Tuesday, October 11, 2016

जो जन्मा है उसे बुढ़ापे का सामना भी करना ही है

जो जन्मा है उसे बुढ़ापे का सामना भी करना ही है, यह बात हम में से ज्यादातर लोगों को समझ ही नहीं आती। यही कारण है कि हम अपने बुजुर्गों को स्टोर रूम में पटक कर भूल जाते हैं। उनके प्रति प्रेम उमड़ता भी है तो महीने के पहले सप्ताह में जब पेंशन की राशि मिलना होती है। कितना अफसोसजनक है कि सैर सपाटे का प्लान बनाते वक्त बच्चों की जिद्द पर अपने पालतु डॉग को तो साथ ले जाते हैंं लेकिन इन बुजुर्गों को घर की चौकीदारी के लिए छोड़ जाते हैं। पता नहीं हमें यह याद क्यों नहीं रहता कि कल हमारे बच्चे भी बड़े होंगे और तब तक वह स्टोर रूम भी खाली हो जाएगा।
थरथराते हाथों में पकड़े पेन से वह उस फार्म पर दस्तखत करने की कोशिश कर रहे थे कि अचानक उनका हाथ फिसल गया। खुद को संभालने की कोशिश में उनके हाथ से पेन छूट कर नीचे गिर गया । उन्हेें साथ लेकर आया किशोर जोर से चिल्ला पड़ा क्या बाबा आप पेन भी ढंग से नहीं पकड़ सकते। जल्दी क रिएना, मेरे फ्रेंड कब से इंतजार कर रहे हैं।
वृद्ध ने उस किशोर, जो शायद उनका पोता था, की ओर कातर दृष्टि से देखा तो उनकी आंखों से आंसू की बूंदें बाहर आने को आतुर नजर आ रही थी। जैसे-तैसे उन्होंने अपने मटमैले कुर्ते के एक किनारे से आंखों को साफ किया। इस सारे घटनाक्रम को माल रोड स्थित डाक घर की उस खिड़की के पास खड़े अन्य लोग भी देख रहे थे। उस किशोर के रूखे व्यवहार पर इन लोगों ने भी उसे घूर कर देखा लेकिन उसे समझाने का साहस शायद इसीलिए नहीं किया क्योंकि कुछ पल पहले ही वे उसका अपने दादा के साथ व्यवहार देख चुके थे।मैं अपना काम निपटाकर बाहर निकल कर थोड़ा आगे बढ़ा ही था कि सामने से एक अन्य बुजुर्ग एक हाथ में स्कूल बेग और दूसरे हाथ में पोते का हाथ थामे उसकी आइसक्रीम की जिद्द पूरी करने के लिए दुकान की तरफ बढ़ रहे थे। मुझे लगा डाक घर मेंं जो पोता अपने दादा पर झल्लाया था बचपन में उसे भी दादा ने इसी तरह प्यार किया होगा। बंदरों की तरह उछल कूद कर के उसे हंसाया होगा। तुतलाती जुबान में चल मेरे घोड़े कहते हुए उसे कमर पर बैठा कर घर आंगन में घुमाते वक्त पसलियों मेेंं उसकी लात और घंूसों की मार हंसते हुए सहने के साथ घोड़े की रपतार तेज कर पोते को खुश किया होगा।
बचपन में हम सब ने दादा-दादी, नाना-नानी के कपड़े भी खराब किए, उनके बाल खींचे, जो चीज हाथ में आई रोते हुए वह उन्हेंं मारने के लिए भी फेंकी। इस सब के बाद भी हमारी आदतों क ो हमारे बुजुर्गों ने बच्चा मानकर नजर अंदाज कर दिया तो इसलिए कि उनके मन मेंं सदैव यह भाव रहा कि है तो हमारा ही खून। फिर ऐसा क्यों होता है कि हम जैसे जैसे बड़े होते जाते हैं हमारी प्राथमिकताएं तो बदल ही जाती हैं जो लोग हमारी एक कराह पर पूरी रात जागते हुए गुजार देते थे उनके प्रति हम इतने निष्ठुर भी हो जाते हैं। नया घर बनाते वक्त हर बच्चे के लिए उसका एक बड़ा कमरा तय रहता है, कार के लिए गैराज बनाना पहली प्राथमिकता होती है लेकिन घर के बुजुर्ग के लिए या तो स्टोर रूम जितनी जगह निकाल पाते हैं या जहां सारा अटाला रखना तय करते हैं वहीं इन लोगों का भी पलंग डाल देते हैं। बैल बूढ़ा हो जाए, गाय दूध देने लायक न रहे तो कई बार किसान उन्हेें कसाई को थमा देता है। अभी हमें समाज और अपने स्टेटस की चिंता रहती है इसलिए हम इतनी रियायत बरतते हैं कि अपने बुजुर्गों को घरों में रखते तो हैं लेकिन यह सतर्कता बरतते हैं कि उनका कमरा नितांत एकांत में हो जिससे हमारी लाइफ में खलल ना पड़े।
भरे-पूरे परिवार के बाद भी हमारे बुजुर्ग एकाकीपन के शिकार इसलिए हैं कि हमें उनकी फिक्र नहीं रहती। उन्होंने तो अपना कत्र्तव्य समझकर, अपना पेट काट कर हमारी परवरिश की। हमारी छोटी-छोटी खुशियों पर अपनी इच्छाओं की बलि चढ़ा दी। जिनकी बदौलत हम आज समाज में सिर ऊंचा कर शान से घूमने की स्थिति में हैं, अब वही हमें बोझ लगते हैं।
हमअपने बुजुर्गों के त्याग तो भूल ही रहे हैं, अपने दायित्व भी याद करना नहीं चाहते। नई कार की पार्टी तो हम दोस्तों के बीच देर रात तक मना सकते हैं लेकिन अपने बुजुर्गों को मंदिर दर्शन कराने की हमें फुर्सत ही नहीं मिल पाती। एक पल को सोचेंगे तो ताज्जुब होगा कि एक ही छत के नीचे रहने के बाद भी हम कई दिनों से उस स्टोर रूम तक गए ही नहीं। सैर सपाटे का प्रोग्राम बनाते वक्त बच्चों की जिद्द पूरी करने के लिए हम पालतू डॉग को साथ ले जाना तो अपनी शान समझते हैं लेकिन हमारी रुलाई को हंसी में बदलने के लिए जो कई वर्षों तक कु त्ते, बिल्ली, शेर की आवाज निकालकर हमें खुश करते रहे उन्हें साथ ले जाना हमें रास नहीं आता।
हमें जो संस्कार मिले उसके ठीक विपरीत कार्य करने से पहले हमें यह तो याद रख ही लेना चाहिए कि हमारे बच्चे काफी कुछ हम से भी सीखते हैं। कल ये बच्चे भी बड़े होंगे ही तब तक स्टोर रूम वाला वह कमरा भी खाली हो जाएगा। ऐसा न हो कि हमारे बच्चे तब हमें आइना दिखाएं तो उसमें हमारी सूरत हमें भयावह नजर आए। हम अपने हाथों अपना कल सुखद बनाने के बारे में आज ही से सोचना शुरू कर दे यही बेहतर है वरना तो बेरहम वक्त किसी को माफ नहीं करता।

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