(1)
चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥
चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥
(2)
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥
(3)
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥
(4)
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥
(5)
गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥
(6)
सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में करते याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥
(7)
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥
(8)
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥
(9)
कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥
(10)
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥
(11)
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥
(12)
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
(13)
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥
(14)
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥
(15)
तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥
(16)
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥
(17)
उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥
(18)
सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥
(19)
साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥
(20)
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥
(21)कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥
लूट सके तो लूट
ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे
पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥
(22)
जहाँ दया तहाँ
धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ
पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥
(23)
कबीरा सोया क्या
करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले
जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥
(24)
जाति न पूछो साधु
की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का,
पड़ा रहन दो म्यान ॥
(25)
पाँच पहर धन्धे
गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर हरि नाम
बिन, मुक्ति कैसे होय ॥
(26)
गारी ही सों ऊपजे,
कलह कष्ट और मींच ।
हारि चले सो साधु
है, लागि चले सो नींच ॥
(27)
कबीरा ते नर अन्ध
है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु
ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥
(28)
धीरे-धीरे रे मना,
धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ
घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥
(29)
माटी कहे कुम्हार
से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा,
मैं रौंदूंगी तोय ॥
(30)
दुर्लभ मानुष
जन्म है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों
पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार
॥
(31)
आय हैं सो जाएँगे,
राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि
चले, एक बँधे जात जंजीर ॥
(32)
माया मरी न मन
मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी,
कह गए दास कबीर ॥
(33)
शीलवन्त सबसे
बड़ा, सब रतनन की खान ।
तीन लोक की
सम्पदा, रही शील में आन ॥
(34)
काल करे सो आज कर,
आज करे सो अब ।
पल में प्रलय
होएगी, बहुरि करेगा कब ॥
(35)
रात गंवाई सोय के,
दिवस गंवाया खाय ।
हीना जन्म अनमोल
था, कोड़ी बदले जाय ॥
(36)
नींद निशानी मौत
की, उठ कबीरा जाग ।
और रसायन छांड़ि
के, नाम रसायन लाग ॥
(37)
जहाँ आपा तहाँ
आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों
मिटे, चारों धीरज रोग ॥
(38)
माँगन मरण समान
है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन से तो मरना
भला, यह सतगुरु की सीख ॥
(39)
माया छाया एक सी,
बिरला जाने कोय ।
भगता के पीछे लगे,
सम्मुख भागे सोय ॥
(40)
आया था किस काम
को, तु सोया चादर तान ।
सुरत सम्भाल ए
गाफिल, अपना आप पहचान ॥
हर
चाले तो मानव, बेहद
चले सो साध ।
(41)
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय॥
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय॥
(42)
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि॥
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि॥
(43)
सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार॥
सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार॥
(44)
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि॥
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि॥
(45)
शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय॥
शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय॥
(46)
बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाडी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार।।
बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाडी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार।।
(47)
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥
(48)
जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय।
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय॥
जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय।
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय॥
(49)
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान॥
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान॥
(50)
गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव।
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव॥
गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव।
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव॥
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हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥ 46 ॥
राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस ।
रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥ 47 ॥
जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच ।
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥ 48 ॥
तीरथ
गये ते एक फल, सन्त
मिले फल चार ।
सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 49 ॥
सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 49 ॥
सुमरण
से मन लाइए, जैसे
पानी बिन मीन ।
प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥
प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥
समझाये
समझे नहीं, पर
के साथ बिकाय ।
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥
हंसा
मोती विण्न्या, कुञ्च्न
थार भराय ।
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥
कहना
सो कह दिया, अब
कुछ कहा न जाय ।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥
वस्तु
है ग्राहक नहीं, वस्तु
सागर अनमोल ।
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥
कली
खोटा जग आंधरा, शब्द
न माने कोय ।
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥
जागन
में सोवन करे, साधन
में लौ लाय ।
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥
साधु
ऐसा चहिए ,जैसा
सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥
लगी
लग्न छूटे नाहिं, जीभ
चोंच जरि जाय ।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥
भक्ति
गेंद चौगान की, भावे
कोई ले जाय ।
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥
घट
का परदा खोलकर, सन्मुख
दे दीदार ।
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥
अन्तर्यामी
एक तुम, आत्मा
के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥
मैं
अपराधी जन्म का, नख-सिख
भरा विकार ।
तुम दाता दु:ख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥ 63 ॥
तुम दाता दु:ख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥ 63 ॥
प्रेम
न बड़ी ऊपजै, प्रेम
न हाट बिकाय ।
राजा-प्रजा जोहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥
राजा-प्रजा जोहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥
प्रेम
प्याला जो पिये, शीश
दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥
सुमिरन
में मन लाइए, जैसे
नाद कुरंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥
सुमरित
सुरत जगाय कर, मुख
के कछु न बोल ।
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥
छीर
रूप सतनाम है, नीर
रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥
ज्यों
तिल मांही तेल है, ज्यों
चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥
जा
करण जग ढ़ूँढ़िया, सो
तो घट ही मांहि ।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥
जबही नाम हिरदे
घरा, भया पाप का नाश ।
मानो चिंगरी आग
की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥
नहीं शीतल है
चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय ।
कबीरा शीतल सन्त
जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥
आहार करे मन
भावता, इंदी किए स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥
जब लग नाता जगत
का, तब लग भक्ति न होय ।
नाता तोड़े हरि
भजे, भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥
जल ज्यों प्यारा
माहरी, लोभी प्यारा दाम ।
माता प्यारा
बारका, भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥
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