायन प्रताड़ना और अन्य समान कुरीतियों को खत्म करना है। उन्होंने कहा कि यह विधेयक डायन-प्रताड़ना के दुष्परिणाम से निपटने या उसके परिणाम स्वरूप होने वाले अपराधों को नियंत्रित करने में सहायक होगा। इस विधेयक में पीड़िता के पुनरुद्धार के लिए बजट का भी प्रावधान किया गया है।
यह विधेयक स्त्री के प्रति अमानवीय कृत्यों पर रोक लगायेगा। इसके अतिरिक्त विधेयक में महिलाओं को डायन घोषित कर उनके घर और अन्य सम्पत्ति से बेदखल करने को दंडनीय अपराध माना गया है। विधेयक के प्रस्तावित दांडिक प्रावधानों में डायन-प्रताड़ना, किसी स्त्री को डायन का नाम देने और किसी व्यक्ति को हानि पहुंचाने वाली अन्य समान वृत्तियों को शामिल किया गया है। उन्होंने बताया कि विधेयक में डायन चिकित्सक के लिए भी दंड का प्रावधान किया गया है।
उन्होंने कहा कि डायन-प्रताड़ना के परिणाम स्वरूप यदि किसी स्त्री की अप्राकृतिक मृत्यु होती है तो इसके लिए भी विधेयक में दंड का प्रावधान है। यह विधेयक उस स्थान के निवासियों पर सामूहिक जुर्माना अधिरोपित करेगा जहां ऐसा कोई अपराध किया जाता है।
ऐसे जुर्माने से प्राप्त राशि को पीड़ितों के पुनर्वास के लिए उपयोग में लिया जाएगा। विधेयक में यह भी प्रस्ताव किया गया है कि राज्य सरकार समय-समय पर ऐसी पीड़ित महिलाओं के लिए योजनाएं बनाए तथा इस कुरीति के संबंध में व्याप्त अंधविश्वासों के प्रति आमजन में जागरूकता लाने के लिए कार्यक्रम संचालित करे।
इससे पहले सदन ने सदस्यों द्वारा विधेयक को जनमत जानने के लिए परिचारित करने
विच हंटिंग, एक ऐसा शब्द जो अंतर्राष्ट्रीय इतिहास की किताबों में हमने खूब पढ़ा-सुना है। 17वीं-18वीं शताब्दी में जब भी यूरोप में वहां के तथाकथित सामाजिक व धार्मिक नियमों के खिलाफ जाकर कोई व्यक्तिगत निर्णय लेता था, तो उसे समाज के ठेकेदार भूत-भूतनी कह कर समाज से बहिष्कृत कर देते या जला कर मार देते थे। इसी प्रथा को इतिहासकार विच हंटिंग कहते हैं।
rajasthan-witch-hunting
आज राजस्थान के एक गांव में ऐसी ही एक घटना से रूबरू हुआ तो आत्मा कांप उठी। इस कंपन का कारण किसी जीवित प्रेत का डर नहीं, बल्कि उस तथाकथित प्रेत के मासूम चेहरे में छिपा चीत्कार था। यह वही चीत्कार था जिसमें उसके मासूम बच्चों का रुदन छिपा था, यह वही चीत्कार थी जिसमे उसका प्रियतम कराह रहा था।
यह घटना राजस्थान के एक दक्षिणी जिले की है, जहां प्यारे लाल जी का परिवार और उन जैसे अन्य कुछ परिवार जाति पंचायत द्वारा समाज से बहिष्कृत कर दिए जाने के बाद दयनीय जीवन जीने पर मजबूर हो गए हैं। इस सामाजिक बहिष्कार का कारण भी बड़ा ही साधारण है, इन बहिष्कृत परिवारों ने मृत्युभोज को सिरे से नकार दिया था। ये आश्चर्य ही है कि जो मृत्युभोज पहले से गैर-कानूनी है के कारण जाति-पंचायत, जो स्वयं भी गैर-कानूनी है ने तथाकथित सामाजिक नियमों की आड़ लेते हुए देश के संविधान व कानून व्यवस्था को उसका असली चेहरा दिखा ही दिया।
जब मैं इस पूरे मामले की जांच के लिए पीड़ित परिवार से मिला तो पता चला कि प्यारे लाल जी के परिवार को पिछले 5 वर्षों से उनके ही गांव के कुछ प्रभावशाली लोग परेशान कर रहे हैं। इस पूरे प्रकरण की शुरुआत तब हुई जब प्यारेलाल जी ने अपनी व्यक्तिगत ज़मीन किसी कारणवश जाति-पंचायत के फैसले के खिलाफ किसी और को बेच दी। सामाजिक तौर पर मामला इतना गर्माया कि उनको पुलिस की शरण लेनी पड़ी तथा बाद में जाति-पंचायत में जुर्माना राशि भी जमा करवानी पड़ी। हद तो तब हो गयी जब यह जुर्माना राशि लेने के बाद भी उनको जाति से बहिष्कृत कर दिया गया और यह ऐलान करवा दिया गया कि अब इनसे कोई संपर्क नहीं रखेगा अन्यथा उनका हश्र भी यही होगा। इतना ही नहीं उनके साथ कई बार मारपीट भी हुई जिसके कारण उनका एक हाथ भी टूट गया था। आजकल प्यारेलाल जी राजस्थान से बाहर राजकोट में मज़दूरी कर एक निर्वासित का जीवन जीने को मजबूर हैं, क्योंकि उन्हें लगातार धमकाया जा रहा है कि अगर गांव में कदम रखा तो सिर्फ मारा ही नहीं जायेगा बल्कि पूरे गांव में नंगा कर घुमाया जायेगा। यहां मैं यह भी बता दूं कि प्यारे लाल जी शारीरिक रूप से अक्षम हैं।
प्यारेलाल जी के अलावा उनकी पत्नी के खिलाफ भी बहुत सोची-समझी साजिश के तहत कार्य किया जा रहा है और यह अफवाह फैलाई जा रही है कि वह डायन (प्रेतनी) हैं तथा जादू-टोना जानती हैं। जिसका नतीजा यह हुआ कि अब कोई भी उनके घर का खाना, प्रसाद कुछ नहीं खाता। यहां तक कि उनके छोटे बच्चों को भी छोटे-बड़े सभी डायन के बच्चे कह कर अपमानित करते हैं। इन बच्चों के साथ कोई नहीं खेलता। इस तरह का अपमानित बचपन जीकर क्या होगा इन बच्चों का भविष्य? यह सोचकर भी डर लगता है।
हमारे देश का संविधान सबको स्वतंत्रता का अधिकार देता है, परंतु प्यारेलाल जी का निर्वासित जीवन देख यह एहसास होता है कि संविधान किताबों तक ही सीमित है। राजस्थान में डायन एक्ट 2015 बना हुआ है, लेकिन प्रेमा बाई का चीत्कार सुन लगता है शायद हम अब भी विकास और प्रगतिशीलता का खोखला गाना ही गा रहे हैं। आश्चर्य की सीमा तो तब लांघ जाती है जब पता चलता है कि एस.पी. ऑफिस में लिखित शिकायत दर्ज़ करवाने के बाद भी स्थानीय पुलिस एफ.आइ.आर. तक दर्ज नहीं करती और मामले को पारिवारिक विवाद कहकर निपटा देती है।
खैर मामला संगीन है, हालात नाज़ुक हैं और प्रशासन सोया हुआ है। यही तो भारत है, इंडिया से एकदम अलग… सोचता हूं इस पूरे परिदृश्य में चांडाल कौन है प्रेमा बाई, यह समाज या प्रशासन और हम, जो किसी भारतीय नागरिक की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा को तार-तार करने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देते…

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