ट्रेन का सफर हम
सभी ने किया है और करते रहते हैं। यह सफर हमारे लिए जिंदगी की पाठशाला से कम नहीं
होता पर हम कहां सीख पाते हैं। ट्रेन के सफर में हमारा जो व्यवहार रहता है वैसे हम
सामान्य जीवन में नहीं रहते। जबकि हम सब एक तरह से नॉन स्टाप लाइफ एक्सप्रेस में
सफर कर रहे हैं। हम सबका टिकट पहले से कट चुका है, सीट भी रिजर्व है और
मंजिल तो हम सब को पता है ही। इस सब के बाद भी हम एक अच्छे यात्री नहीं बन पाते कि
बाद में लोग हमें याद रखें। हमें तो यह भी चिंता नहीं कि जब हम सफर पर निकलेंगे तब
हमें विदा करने चार लोग भी जुटेंगे या नहीं।
ठसाठस भरी ट्रेन
में पैर रखने जैसी हालत भी नहीं थी। अगले स्टेशन पर जितने लोग उतरते उनसे अधिक
संख्या चढऩे वालों की थी। फिर भी हर कोई इस विश्वास के साथ डिब्बे में चला आ रहा
था कि भीड़ है तो क्या अपना सफर तो अच्छा रहेगा। मुझे भी ट्रेन का सफर अच्छा लगता
है। मेरा तो मानना है जिंदगी की पाठशाला के कई पीरियड का ज्ञान एक टिकट का मूल्य
चुका कर प्राप्त किया जा सकता है।
जाने वाला एक
होता है लेकिन छोडऩे वाले एकाधिक। आंखों से टपकने को आतुर आंसुओं को पलकों में ही
रोक कर मुस्कुराते हुए बातचीत करते रहने के दृश्य प्लेटफार्म के अलावा आसानी से और
कहीं देखने को नहीं मिलते। इस सफर में ही यह सत्य भी छुपा होता है कि जो आया है
उसे एक न एक दिन जाना ही है। जाने वाले को भी पता होता है कि जो छोडऩे आते हैं वो
साथ नहीं जाते। ट्रेन रवानगी के बाद जो घर की ओर कदम बढ़ाते हैं तो वो सब भी मान
कर चलते हैं कि जब हम जाएंगे तो लोग हमें भी इसी तरह छोडऩे आएंगे।
जिंदगी और मौत के
बीच भी तो ट्रेन के सफर जैसे ही हालात रहते हैं। हम सब के अंतिम सफर के टिकट पहले
से ही रिजर्व हैं। हमें भले ही पता न हो लेकिन ट्रेन को सब पता है कब, किसे लेने जाना है। जब बहुत तबीयत बिगडऩे और डॉक्टरों के जवाब देने के बाद भी
किसी चमत्कार की तरह बोनस लाइफ मिल जाए तो मान लेना चाहिए कि आरएसी की वेटिंग
लिस्ट में नंबर था और उस स्वीकृत सूची में हमारा नंबर ऐन वक्त पर आते आते रह गया।
सफर चाहे ट्रेन
का हो या जिंदगी का, यह हंसते खेलते तभी कट सकता है जब हम सब के साथ
एडजस्ट होकर चलें। हम ट्रेन में किए पिछले किसी लंबे सफर को याद करें तो आश्चर्य
भी हो सकता है कि जवान होते बच्चों की शादी के लिए कोई ठीकठाक रिश्ता दिखाने का
आग्रह, कारोबारी मित्रता या वर्षों बाद अपने किसी स्कूली दोस्त के
समाचार तो हमें पड़ोस की सीट पर बैठे उस यात्री से ही मिले थे जिसे हम ट्रेन चलने
के पहले तक पहचानते तक नहीं थे। किसी के टिफिन से सब्जी लेना और बदले में अपने शहर
की फेमस नमकीन और मिठाई खिलाने जैसे आत्मीय पल लंबे और उबाऊ सफर में भी रंग भर
देते हैं। तंबाकू और ताश के पत्तों से शुरू हुई बातचीत मंजिल आने तक इतनी गहरी
मित्रता में बदल जाती है कि एड्रेस का आदान-प्रदान याद से घर आने के अनुरोध के साथ
खत्म जरूर हो जाता है लेकिन अपनों के बीच पहुंच कर हम कुछ घंटों के उस सहयात्री के
किस्से सुनाते रहते हैं।
अब जरा इस ट्रेन
के सफर को हम अपनी रोज की जिंदगी के साथ देखें। सफर तो हम रोज कर रहे हैं। दिन, महीनों और सालों वाले स्टेशनों पर बिना रुके नॉन स्टाप लाइफ एक्सप्रेस दौड़ती
जा रही है। ट्रेन में तो हम फिर भी बिना किसी स्वार्थ के अपनी लोअर बर्थ जरा से
अनुरोध पर अन्य यात्री के लिए खाली कर के उसकी अपर बर्थ पर खुद को एडजस्ट कर लेते
थे लेकिन जीवन के सफर में हमें न तो अपनों की परेशानी नजर आती है और न ही हम में
एडजस्ट करने का भाव पैदा होता है। हम इस सफर में अपने में ही मस्त हैं। हम न तो
किसी के यादगार सहयात्री साबित होना चाहते हैं और न ही अपने आसपास के सहयात्री से
कुछ अच्छा सीखना चाहते।
किसी वक्त जब कभी
हमें कुछ फुर्सत मिले तो अकेले में चिन्तन जरूर करना चाहिए कि हमारा अब तक का सफर
कैसा रहा। क्या हमने ट्रेन के डिब्बे में कुछ ऐसा किया कि बाकी लोग हमें एक अच्छे
यात्री के रूप में याद रखें। हमने कुछ ऐसा भी किया या नहीं कि लोग हमें किस्सों
में याद करें। सामान्य जिंदगी तो सभी बिताते हैं लेकिन हमने इस समाज का ऋण उतारने
की दिशा में कुछ किया भी या नहीं। हम सब को टिकट तो उसी गाड़ी का मिला है जो किसी
को जल्दी तो किसी को कुछ देर से तय स्टेशन पर ही ले जाएगी। टिकट सही होने के बाद
भी यदि हम गलत गाड़ी में बैठ कर इस जीवन को सार्थक की अपेक्षा निरर्थक बनाएंगे तो
इसमें न स्टेशन मास्टर का दोष होगा न सहयात्रियों का और न पटरियों का। हमें कुछ
लोग स्टेशन पर छोडऩे तभी आएंगे,
जब हम किसी की परेशानियों
में साथ खड़े होने का वक्त निकाल पाएंगे। वरना तो आज घर से श्मशानघाट तक शवयात्रा
को कंधा देने वाले भी कम पड़ जाते हैं। हर कोई सीधे श्मशानस्थल के मेनगेट पर पांच
मिनट पहले पहुंचने के शार्टकट अपनाने लगा है।
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