Saturday, October 8, 2016

कवितायेँ

हर दुख पर इतना भर कह ले, सुख चाहे तो ये दुख सह ले।
क्यों आफत से जी घबराए, भीगे पलक आँख भर आए
हँसने को हैं जो रोते हैं, आँसू हर गम को धोते हैं।
चल खारे पानी में बह ले, सुख चाहे तो ये दुख सह ले।
घायल है कलियों का सीना, माँग रहा है चमन पसीना
बगिया में गुल खिल जाएँगे, हमजोली फिर मिल जाएँगे।
काँटों पर चलना है पहले, सुख चाहे तो ये दुख सह ले।
मान ज़रा मौसम का कहना, ऐसा भी क्या भला मचलना
अब कोई मजबूरी होगी, कल हर चाहत पूरी होगी।

आज समय जो कुछ दे वह ले, सुख चाहे तो ये दुख सह ले।

ऐसे भी मौके आएँगे, जो अपने हैं ठुकराएँगे
वार करेंगे उकसाएँगे, आखिर थक कर हट जाएँगे।

थोड़ा मन मसोस कर रह ले, सुख चाहे तो ये दुख सह ले।

कहने को कुछ भी मुमकिन है, पर यथार्थ की राह कठिन है
तुझको बढ़ते ही जाना है, चट्टानों से टकराना है।

फिर सहेजना स्वप्न रुपहले, सुख चाहे तो ये दुख सह ले।
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यह न समझो कूल मुझको मिल गया
आज भी जीवन-सरित मझधार में हूँ!
प्यार मुझको धार से
धार के हर वार से,
प्यार है बजते हुए
हर लहर के तार से,
यह न समझो घर सुरक्षित मिल गया
आज भी उघरे हुए संसार में हूँ!
प्यार भूले गान से,
प्यार हत अरमान से,
ज़िन्दगी में हर क़दम
हर नए तूफ़ान से,
यह न समझो इंद्र-उपवन मिल गया
आज भी वीरान में, पतझार में हूँ!
यह न समझो कूल मुझको मिल गया
आज भी जीवन-सरित मँझधार में हूँ!
खोजता हूँ नव-किरन
रुपहला जगमग गगन,
चाहता हूँ देखना
एक प्यारा-सा सपन,
यह न समझो चाँद मुझको मिल गया
आज भी चारों तरफ़ अँधियार में हूँ!
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दो क्षण सम्पुट अधरों को जो
तुमने दी खिलते शतदल-सी मुसकान,
कृपा तुम्हारी, धन्यवाद!
जग की डाल-डाल पर छाया
था मधु-ऋतु का वैभव,
वसुधा के कन-कन ने खेली
थी जब होली अभिनव,
मेरे उर के मूक गगन को
गुंजित कर जो तुमने गाया मधु-गान,
कृपा तुम्हारी, धन्यवाद!
दो क्षण सम्पुट अधरों को जो
तुमने दी खिलते शतदल-सी मुसकान,
कृपा तुम्हारी, धन्यवाद!
पूनम की शीतल किरनों में
वन-प्रांतर डूब गए,
जब जन-जन मन में सपनों के
जलते थे दीप नए,
युग-युग के अंधकार में तुम
मेरे लाए जो जगमग स्वर्ण-विहान,
कृपा तुम्हारी, धन्यवाद!
दो क्षण सम्पुट अधरों को जो
तुमने दी खिलते शतदल-सी मुसकान,
कृपा तुम्हारी, धन्यवाद!
जब प्रणयोन्माद लिए बजती
मुरली मनुहारों की,
घर-घर से प्रतिध्वनियाँ आतीं
गीतों-झनकारों की,
दो क्षण को ही जो तुमने आ
बसा दिया मेरा अंतर-घर वीरान,
कृपा तुम्हारी, धन्यवाद!
दो क्षण सम्पुट अधरों को जो
तुमने दी खिलते शतदल-सी मुसकान,
कृपा तुम्हारी धन्यवाद!
आ जाती जीवन-प्यार लिए
जब संध्या की बेला,
हर चैराहे पर लग जाता
अभिसारों का मेला,
दुनिया के लांछन से सोया
जगा दिया खंडित फिर मेरा अभिमान,
कृपा तुम्हारी धन्यवाद!
दो क्षण सम्पुट अधरों को जो
तुमने दी खिलते शतदल-सी मुसकान,
कृपा तुम्हारी धन्यवाद!
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आने वाले वक्त का, मंजर मुझे मालूम है
किस जगह ले जाएँगे, रहबर मुझे मालूम है।

जो भी सच कहने की जुर्रत, कर सकेगा शहर में
काट डालेंगे उसी का, सर मुझे मालूम है।

कितने दिन तक आप इसको, बाँध कर रख पाएँगे
टूट जाएगा किसी दिन, घर मुझे मालूम है।

तुम से ज्यादा जानता हूँ, मैं अमीरे-शहर को
घोंप देगा पीठ में, खंजर मुझे मालूम है।

आसमाँ से फूल बरसें, या कि बरसे चाँदनी
मेरे सर पर आएँगे, पत्थर मुझे मालूम है।

देवताओं और फरिश्तों, ने इसे ऐसा छुआ
हो गयी मैली मेरी चादर, मुझे मालूम है।

कलतलक तो इस कलम के, वास्ते मरते रहे
आज गिरवी रख रहे शायर, मुझे मालूम है।
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घर का शोर-शराबा खुद के कुछ इतना बेजार हुआ
धीरे-धीरे सन्नाटा भी मरने को तैयार हुआ।

जिसने गुलशन के कोनों में छिप के आग लगाई थी
आज नहीं सारे फूलों की खुशबू का हकदार हुआ।

बाजारू माहौल घरों के अन्दर जब से आया है
दिल का हर प्यारा सा रिश्ता सचमुच काँटेदार हुआ।

अपने सीने पर वैसे भी कब तक पत्थर रख कर जीता
शबनम का हर कतरा इस दिल लाल, सुर्ख अंगार हुआ।
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न्याय माँगने, गाँव हमारे, जब तेहसील गये,
न्यायालय, खलिहान, खेत, 
घर गहने लील गये!

लिया कर्ज़, 
सम्भावनाओं की फसल गयी बोई,
फलीभूत आशा के होते, लगा रोग कोई।
साँड़ तकादों के, लठैत 
खेतों में ढील गये

गिरवी रखा 
अँगूठा, करने बेटी का गौना,
छोड़ पढ़ाई हरवाही करने निकला छौना।
चिन्ताओं के बोझ, सुकोमल 
काँधे छील गये

उर्वर की, 
भूदान यज्ञ वाली ज़मीन पड़ती,
हरियाली शहरी आँखों में, सदा रही गड़ती।
फिर कछार कांक्रीट वनों में 
हो तब्दील गये

नफ़रत से 
तिमिराच्छादित दिखती है गली-गली,
उच्छृंखल धर्मान्धताओं की ऐसी हवा चली।
प्रेम और सद्भावनाओं के
बुझ कन्दील गये

कभी न 
छँट पाया, जीवन से विपदा का कुहरा,
राजनीति का, जिन्हें बनाया गया सदा मुहरा।
दिल्ली, लोक कला दिखलाने 
भूखे भील गये

तुमने खैर-खबर पूछी है, चलो बता ही देता हूँ
जीने की तो बात ही क्या है मरना भी दुश्वार हुआ।
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शब्द जो हमने बुने
सिर्फ़ बहरों ने सुने
यह अंधेरी घाटियों
की चीख है
मुट्ठियों में बंद
केवल भीख है
बस रूई की गाँठ
जैसे हैं पड़े
मन करे जिसका, धुने
आँधियाँ सहता रहा
दिन का किला
रात को हर बार
सिंहासन मिला
दें किसी सोनल किरन
को दोष क्या
जब अंधेरे ही चुने
छोड़ते हैं साँप
सड़कों पर ज़हर,
देखते ही रह गए
बौने नगर,
थक चुके
पुरुषार्थ के भावार्थ को
कौन जो फिर से गुने।
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जादू टोने
जंतरमंतर की नगरी में
हम पता पूछते
घूम रहे अपने घर का
तोता मैना बनकर पिंजरों
में बंद हुए
जब भी महलों
के दरवाज़ों से हाथ छुए
अपने भविष्य की
गिनी चुनी रेखाओं का
मुँह खुला मिला
सब तरफ़ एक ही अजगर का
दंगों वाली तक़दीर हमारे
हिस्सों में

काटें कर्फ्यू के दिन
नफ़रत के किस्सों में
सीधे-साधी गलियों तक के
तेवर बदले
जब शुरू हुआ फिर
खेल यहाँ बाज़ीगर का
जब राजनर्तकी नाचेंगी
गलियारों में
कुछ आकर्षक मुद्राएँ
लेकर नारों में
सम्मोहन के मंत्रों-संकेतों में
खोकर
हम भूल जाएँगे
घाव, नुकीले पत्थर का।

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