इसे क्षत्रिय समाज की विडम्बना ही कहेंगे कि जिस क्षत्रिय समाज के नेताओं ने सदियों तक विश्व का नेतृत्व किया, इस पृथ्वी पर राज किया, क्षत्रिय राजाओं को उनके आदर्श पूर्ण और जनसरोकारों से परिपूर्ण शासन देने के बदले जनता ने उन्हें भगवान माना. आज भी देश की जनता क्षत्रिय राजा श्री राम के शासन और उनके जैसे नेतृत्व की आशा करती है. यदि कोई नेता सुशासन की बात करता है तो जनता उसमें भी श्री राम की छवि देखने की चेष्टा करती है. जो साफ करता है कि जनता क्षत्रियों के नेतृत्व में ही ज्यादा खुश थी. लेकिन अफसोस सदियों तक प्रजा को आदर्श नेतृत्व देने वाला समाज आज नेतृत्व के मामले में दोराहे पर खड़ा है. ऐसा नहीं है कि आज भी क्षत्रिय समाज में नेतृत्व प्रदान करने वाले सक्षम नेता पैदा नहीं हो रहे. आजादी के बाद देश की सत्ता पर काबिज पूंजीपति व बुद्धिजीवी षड्यंत्रकारियों द्वारा क्षत्रिय समाज को गर्त में डालने के कुत्सित प्रयासों के बावजूद भी क्षत्रिय समाज ने देश को राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, दो दो प्रधानमंत्री, सेनापति, कई प्रदेशों के मुख्यमंत्री, राजनैतिक पार्टियों के राष्ट्रीय अध्यक्ष आदि कई नेतृत्व दिए है. आज भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में सबसे ज्यादा राजपूत जाति के मंत्री ही है, वहीं सत्ताधारी दल ने भी क्षत्रिय राजनाथ सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़कर क्षत्रिय नेतृत्व पर भरोसा जताया. यदि अब तक के प्रधानमंत्रियों के मंत्रिमंडल पर नजर डाली जाय तो मोदी सरकार का मंत्रिमंडल देश का ऐसा पहला मंत्रिमंडल होगा जो जातीय आधार पर ना होकर योग्यता के आधार पर गठित हुआ है. इस तरह योग्यता के आधार पर गठित मंत्रिमंडल में क्षत्रिय मंत्रियों की ज्यादा संख्या और राजनैतिक पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व में क्षत्रिय नेताओं की दमदार उपस्थिति साफ करती है कि क्षत्रिय समाज आज भी नेतृत्व देने में सक्षम है और औरों से आगे है. इतना सब कुछ होने के बावजूद भी समस्या यह है कि खुद क्षत्रिय समाज नेतृत्व के मामले में खुद निर्धन है, वर्तमान में ऐसा कोई नेता नहीं जो क्षत्रिय समाज को एक जगह एकत्र कर सके, ऐसा कोई क्षत्रिय नेता नहीं जिसकी एक पुकार पर क्षत्रिय समाज उसके पीछे पीछे चल पड़े जिस तरह खानवा के युद्ध मैदान में राणा सांगा के नेतृत्व में एकत्र हुआ था.
सिंह गर्जना टीम ने इस सम्बन्ध में कई क्षत्रिय विचारकों द्वारा लिखा साहित्य पढा, खासकर आयुवान सिंह जी शेखावत ने इस सम्बन्ध में अपनी पुस्तक राजपूत और भविष्य में खासा प्रकाश डाला है, कई सामाजिक कार्यकर्ताओं, सामाजिक, राजनैतिक नेताओं से बात की तो कई बातें, कमियां, खासियतें सामने आई कि क्षत्रिय समाज आज भी नेतृत्व करने में सक्षम है फिर खुद क्षत्रिय समाज नेतृत्व के मामले में निधन क्यों ?
एकता की कमी की बातें ..
कई लोगों ने विचार व्यक्त किया कि क्षत्रिय समाज कभी एक नहीं हो सकता. पर हम ऐसा नहीं मानते क्योंकि जब जब देश व समाज को जरुरत पड़ी क्षत्रिय समाज एक हुआ है, बाबर के साथ युद्ध में सभी क्षत्रिय राजाओं ने राणा सांगा के नेतृत्व में युद्ध लड़ा था. वर्तमान लोकतंत्र में भी विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में क्षत्रिय समाज ने पूरी एकजुटता दिखाई थी. वी.पी.सिंह के बाद भी कई अवसरों पर देखा है समाज अपने राजनेताओं व सामाजिक नेताओं के आव्हान पर भारी संख्या में एकत्र हुआ है, चाहे दिल्ली हो, जयपुर का अमरूदों का बाग हो, क्षत्रिय समाज नेतृत्व की आस लिए हर बार लाखों की संख्या में जुटा है लेकिन हर बार इस तरह के आयोजनों के बाद समाज ने अपने आपको नेतृत्व के मामले में हमेशा ठगा हुआ महसूस किया है. हर वर्ष नए नए सामाजिक, राजनैतिक क्षत्रिय नेता पैदा होते है जो आदर्शों व आश्वासनों की गठरी में कई सामाजिक योजनाएं लेकर आते है. समाज उन्हें नोटिस भी करता है पर आने वाले नेता समाज की आशाओं के अनुरूप खरे नहीं उतरते. हर कोई समाज को अपने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ पूर्ति के लिए प्रयोग करने आता है और समाज व राजनीति में स्थापित होते ही समाज को भूल जाता है. ऐसे में समाज आने नेताओं के सही गलत होने की खोज में भटक कर रह जाता है और सही व्यक्ति को समर्थन नहीं मिलता. इस तरह अपने स्वार्थों के वशीभूत समाज के नाम पर नेतृत्व की भूख को शांत करने की चाहत रखने वाले अस्पष्ट विचारधारा और अपूर्ण कार्यप्रणाली की समझ रखने वाले ऐसे नेताओं के प्रथम प्रयास विफल हो जाते है तब वे समाज को पीछे नहीं चलने का दोष देकर किनारे हो लेते। वास्तव में क्षत्रिय समाज अन्य समुदायों की तरह कोई भेड़ बकरी नहीं है जो चाहे जिसके पीछे हो जाये। जो व्यक्ति अपने निश्चित सिद्धांतों को सामाजिक सिद्धांतों के रूप में रखकर उन्हें सामाजिक जीवन में ढालने की क्षमता रखता हो, समाज उसी के पीछे चलने को तत्पर रहता है। और इतिहास साक्षी है कि ऐसे ही नेता आगे बढे है, लेकिन ऐसे व्यक्ति विरले ही मिलते है.
वंशानुगत नेतृत्व स्वीकारना
क्षत्रिय शासन में राजा के बाद उसके वंशज का राज्याभिषेक होना प्रचलित होने के चलते क्षत्रिय समाज ने वंशानुगत नेतृत्व प्रथा स्वीकार कर ली. जिसके बहुत से दुष्परिणाम समाज को भुगतने पड़े. बल्कि हम तो कहेंगे कि समाज के पतन के कारणों में यह सबसे महत्त्वपूर्ण कारण रहा है कि क्षत्रिय समाज में आँख मूंद कर बिना योग्यता देखे परखे वंशानुगत नेतृत्व स्वीकार कर लिया गया. समाज उत्थान के लिए नेतृत्व की आवश्यकता और वंशानुगत नेतृत्व पर महान क्षत्रिय विचारक आयुवान सिंह शेखावत लिखते है कि “जब हम पतन और उत्थान के संधि स्थल पर खड़े होकर उत्थान के मार्ग पर अग्रसर होने को पैर बढाते हैं तब हमें सहसा जिस प्रथम आवश्यकता की अनुभूति होती है, वह है योग्य नेतृत्व। योग्य नेतृत्व स्वयं प्रकाशित, स्वयं सिद्ध और स्वयं निर्मित्त होता है। फिर भी सामाजिक वातावरण और देश-कालगत परिस्थितियां उसकी रूपरेखा को बनाने और नियंत्रित करने में बहुत बड़ा भाग लेती हैं। किसी के नेतृत्व में चलने वाला समाज यदि व्यक्तिवादी या रूढिवादी है तो उस समाज में स्वाभाविक और योग्य नेतृत्व की उन्नति के लिए अधिक अवसर नहीं रहता। जैसा की बताया जा चुका है, राजपूत जाति में नेतृत्व अब तक वंशानुगत, पद और आर्थिक सम्पन्नता के आधार पर चला आया है। वह समाज कितना अभागा है जहाँ गुणों और सिद्धांतों का अनुकरण न होकर किसी तथाकथित उच्च घराने में जन्म लेने वाले अस्थि-मांस के क्षणभंगुर मानव का अन्धानुकरण किया जाता है। सैंकड़ों वर्षों से पालित और पोषित इस समाज के इन कुसंस्कारों को आज दूर करने की बड़ी आवश्यकता है ।“
वंशानुगत नेतृत्व स्वीकारने के दुष्परिणाम मुगल व अंग्रेजकाल का इतिहास पढने पर हमारे सामने स्वतः दृष्टिगोचर हो जाते है. आजादी के समय को भी देखें तो आप पायेंगे कि समाज जिन राजाओं का आँख मूंदकर समर्थन करता आ रहा था. जो समाज सदियों से भारत भूमि के लिए सबसे ज्यादा बलिदान देता आया था वह देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में जन साधारण के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर साथ तक नहीं दे सका. और राजाओं की राज्यलिप्सा की पूर्ति में सहायक बन आज जनता की नजर में मुगलों, अंग्रेजों का पिट्ठू होने के आरोप झेल रहा है. इन वंशानुगत राजाओं की अयोग्यता का इससे बड़ा प्रमाण क्या कि सदियों से लाखों, करोड़ों राजपूतों व अपने पूर्वजों के बलिदान व संघर्ष से पाया राज्य बिना संघर्ष किये सिर्फ एक हस्ताक्षर कर इन्होंने खो दिया.
अफसोस इस बात का है कि आज भी हम इस रुढिवादी वंशानुगत नेतृत्व स्वीकारने की मानसिक दासता से बाहर नहीं निकले है, आज भी हम आम योग्य क्षत्रिय नेता को छोड़कर राजपरिवारों के पीछे भागते है. हमारी इस मानसिकता का फायदा राजनैतिक पार्टियाँ भी खूब उठाती है. जिस चुनाव क्षेत्र में हम बहुमत में होते है वहां पार्टियाँ किसी राजपरिवार के अयोग्य, संस्कारहीन, अय्याश, लम्पट सदस्य को टिकट देती है तो भी हम आँख मूंदकर उसकी जय जयकार करते हुए उसके पीछे हो लेते है. और चुनाव जीताने के बाद अपने आपको ठगा हुआ महसूस करते है क्योंकि राजमहलों में आम राजपूत का प्रवेश पहले भी बंद था और आज भी बंद है.
महत्वाकांक्षा
जैसा कि ऊपर लिखा जा चूका है प्रति वर्ष समाज के सामने आदर्शों व सिद्धांतों की गठरी लिए अपनी नेतृत्व देने की भूख लिए कई अति महत्वाकांक्षी नेता आते है और थोड़े समय बाद ही वे समाजिक परिदृश्य से बाहर हो जाते है. दरअसल आज समाज सेवा व समाज का नेतृत्व मिलना राजनैतिक सफलता की पहली सीढी और शार्टकट रास्ता माना जाता है. अतरू राजनैतिक सफलता की कामना लेकर आने वाले नेता समाज को सीढी की तरह इस्तेमाल कर समाज की ताकत दिखा कर किसी राजनैतिक पार्टी में स्थापित हो जाते है और स्थापित होने के बाद समाज को भूल जाते है. अक्सर सोशियल साइट्स पर क्षत्रिय युवकों द्वारा प्रदर्शित चिंता पढने को मिलती है कि हमें एक होना चाहिए, लेकिन इन साइट्स पर भी इस एकता की चाह के बाद अनेकता के दर्शन आम बात है, हर कोई अपने नेतृत्व में एक समूह बनाना चाहता है भले उसके समूह में सिर्फ चार व्यक्ति ही हो. ठीक इसी तरह यदि सामाजिक संगठनों पर नजर डाले तो पायेंगे कि थोड़े दिन किसी संगठन से जुड़ते ही व्यक्ति सीधा उसका नेतृत्व पाना चाहता है. जिस व्यक्ति ने वर्षों मेहनत कर संगठन खड़ा किया उस पर नवागुंतक बिना कुछ किये कब्जा जमाने की फिराक में रहता है. कभी एक क्षत्रिय महासभा हुआ करती थी लेकिन आज राजधानी दिल्ली में देखें तो कई अखिल भारतीय, अंतराष्ट्रीय, ब्रह्माण्ड क्षत्रिय महासभाएं अस्तित्व में है. लेकिन जब इन कथित राष्ट्रीय संगठनों की राष्ट्रीय कार्यकारणी बैठकें देखें तब अखिल भारतीय होने का दम भरने वाली महासभा गली के संगठन जितनी संख्या भी नहीं जुटा सकती. कुकरमुत्तों की तरह उगे संगठनों को देखने पर यह साफ जाहिर होता है कि समाज को एक मजबूत नेतृत्व मिलने की राह में इस तरह की हर व्यक्ति की नेतृत्व देने की मानसिकता व महत्वाकांक्षा भी रोड़ा है. एक व्यक्ति समाज हित के नाम से किसी समाज विरोधी एक व्यक्ति की हत्या कर आता है, या किसी को थप्पड़ मार आता है और चाहता है कि अब इस कार्य के बदले ही उसे समाज अपना राष्ट्रीय नेतृत्व सौंप दें. तो कोई एक समाज का भावुक मुद्दा उठाकर इस तरह की कामना करता है.
पूंजी का असर
समाज को वास्तविक नेतृत्व मिलने में धन भी एक बहुत रोड़ा है. अथाह पूंजी आज नेतृत्व के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता है. सामज के सामने ऐसे कई आदर्श, सिद्धांत, कर्मठ, योग्य, ईमानदार व्यक्ति नेतृत्व के लिए आते है लेकिन उनके पास पूंजी नहीं होती और वे बिना पूंजी के आगे नहीं बढ पाते. इसके ठीक विपरीत देखा गया कि सामाजिक कार्यक्रमों में मंच पर ऐसे व्यक्ति आसीन रहते है जिनकी पृष्ठभूमि अपराधिक होती है, जिन्होंने समाज के नियम विरुद्ध शादी ब्याह किये होते है, जिनके व्यवसायिक पेशे क्षत्रिय समाज की गरिमा के प्रतिकूल होते है, वे अपने धनबल के सहारे दिखाई पड़ते है. धनबल के सहारे ऐसे भ्रष्ट व्यक्ति महिमामंडित होकर समाज का नेतृत्व करने आगे आ जाते है. लेकिन वे समाज का कभी हित नहीं सोचते सिर्फ अपने हित में सामाजिक भावनाओं का दोहन मात्र करते है. आज क्षत्रिय समाज के सामने ये आचरणहीन, गैर सामाजिक, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले धनी व्यक्ति सबसे बड़ी समस्या है. ऐसे व्यक्ति महिमामंडित होकर अन्य समुदायों में क्षत्रिय समाज की प्रतिष्ठा को भारी क्षति पहुंचा रहे है.
राजनेताओं का सामाजिक नहीं रह पाना
समाज सेवा के नाम पर समाज का नेतृत्व करने वाले ज्यादातर नेताओं का अगला लक्ष्य राजनीति होता है. जो किसी भी क्षत्रिय के लिए होना भी चाहिए. लेकिन यही बात समाज के नेतृत्व के लिए बड़ी समस्या भी है क्योंकि राजनीति में स्थापित होने के बाद नेताओं की प्राथमिकता बदल जाती है. वे सामाजिक नहीं रह पाते और अपनी पार्टी की विचारधारा के अनुरूप आचरण करते है. कई बार देखा गया कि समाज के दम पर नेता बने राजनेता पार्टी विचारधारा के अनुरूप क्षत्रिय समाज विरोधी कार्य भी कर बैठते है. जबकि अन्य जातियों के नेता राजनैतिक पार्टियों में रहते रहने के बावजूद अपनी जातीय प्राथमिकता नहीं बदलते.
अतः राजपूत समाज को चाहिये कि वह नेतृत्व के मामले में वंशानुगत, पद और आर्थिक संपन्नता व रूढिगत आधार पर चली आ रही व्यवस्था व मानसिकता से निकले और ऐसे व्यक्तियों को नेतृत्व सौंपे जिनकी विचारधारा में समाज के सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा, क्षात्र धर्म का पालन करते हुए सिद्धांतों पर चलने के गुण, समाज के प्रति पीड़ा, ध्येय व वचन पर दृढ़ता, अनुशासन, दया, उदारता, विनय, क्षमा के साथ सात्विक क्रोध, स्वाभिमान, संघर्षप्रियता, त्याग, निरंतर क्रियाशीलता आदि स्वाभाविक क्षत्रिय गुण मौजूद हो, ऐसे ही योग्य व्यक्ति समाज का वास्तविक नेतृत्व कर सही दिशा दे सकते है।
समाज को वास्तविक नेतृत्व मिलने के मामले में आयुवान सिंह जी शेखावत राजपूत और भविष्य में लिखते है “वास्तविक और योग्य नेतृत्व स्वयं विकसित और निर्मित होता है, वह बनाने तथा चुनने से नहीं बनता। मेरा तो दृढ विश्वास है कि जब तक समाज को स्वयं-विकसित और स्वयं-सिद्ध नेतृत्व नहीं मिलेगा तब तक उसे सच्चा नेतृत्व मिल ही नहीं सकता और जब तक वास्तविक नेतृत्व नहीं मिलता तब तक उन्नति के रूप में हमारा सोचना व्यर्थ ही होगा।”
सिंह गर्जना टीम ने इस सम्बन्ध में कई क्षत्रिय विचारकों द्वारा लिखा साहित्य पढा, खासकर आयुवान सिंह जी शेखावत ने इस सम्बन्ध में अपनी पुस्तक राजपूत और भविष्य में खासा प्रकाश डाला है, कई सामाजिक कार्यकर्ताओं, सामाजिक, राजनैतिक नेताओं से बात की तो कई बातें, कमियां, खासियतें सामने आई कि क्षत्रिय समाज आज भी नेतृत्व करने में सक्षम है फिर खुद क्षत्रिय समाज नेतृत्व के मामले में निधन क्यों ?
एकता की कमी की बातें ..
कई लोगों ने विचार व्यक्त किया कि क्षत्रिय समाज कभी एक नहीं हो सकता. पर हम ऐसा नहीं मानते क्योंकि जब जब देश व समाज को जरुरत पड़ी क्षत्रिय समाज एक हुआ है, बाबर के साथ युद्ध में सभी क्षत्रिय राजाओं ने राणा सांगा के नेतृत्व में युद्ध लड़ा था. वर्तमान लोकतंत्र में भी विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में क्षत्रिय समाज ने पूरी एकजुटता दिखाई थी. वी.पी.सिंह के बाद भी कई अवसरों पर देखा है समाज अपने राजनेताओं व सामाजिक नेताओं के आव्हान पर भारी संख्या में एकत्र हुआ है, चाहे दिल्ली हो, जयपुर का अमरूदों का बाग हो, क्षत्रिय समाज नेतृत्व की आस लिए हर बार लाखों की संख्या में जुटा है लेकिन हर बार इस तरह के आयोजनों के बाद समाज ने अपने आपको नेतृत्व के मामले में हमेशा ठगा हुआ महसूस किया है. हर वर्ष नए नए सामाजिक, राजनैतिक क्षत्रिय नेता पैदा होते है जो आदर्शों व आश्वासनों की गठरी में कई सामाजिक योजनाएं लेकर आते है. समाज उन्हें नोटिस भी करता है पर आने वाले नेता समाज की आशाओं के अनुरूप खरे नहीं उतरते. हर कोई समाज को अपने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ पूर्ति के लिए प्रयोग करने आता है और समाज व राजनीति में स्थापित होते ही समाज को भूल जाता है. ऐसे में समाज आने नेताओं के सही गलत होने की खोज में भटक कर रह जाता है और सही व्यक्ति को समर्थन नहीं मिलता. इस तरह अपने स्वार्थों के वशीभूत समाज के नाम पर नेतृत्व की भूख को शांत करने की चाहत रखने वाले अस्पष्ट विचारधारा और अपूर्ण कार्यप्रणाली की समझ रखने वाले ऐसे नेताओं के प्रथम प्रयास विफल हो जाते है तब वे समाज को पीछे नहीं चलने का दोष देकर किनारे हो लेते। वास्तव में क्षत्रिय समाज अन्य समुदायों की तरह कोई भेड़ बकरी नहीं है जो चाहे जिसके पीछे हो जाये। जो व्यक्ति अपने निश्चित सिद्धांतों को सामाजिक सिद्धांतों के रूप में रखकर उन्हें सामाजिक जीवन में ढालने की क्षमता रखता हो, समाज उसी के पीछे चलने को तत्पर रहता है। और इतिहास साक्षी है कि ऐसे ही नेता आगे बढे है, लेकिन ऐसे व्यक्ति विरले ही मिलते है.
वंशानुगत नेतृत्व स्वीकारना
क्षत्रिय शासन में राजा के बाद उसके वंशज का राज्याभिषेक होना प्रचलित होने के चलते क्षत्रिय समाज ने वंशानुगत नेतृत्व प्रथा स्वीकार कर ली. जिसके बहुत से दुष्परिणाम समाज को भुगतने पड़े. बल्कि हम तो कहेंगे कि समाज के पतन के कारणों में यह सबसे महत्त्वपूर्ण कारण रहा है कि क्षत्रिय समाज में आँख मूंद कर बिना योग्यता देखे परखे वंशानुगत नेतृत्व स्वीकार कर लिया गया. समाज उत्थान के लिए नेतृत्व की आवश्यकता और वंशानुगत नेतृत्व पर महान क्षत्रिय विचारक आयुवान सिंह शेखावत लिखते है कि “जब हम पतन और उत्थान के संधि स्थल पर खड़े होकर उत्थान के मार्ग पर अग्रसर होने को पैर बढाते हैं तब हमें सहसा जिस प्रथम आवश्यकता की अनुभूति होती है, वह है योग्य नेतृत्व। योग्य नेतृत्व स्वयं प्रकाशित, स्वयं सिद्ध और स्वयं निर्मित्त होता है। फिर भी सामाजिक वातावरण और देश-कालगत परिस्थितियां उसकी रूपरेखा को बनाने और नियंत्रित करने में बहुत बड़ा भाग लेती हैं। किसी के नेतृत्व में चलने वाला समाज यदि व्यक्तिवादी या रूढिवादी है तो उस समाज में स्वाभाविक और योग्य नेतृत्व की उन्नति के लिए अधिक अवसर नहीं रहता। जैसा की बताया जा चुका है, राजपूत जाति में नेतृत्व अब तक वंशानुगत, पद और आर्थिक सम्पन्नता के आधार पर चला आया है। वह समाज कितना अभागा है जहाँ गुणों और सिद्धांतों का अनुकरण न होकर किसी तथाकथित उच्च घराने में जन्म लेने वाले अस्थि-मांस के क्षणभंगुर मानव का अन्धानुकरण किया जाता है। सैंकड़ों वर्षों से पालित और पोषित इस समाज के इन कुसंस्कारों को आज दूर करने की बड़ी आवश्यकता है ।“
वंशानुगत नेतृत्व स्वीकारने के दुष्परिणाम मुगल व अंग्रेजकाल का इतिहास पढने पर हमारे सामने स्वतः दृष्टिगोचर हो जाते है. आजादी के समय को भी देखें तो आप पायेंगे कि समाज जिन राजाओं का आँख मूंदकर समर्थन करता आ रहा था. जो समाज सदियों से भारत भूमि के लिए सबसे ज्यादा बलिदान देता आया था वह देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में जन साधारण के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर साथ तक नहीं दे सका. और राजाओं की राज्यलिप्सा की पूर्ति में सहायक बन आज जनता की नजर में मुगलों, अंग्रेजों का पिट्ठू होने के आरोप झेल रहा है. इन वंशानुगत राजाओं की अयोग्यता का इससे बड़ा प्रमाण क्या कि सदियों से लाखों, करोड़ों राजपूतों व अपने पूर्वजों के बलिदान व संघर्ष से पाया राज्य बिना संघर्ष किये सिर्फ एक हस्ताक्षर कर इन्होंने खो दिया.
अफसोस इस बात का है कि आज भी हम इस रुढिवादी वंशानुगत नेतृत्व स्वीकारने की मानसिक दासता से बाहर नहीं निकले है, आज भी हम आम योग्य क्षत्रिय नेता को छोड़कर राजपरिवारों के पीछे भागते है. हमारी इस मानसिकता का फायदा राजनैतिक पार्टियाँ भी खूब उठाती है. जिस चुनाव क्षेत्र में हम बहुमत में होते है वहां पार्टियाँ किसी राजपरिवार के अयोग्य, संस्कारहीन, अय्याश, लम्पट सदस्य को टिकट देती है तो भी हम आँख मूंदकर उसकी जय जयकार करते हुए उसके पीछे हो लेते है. और चुनाव जीताने के बाद अपने आपको ठगा हुआ महसूस करते है क्योंकि राजमहलों में आम राजपूत का प्रवेश पहले भी बंद था और आज भी बंद है.
महत्वाकांक्षा
जैसा कि ऊपर लिखा जा चूका है प्रति वर्ष समाज के सामने आदर्शों व सिद्धांतों की गठरी लिए अपनी नेतृत्व देने की भूख लिए कई अति महत्वाकांक्षी नेता आते है और थोड़े समय बाद ही वे समाजिक परिदृश्य से बाहर हो जाते है. दरअसल आज समाज सेवा व समाज का नेतृत्व मिलना राजनैतिक सफलता की पहली सीढी और शार्टकट रास्ता माना जाता है. अतरू राजनैतिक सफलता की कामना लेकर आने वाले नेता समाज को सीढी की तरह इस्तेमाल कर समाज की ताकत दिखा कर किसी राजनैतिक पार्टी में स्थापित हो जाते है और स्थापित होने के बाद समाज को भूल जाते है. अक्सर सोशियल साइट्स पर क्षत्रिय युवकों द्वारा प्रदर्शित चिंता पढने को मिलती है कि हमें एक होना चाहिए, लेकिन इन साइट्स पर भी इस एकता की चाह के बाद अनेकता के दर्शन आम बात है, हर कोई अपने नेतृत्व में एक समूह बनाना चाहता है भले उसके समूह में सिर्फ चार व्यक्ति ही हो. ठीक इसी तरह यदि सामाजिक संगठनों पर नजर डाले तो पायेंगे कि थोड़े दिन किसी संगठन से जुड़ते ही व्यक्ति सीधा उसका नेतृत्व पाना चाहता है. जिस व्यक्ति ने वर्षों मेहनत कर संगठन खड़ा किया उस पर नवागुंतक बिना कुछ किये कब्जा जमाने की फिराक में रहता है. कभी एक क्षत्रिय महासभा हुआ करती थी लेकिन आज राजधानी दिल्ली में देखें तो कई अखिल भारतीय, अंतराष्ट्रीय, ब्रह्माण्ड क्षत्रिय महासभाएं अस्तित्व में है. लेकिन जब इन कथित राष्ट्रीय संगठनों की राष्ट्रीय कार्यकारणी बैठकें देखें तब अखिल भारतीय होने का दम भरने वाली महासभा गली के संगठन जितनी संख्या भी नहीं जुटा सकती. कुकरमुत्तों की तरह उगे संगठनों को देखने पर यह साफ जाहिर होता है कि समाज को एक मजबूत नेतृत्व मिलने की राह में इस तरह की हर व्यक्ति की नेतृत्व देने की मानसिकता व महत्वाकांक्षा भी रोड़ा है. एक व्यक्ति समाज हित के नाम से किसी समाज विरोधी एक व्यक्ति की हत्या कर आता है, या किसी को थप्पड़ मार आता है और चाहता है कि अब इस कार्य के बदले ही उसे समाज अपना राष्ट्रीय नेतृत्व सौंप दें. तो कोई एक समाज का भावुक मुद्दा उठाकर इस तरह की कामना करता है.
पूंजी का असर
समाज को वास्तविक नेतृत्व मिलने में धन भी एक बहुत रोड़ा है. अथाह पूंजी आज नेतृत्व के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता है. सामज के सामने ऐसे कई आदर्श, सिद्धांत, कर्मठ, योग्य, ईमानदार व्यक्ति नेतृत्व के लिए आते है लेकिन उनके पास पूंजी नहीं होती और वे बिना पूंजी के आगे नहीं बढ पाते. इसके ठीक विपरीत देखा गया कि सामाजिक कार्यक्रमों में मंच पर ऐसे व्यक्ति आसीन रहते है जिनकी पृष्ठभूमि अपराधिक होती है, जिन्होंने समाज के नियम विरुद्ध शादी ब्याह किये होते है, जिनके व्यवसायिक पेशे क्षत्रिय समाज की गरिमा के प्रतिकूल होते है, वे अपने धनबल के सहारे दिखाई पड़ते है. धनबल के सहारे ऐसे भ्रष्ट व्यक्ति महिमामंडित होकर समाज का नेतृत्व करने आगे आ जाते है. लेकिन वे समाज का कभी हित नहीं सोचते सिर्फ अपने हित में सामाजिक भावनाओं का दोहन मात्र करते है. आज क्षत्रिय समाज के सामने ये आचरणहीन, गैर सामाजिक, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले धनी व्यक्ति सबसे बड़ी समस्या है. ऐसे व्यक्ति महिमामंडित होकर अन्य समुदायों में क्षत्रिय समाज की प्रतिष्ठा को भारी क्षति पहुंचा रहे है.
राजनेताओं का सामाजिक नहीं रह पाना
समाज सेवा के नाम पर समाज का नेतृत्व करने वाले ज्यादातर नेताओं का अगला लक्ष्य राजनीति होता है. जो किसी भी क्षत्रिय के लिए होना भी चाहिए. लेकिन यही बात समाज के नेतृत्व के लिए बड़ी समस्या भी है क्योंकि राजनीति में स्थापित होने के बाद नेताओं की प्राथमिकता बदल जाती है. वे सामाजिक नहीं रह पाते और अपनी पार्टी की विचारधारा के अनुरूप आचरण करते है. कई बार देखा गया कि समाज के दम पर नेता बने राजनेता पार्टी विचारधारा के अनुरूप क्षत्रिय समाज विरोधी कार्य भी कर बैठते है. जबकि अन्य जातियों के नेता राजनैतिक पार्टियों में रहते रहने के बावजूद अपनी जातीय प्राथमिकता नहीं बदलते.
अतः राजपूत समाज को चाहिये कि वह नेतृत्व के मामले में वंशानुगत, पद और आर्थिक संपन्नता व रूढिगत आधार पर चली आ रही व्यवस्था व मानसिकता से निकले और ऐसे व्यक्तियों को नेतृत्व सौंपे जिनकी विचारधारा में समाज के सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा, क्षात्र धर्म का पालन करते हुए सिद्धांतों पर चलने के गुण, समाज के प्रति पीड़ा, ध्येय व वचन पर दृढ़ता, अनुशासन, दया, उदारता, विनय, क्षमा के साथ सात्विक क्रोध, स्वाभिमान, संघर्षप्रियता, त्याग, निरंतर क्रियाशीलता आदि स्वाभाविक क्षत्रिय गुण मौजूद हो, ऐसे ही योग्य व्यक्ति समाज का वास्तविक नेतृत्व कर सही दिशा दे सकते है।
समाज को वास्तविक नेतृत्व मिलने के मामले में आयुवान सिंह जी शेखावत राजपूत और भविष्य में लिखते है “वास्तविक और योग्य नेतृत्व स्वयं विकसित और निर्मित होता है, वह बनाने तथा चुनने से नहीं बनता। मेरा तो दृढ विश्वास है कि जब तक समाज को स्वयं-विकसित और स्वयं-सिद्ध नेतृत्व नहीं मिलेगा तब तक उसे सच्चा नेतृत्व मिल ही नहीं सकता और जब तक वास्तविक नेतृत्व नहीं मिलता तब तक उन्नति के रूप में हमारा सोचना व्यर्थ ही होगा।”
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