Thursday, October 13, 2016

हमारे नेता खुद को अभिव्यक्त करने में कानून को नहीं मानते

हमारे नेता खुद को अभिव्यक्त करने में कानून को नहीं मानते. या वे अभिव्यक्ति की आजादी के इतने बड़े समर्थक हैं कि कानून के दायरे में रहकर उन्हें अपनी बात कहना गवारा नहीं होता. ये वही नेता हैं जिन्होंने संविधान की शपथ ली है. उन्होंने शपथ ली है कि वे संविधान का पालन करेंगे. हमारे संविधान ने अभिव्यक्ति की आजादी के लिए कुछ सीमाएं तय की हैं. लेकिन उन सीमाओं को हमारे नेता ऐसे तोड़ रहे हैं जैसे अब उसकी कोई जरूरत नहीं है. वे स्वच्छंद होकर रहना चाहते हैं. कानून और संविधान से परे. हाल में भाजपा नेता अमित शाह और उत्तरप्रदेश के समाजवादी मंत्री आजम खान के बयान संविधान के दायरे से बाहर के पाये गये. चुनाव आयोग को उनकी सभाओं पर पाबंदी लगानी पड़ी. बाद में भरोसा दिलाने के बाद आयोग ने उन्हें सभा करने की अनुमति दी. देश में चुनाव हो रहे हैं.चुनाव में नेताओं के भाषण सार्वजनिक तौर पर होते हैं. ऐसे में उनके बयान सामने आ गये. फर्ज करिए कि आम दिनों में वे किस तरह संविधान की सीमाओं का उल्लंघन करते होंगे. अपने कामकाज और व्यवहार में वे हर दिन संविधान की धाराओं का कितना पालन करते होंगे? अभी तो चुनाव आयोग एक तरह से उनकी गतिविधियों की निगरानी कर रहा है. आम दिनों में या तो निगरानी नहीं होती या निगरानी करने वाली मशीनरी उनके प्रभाव में होती है. महिला मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो चुनाव आयोग के आदेशों को ही मानने से इंकार कर दिया था. इससे  नेताओं की मानसिकता का पता चलता है. वे नहीं चाहते कि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाएं मजबूत हों.

इंडियन पेनल कोड की धारा 153 ए में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति अपने कर्म, वचन या दूसरे किसी भी तरीके से धार्मिक, नस्लीय, जातीय, सामाजिक, सामुदायिक, भाषाई या किसी भी  आधार पर भेदभाव फैलाने की कोशिश करता है या समाज की शांति को बिगाड़ने की कोशिश करता है तो उसे तीन साल की सजा या आर्थिक जुर्माना या दोनों दंड लगाया जा सकता है. आजादी के बाद 1957 में रामजी लाल मोदी को एक समुदाय विशेष के खिलाफ आपत्तिजनक काटरून और लेख प्रकाशित करने के आरोप में आइपीसी की धारा 295 ए के तहत 12 महीने की जेल की सजा हुई थी. तब से लेकर अब तक सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने के अनेक मामले आ चुके हैं. देवी-देवताओं के काटरून पर विवाद हो चुका है तो किसी नेता की अंत्येष्ठि के दौरान सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने के आरोप में पुलिस कार्रवाई कर चुकी है.

लेकिन अब तक किसी नेता के आपत्तिजनक भाषण को लेकर कड़ी अथवा बड़ी कार्रवाई नहीं हो सकी है. जानकारों का कहना है कि कानून की धाराओं में ही ऐसे छेद हैं जिससे होकर नेता आसानी से निकल जाते हैं. यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट को केंद्र सरकार को हाल में निर्देश देना पड़ा कि वह विद्ेष पैदा करने वाले नेताओं के भाषण पर अंकुश लगाने के लिए एक गाइड लाइन बनाये. यह काम अब लॉ कमीशन करेगा. इसे हम ऐसे भी कह सकते हैं कि 1834 में बने पहले लॉ कमीशन के सामने ऐसी स्थिति ही नहीं आयी थी कि समाज में वैमनस्यता फैलाने के हथकंड़े अपनाये जायेंगे और उसे रोकने के लिए किसी गाइड लाइन की जरूरत पड़ेगी. पहला लॉ कमीशन लार्ड मैकाले की अध्यक्षता में बना था. तब अंग्रेजों का देश पर शासन था. आजादी के बाद 1955 में लॉ कमीशन बना और अब तक 20 लॉ कमीशन बन चुके हैं. लॉ कमीशन का टर्म तीन साल के लिए होता है. मौजूदा लॉ कमीशन का कार्यकाल 31 अगस्त 2015 को समाप्त हो रहा है. तब तक नेताओं के विद्ेष फैलाने वाले भाषण के बारे में कोई गाइड लाइन बन जायेगी, इसकी हम उम्मीद ही कर सकते हैं. दरअसल, संविधान निर्माताओं ने तब सोचा नहीं होगा कि देश की राजनीति एक दिन ऐसी जगह पहुंच जायेगी, जिसके नियंत्रण के लिए कानून बनाना पड़ेगा. कोई एक समुदाय विशेष को इंगित कर उसके खिलाफ दुराग्रह फैलाता है तो दूसरा किसी नेता का  बोटी-बोटी काट डालने का उद्घोष करता है. एक पल के लिए मान लिया जाये कि नेताओं के ये भाषण सच में बदल जायें तो हमारे समाज में क्या होगा? सामाजिक वैमनस्यता, सौहार्द बिगाड़कर और अशांति के बीच देश की तरक्की कतई नहीं होगी. यह मानी हुई बात है कि घर में शांति रहेगी, तभी उसका विकास भी होगा. देश के अंदरूनी हालत जब तक सौहार्दपूर्ण नहीं रहेंगे, तब तक भारत के महाशक्ति बनने का सपना पूरा नहीं होगा.

सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ने वाले नेताओं के भाषणों को क्या किसी कानून के सहारे रोका जा सकता है? नेताओं में कानून के प्रति डर या इतना सम्मान ही होता तो आज जैसी नौबत ही क्यों आती. जानकार मानते हैं कि यह मामला कानून से नियंत्रित नहीं होगा. यह राजनीति से जुड़ा प्रश्न है और उसका समाधान भी उसी के जरिए हो सकता है. नेताओं के भाषण उनकी राजनीति पर आधारित होते हैं. अगर राजनीति का मूल समाज में कड़वाहट पैदा करना होगा तो उसके नेताओं के मीठे बोल कहां से आयेंगे. विद्वेष पैदा करने वाले भाषण का उत्स उस राजनीति से भी जुड़ा है जिसका सामाजिक संदर्भ से बहुत वास्ता नहीं रह गया है. राजनीति अगर समाज से जुड़ी होगी तो नेताओं के भाषण सामाजिक स्तर पर कायम परेशानियों को दूर करने के उपायों पर केंद्रीत होंगे. मगर आज राजनीति का चरित्र बदल गया है. वह मौजूदा संकट की ओर नहीं देखती और न ही उसका हल बताती है. नेता भाषण देते हैं कि भारत को विश्व में नंबर एक देश बनाना है, पर यह होगा कैसे, इसके बारे में वे कुछ नहीं बोलते.         

इस समय महंगाई और भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा है. लेकिन ये दोनों मुद्दे दूसरे-तीसरे आम चुनाव से लेकर अब तक उठते रहे हैं. उन चुनावों में भी महंगाई कम करने और भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंकने के भाषण दिये जाते थे. पर उन भाषणों का क्या हुआ? वास्तविकता समाने है. लाखों करोड़ के भ्रष्टाचार हो जाते हैं. महंगाई आम लोगों का जीना मुहाल कर देती है, और नेता  बिना सिर-पैर के भाषण देते रहते हैं. देश चलाने का दावा करते हुए चुनाव प्रचार में उतरे नेता क्यों नहीं बताते कि इतने समय में महंगाई नियंत्रित हो जायेगी. यही सवाल भ्रष्टाचार के बारे में भी है. शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, पीने के पानी के इंतजाम के बारे में वे समयबद्ध प्रोग्राम क्यों नहीं बताते. सच यही है कि इन मुद्दों की हकीकत और फसाने उन्हें भी मालूम हैं. उन्हें पता है कि इन मुद्दों का समाधान उनके पास नहीं है. इसलिए वे एक-दूसरे के खिलाफ उत्तेजक बयान देते हैं. यही उनकी पॉलिटिक्स है.

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